नेहरू के ख़िलाफ़ किए जा रहे दुष्प्रचार की वजह क्या है?

BY सौरभ बाजपेयी 

जवाहर लाल नेहरू की असफलताएं भी गिनाई जा सकती हैं, लेकिन उसके पहले आपको नेहरू का इस देश के निर्माण में महान योगदान भी स्वीकारना होगा.

नेहरू जयंती के मौके पर नेहरू को एक बार फिर कोसने का मौका है. अगर आप इतिहास के जानकार दिखना चाहते हैं तो इस देश की सारी समस्याओं की जड़ नेहरू को करार दे दीजिये. बात चाहे कश्मीर की हो या फिर भारत के बंटवारे की या आजाद भारत के इतिहास की किसी भी समस्या की- नेहरू सबके सामान्य खलनायक हैं.

नेहरू के खिलाफ फैलाये जा रहे दुष्प्रचार की वजहें साफ हैं. आरएसएस भारत के स्वाधीनता संघर्ष के इतिहास को बदनाम करना चाहती है. इस इतिहास के तमाम नायकों में उसके सबसे बड़े तीन दुश्मन हैं- गांधी, नेहरू और सरदार पटेल.

लेकिन आरएसएस चाहकर भी गांधीजी पर सीधा हमला करने की स्थिति में नहीं है. इसलिए उसकी रणनीति दोतरफा है- नेहरू की चारित्रिक हत्या कर दो और उनको सरदार पटेल का सबसे बड़ा दुश्मन बना दो.

अगर आप आज सोशल मीडिया पर फैलाये जा रहे दुष्प्रचार का यकीन करें तो नेहरू ने न सिर्फ पटेल बल्कि उनके पूरे खानदान के साथ दुश्मनी निभाई.

यह जानने में किसी की दिलचस्पी नहीं है कि उनकी बेटी मणिबेन पटेल नेहरू के नेतृत्व में लड़े गए पहले और दूसरे आम चुनावों में कांग्रेस की तरफ से सांसद चुनी गयीं. मणिबेन के भाई दयाभाई पटेल को भी कांग्रेस ने तीन बार राज्यसभा भेजा था यह बात भी अनसुनी कर दी जायेगी.

अफवाहों के सांप्रदायिक प्रचार-तंत्र ने झूठ को सच बनाने का आसान रास्ता चुना है. उसने झूठ का ऐसा जाल बुना है कि आम आदमी की याददाश्त से यह बात गायब हो चुकी है कि नेहरू सच में कौन थे. आज की नई पीढ़ी जिसकी सबसे बड़ी लाइब्रेरी इंटरनेट है, यूट्यूब वाले नेहरू को जानती है.

उस नेहरू को जो औरतों का बेहद शौकीन कामुक व्यक्ति था. जिसने एडविना माउंटबेटन के प्यार में पड़कर भारत के भविष्य को अंग्रेजों के हाथों गिरवीं रख दिया. यहां तक यह भी नेहरू की मौत इन्हीं वजहों से यानी एसटीडी (सेक्सुअली ट्रांसमिटेड डिसीज) से हुई थी.

इसके अलावा नेहरू सत्तालोलुप हैं. नेहरू गांधी की कृपा से प्रधानमंत्री बने वरना सरदार पटेल आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री होते. यह ऐसा आरोप है जिसका कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं है. लेकिन आरएसएस विचारक नाम से मशहूर कई लोग हर टीवी शो में यह झूठ बार-बार दोहराते हैं.

वो जिस वाकये की टेक लेकर यह अफवाह गढ़ते हैं उसमें बात पटेल के प्रधानमंत्री होने के बजाय कांग्रेस अध्यक्ष होने की थी. इस बात का प्रधानमंत्री पद से दूर-दूर का वास्ता नहीं था.

1940 के बाद 1946 तक मौलाना आजाद कांग्रेस के अध्यक्ष बने रहे क्योंकि भारत छोड़ो आंदोलन और उसकी वजह से कांग्रेस को गैरकानूनी घोषित करने की वजह से चुनाव नहीं कराये जा सके. उसके बाद आचार्य कृपलानी कांग्रेस के अध्यक्ष बने और प्रधानमंत्री पद को लेकर कोई ऐसा विवाद कभी हुआ ही नहीं.

आजादी के पहले और आजादी के बाद दो अलग-अलग दौर थे. पहले दौर में गांधी के व्यापक नेतृत्व में एक भरी-पूरी कांग्रेस थी. जिसमें नेहरू गांधी के बाद बिना शक नंबर दो थे. गांधी के बाद वही जनता के दिलों पर सबसे ज्यादा राज करते थे.

गांधी की हत्या के बाद वो निस्संदेह कांग्रेस के सबसे बड़े नेता थे जिसे सरदार पटेल भी स्वीकार करते थे. दोनों के बीच कई मुद्दों पर गंभीर वैचारिक मतभेद थे लेकिन आखिरकार वो दोनों एक ही राजनीतिक दल के दो सबसे बड़े स्तम्भ थे.

सरदार पटेल की 1950 में आकस्मिक मृत्यु के पहले तक आजाद भारत के पुनर्निर्माण के काम में लगभग सब कुछ नेहरू और पटेल का साझा प्रयास था. रियासतों के एकीकरण के काम में सरदार पटेल और वीपी मेनन की भूमिका किसी से छिपी नहीं है. लेकिन भारत का एकीकरण आजादी की लड़ाई का मूल विचार था. जिस देश को पिछले सौ सालों में जोड़ा-बटोरा गया था, उसे सैकड़ों छोटी-बड़ी इकाइयों में टूटने नहीं देना था.

आजादी के बाद यह काम आजाद भारत की सरकार के जिम्मे आया. जिसे पटेल ने गृह मंत्री होने के नाते बखूबी अंजाम दिया. लेकिन भारत को सैकड़ों हिस्सों में तोड़ने वाला मसौदा ब्रिटेन भेजने के पहले माउंटबेटन ने नेहरू को दिखाया.

माउंटबेटन के हिसाब से ब्रिटेन को क्राउन की सर्वोच्चता वापस ले लेनी चाहिए. यानी जितने भी राज्यों को समय-समय पर ब्रिटिश क्राउन की सर्वोच्चता स्वीकारनी पड़ी थी, इस व्यवस्था से सब स्वतंत्र हो जाते.

नेहरू यह मसौदा देखने के बाद पूरी रात सो नहीं सके. उन्होंने माउंटबेटन के नाम एक सख्त चिट्ठी लिखी. तड़के वो उनसे मिलने पहुंच गए. नेहरू की दृढ इच्छा शक्ति के आगे मजबूरन माउंटबेटन को नया मसौदा बनाना पड़ा जिसे ‘3 जून योजना’ के नाम से जाना जाता है.

जिसमें भारत और पाकिस्तान दो राज्य इकाइयों की व्यवस्था दी गई थी. ध्यान रहे सरदार पटेल जिस सरकार में गृह मंत्री थे, नेहरू उसी सरकार के प्रधानमंत्री थे.

सरदार पटेल खुद बार-बार नेहरू को अपना नेता घोषित करते रहे थे. अपनी मृत्यु के समय भी उनके दिमाग में दो चीजें चल रही थीं. एक यह कि वो अपने बापू को बचा नहीं सके और दूसरी यह कि सब नेहरू के नेतृत्व को स्वीकार करते हुए आगे बढ़ें. जो लोग सरदार पटेल की विरासत को हड़पकर नेहरू पर निशाना साधते हैं, उन्हें सरदार पटेल और नेहरू के पत्राचार पढ़ लेने चाहिए.

नेहरू पर कीचड़ उछालना इसलिए जरूरी है कि नेहरू ने इस देश में लोकतंत्र की जड़ें गहरी जमा दीं. यह किससे छुपा है कि आरएसएस की आस्था लोकतंत्र में लेशमात्र नहीं है. खुद हमारे प्रधानमंत्री ने पद संभालने के बाद कभी कोई प्रेस कांफ्रेंस बुलाना मुनासिब नहीं समझा.

ऐसे लोगों के नेहरू से डरते रहना एकदम स्वाभाविक है. क्योंकि नेहरू में अपनी आलोचना खुद करने का साहस था, सुनने की तो कहिये ही मत.

नेहरू की लोकतंत्र के प्रति निष्ठा की एक रोचक कहानी है. नेहरू हर तरफ अपनी जय-जयकार सुनकर ऊब चुके थे. उनको लगता था कि बिना मजबूत विपक्ष के लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं. इसलिए नवंबर 1957 में नेहरू ने मॉडर्न टाइम्स में अपने ही खिलाफ एक ज़बर्दस्त लेख लिख दिया.

चाणक्य के छद्मनाम से ‘द राष्ट्रपति’ नाम के इस लेख में उन्होंने पाठकों को नेहरू के तानाशाही रवैये के खिलाफ चेताते हुए कहा कि नेहरू को इतना मजबूत न होने दो कि वो सीजर हो जाए.

मशहूर कार्टूनिस्ट शंकर अपने कार्टूनों में नेहरू की खिल्ली नहीं उड़ाते थे. नेहरू ने उनसे अपील की कि उन्हें हरगिज बख्शा न जाए. फिर शंकर ने नेहरू पर जो तीखे कार्टून बनाये वो बाद में इसी नाम से प्रकाशित हुए- ‘डोंट स्पेयर मी, शंकर’.

गांधीजी की हत्या के बाद भी उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लंबे समय तक प्रतिबंध को नेहरू ने ठीक नहीं माना. उनका मानना था कि आजाद भारत में इन तरीकों का प्रयोग जितना कम किया जाए, उतना अच्छा. नेहरू को इस बात की बड़ी फिक्र रहती थी कि लोहिया जीतकर संसद में जरूर पहुंचे. जबकि लोहिया हर मौके पर नेहरू पर जबरदस्त हमला बोलते रहते थे.

बात नेहरू के महिमामंडन की बात नहीं है. नेहरू की असफलताएं भी गिनाई जा सकती हैं. लेकिन उसके पहले आपको नेहरू का इस देश में महान योगदान भी स्वीकारना होगा. 70 सालों में इस देश में कुछ नहीं हुआ के नारे के पीछे असली निशाना नेहरू ही हैं. नेहरू औपनिवेशिक शोषण से खोखले हो चुके देश को फिर से अपने पैरों पर खड़ा करने की कोशिश में लगे थे.

सैकड़ों चुनौतियों और सीमाओं के बीच घिरे नेहरू चक्रव्यूह में अभिमन्यु की तरह लड़ रहे थे, जहां अंततः असफलता ही नियति थी. एक बार गोपाल कृष्ण गोखले ने कहा था हमने अपनी असफलताओं से ही सही, देश की सेवा तो की. फिर भी उनकी आंखों में इस देश के सबसे गरीब-सबसे मजलूम को ऊपर उठाने का सपना था.

चार घंटे सोकर भी उन्होंने इसका कभी अहसान नहीं जताया और खुली आंखों से भारत को दुनिया के नक्शे पर चमकाने की कसीदाकारी करते रहे. प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डेनियल थॉर्नर कहते थे कि आजादी के बाद जितना काम पहले 21 सालों में नेहरू आदि ने किया, उतना तो 200 साल में किए गए काम के बराबर है.

मान भी लें कि नेहरू असफल नेता थे, तो भी उनकी नीयत दुरुस्त थी. आपने किसी ऐसे नेता के बारे में सुना है जो दंगाइयों की भीड़ के सामने निडर खड़ा होकर अपना सिर पीट- पीटकर रोने लगे या दंगा रोकने के लिए पुलिस की लाठी छीनकर ख़ुद भीड़ को तितर-बितर करने लगे.

या फिर जिसने हर तरह के सांप्रदायिक लोगों की गालियां और धमकियां सुनने के बावजूद हार न मानी हो. या फिर ऐसे नेता का जिसका फोन नंबर आम जनता के पास भी हो. और किसी ऐसे नेता को जानते हैं जो खुद ही फोन भी उठा लेता हो.

अगर नहीं तो आप नेहरू पर कीचड़ उछालने से बाज आइये और दूसरों को ऐसा करने से रोकिये. यकीन मानिए नेहरू होना इतना आसान नहीं है. अगर आपको नेहरू के नाम की कीमत नहीं पता तो आरएसएस के दुष्प्रचार से दूर किसी अन्य देश चले जाइए. लोग आपकी इज्जत इसलिए भी करेंगे कि आप गांधी के देश से हैं, आप नेहरू के देश से हैं.

(लेखक राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट नामक संगठन के राष्ट्रीय संयोजक हैं.) साभार दवायर 14/11/2022

नेहरू के ख़िलाफ़ किए जा रहे दुष्प्रचार की वजह क्या है?

वजह क्या है?

‘इंडिया आफ्टर गांधी’ के तीसरे संस्करण के विमोचन के अवसर पर इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने कहा कि उन्हें हैरानी है कि भाजपा साथ मिलकर काम करने वाले महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल को कैसे एक-दूसरे का प्रतिद्वंद्वी दर्शाने में कामयाब रही है.

नई दिल्ली: इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने दावा किया है कि सुभाष चंद्र बोस अहिंसा को छोड़कर अधिकतर मुद्दों पर महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू से सहमत थे तथा उन्हें यह जानकर ‘शर्मिंदगी और पीड़ा’ होती कि उनका इस्तेमाल इन दोनों नेताओं को कमतर दिखाने के लिए किया जा रहा है.

‘इंडिया आफ्टर गांधी’ के तीसरे संस्करण के विमोचन के अवसर पर गुहा ने मंगलवार को अपने संबोधन में कहा कि यह बोस ही थे, जिन्होंने गांधी को ‘राष्ट्रपिता’ कहा था.

उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि, ‘वे (भाजपा) गांधी, बोस, नेहरू और पटेल को कैसे एक-दूसरे का प्रतिद्वंद्वी दर्शाने में कामयाब रहे, जिन्होंने साथ मिलकर काम किया था.’

गांधी के जीवनी लेखक गुहा ने कहा, ‘अहिंसा को छोड़कर ज्यादातर चीजों पर बोस, गांधी और नेहरू से सहमत थे. यह जो कुछ भी हो रहा है कि बोस का इस्तेमाल गांधी और नेहरू को कमतर दिखाने के लिए किया जा रहा है, उससे चकित, शर्मिंदा और दुखी होने वाले वह (बोस) पहले व्यक्ति होते.’

उन्होंने जिक्र किया कि बोस ने आजाद हिंद फौज की ब्रिगेड का नाम ‘गांधी, नेहरू और आजाद (मौलाना आजाद)’ रखा तथा 1945 में बोस की मृत्यु की खबर के बाद गांधी ने कोलकाता में अपने भाषण में बोस की देशभक्ति को सलाम किया था.

समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, उन्होंने कहा, ‘कांग्रेस अध्यक्ष पद के सवाल पर भी जब बोस ने इस्तीफा दे दिया… उन्होंने कहा कि अगर मुझे भारत के सबसे महान व्यक्ति- जो वे गांधी को मानते थे- का भरोसा नहीं मिला… मैं अध्यक्ष नहीं रहूंगा.’

बोस, जिन्हें 1938 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया था, ने 1939 में अपने पद से इस्तीफा दे दिया था.

गांधी के ‘भ्रमित’ आलोचकों और यह दावा करने वालों कि हिंसा से भारत को आज़ादी मिली के बारे में गुहा ने कहा, ‘यह जानना महत्वपूर्ण है कि एशिया और अफ्रीका का हर देश जिसने हिंसा के माध्यम से स्वतंत्रता हासिल की, वहां आज ‘तानाशाही’ है.’

उन्होने कहा, ‘मुझे लगता है कि बोस एक महान देशभक्त हैं, लेकिन यह विचार कि वह कुछ मायनों में गांधी से बड़े थे, गांधी के विकल्प थे… मुझे लगता है कि इसके लिए पहले बोस ने गांधी के बारे में जो कहा, उसे पढ़ना चाहिए.’

कश्मीर मसले पर गुहा ने कहा कि विपक्ष की ‘क्षुद्र दलगत राजनीति’ के कारण भारत इसके समाधान के करीब आने के दो ‘असाधारण अवसरों’ से चूक गया- एक अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकल में और दूसरा मनमोहन सिंह के. उन्होंने जोड़ा कि परिपक्व लोकतंत्र में महत्वपूर्ण विदेश नीति के मामले में दो दलों को साथ आ जाना चाहिए, लेकिन 2003 में वाजपेयी सरकार के दौरान और 2007 में जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, विपक्ष के रूप में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही ऐसा करने में विफल रहे.

BY द वायर स्टाफ ON 02/02/2023

नेहरू: वो प्रधानमंत्री, जिन्होंने वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित भारत का सपना देखा

BY श्रीरंजन आवटे ON 14/11/2022

नेहरू विज्ञान और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में स्थापित अनेक संस्थाओं को ‘आधुनिक भारत के मंदिर’ कहा करते थे. वे मूलत: धार्मिक न होने के बावजूद अक्सर धार्मिक परिभाषाओं का उपयोग कर आधुनिकता का पथ प्रशस्त करते थे, इसीलिए नेहरू ने ‘मंदिर’ इन्हीं को बनाया था.

‘विदेशी वर्चस्व से दबे हुए अन्य देशों की तरह भारत में भी राष्ट्रवाद मूलभूत और केंद्रीय विचारधारा बन चुका है. इसे स्वाभाविक माना जा चुका है. हालांकि आर्थिक मामलों में अनेक परिवर्तन हो रहे हैं और एक नई दुनिया आकार ले रही है. दुनिया भर में समाजवादी विचारों का प्रभाव बढ़ रहा है. बुद्धिजीवियों में यह धारणा बलवती हो रही है कि भारत और अन्य देशों के लिए ‘वैज्ञानिक समाजवाद’ ही उचित रास्ता है. इसी अवधारणा के अंतर्गत कांग्रेस में समाजवादी गुट का विकास हुआ. राष्ट्रवाद और समाजवाद के व्यावहारिक योग का प्रतिनिधित्व यही समाजवादी गुट करता है.’

बॉम्बे क्रॉनिकल के 19 नवंबर 1935 के अंक में नेहरू के एक वक्तव्य से यह उद्धरण लिया गया था. नेहरू आगे कहते हैं कि, आज भले ही राष्ट्रवाद बहुत ज़रूरी लगता हो, मगर किसी भी देश की आर्थिक समस्याओं का हल वह नहीं हो सकता! देश के सामने कृषि का सवाल मुंह बाए खड़ा है, जिसको हल करने का कोई उपाय राष्ट्रवाद के पास नहीं है. इसके विपरीत समाजवाद इस तरह के मूलभूत सवालों को हल करने की कोशिश कर रहा है. इसीलिए सहकारिता के तत्वों तथा सामूहिक भागीदारी पर आधारित खेती कैसे की जा सकती है, नेहरू इस विषय पर विचार-विमर्श कर रहे थे.

अपने इस तरह के वक्तव्यों में नेहरू बार-बार विज्ञान की निर्णायक भूमिका की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं. 19 जुलाई 1933 को इंदिरा को लिखे एक पत्र में नेहरू ने लिखा था:

‘इतिहास के पन्नों पर जब हम नज़र दौड़ाते हैं तो हमें दिखाई देता है कि जन सामान्य का जीवन अत्यंत दयनीय, दुख-दर्दभरा रहा है. अनेक सालों से उनके कंधों पर लादा गया अन्याय का जुआ पिछले कुछ दिनों से विज्ञान के कारण धीरे-धीरे हल्का होने लगा है.’

अपनी इस भूमिका के कारण ही नेहरू कांग्रेस के समाजवादी गुट के प्रतिनिधि थे. वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित समाजवाद उन्हें प्रिय था. मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य में समाजवादी हल खोजने पर वे ज़ोर देते थे. अगस्त 1936 में ‘ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन’ नामक छात्र संगठन की कॉन्फ्रेंस का उद्घाटन नेहरू ने किया था. इस संगठन ने ‘वैज्ञानिक समाजवाद’ को अपनी विचारधारा घोषित किया था.

नेहरू युवा पीढ़ी से संवाद कायम करते हुए समाजवाद की यह नई परिभाषा प्रस्तुत कर रहे थे इसीलिए उनके द्वारा प्रस्तुत की जा रही विवेक पर आधारित इस विज्ञानवादी समाजवादी भूमिका से भगत सिंह जैसे कम्युनिस्ट क्रांतिकारी भी प्रभावित हुए.

जापान पर किए गए परमाणु बम हमले से दुनिया भय और आतंक से ग्रस्त हो गई थी. वह विज्ञान की भूमिका के प्रति आशंका से घिर गई थी तब भी नेहरू पूरे आत्मविश्वास और आशाभरी निगाहों से विज्ञान की ओर ताक रहे थे.

आज़ादी मिलने से पहले ही 1946 में नेहरू आइज़ेनहावर के साथ मिलकर अणु ऊर्जा आयोग की स्थापना की चर्चा कर रहे थे. अंतरिक्ष की खोजों के लिए आरंभिक बैठकों में हिस्सा ले रहे थे. होमी भाभा, मेघनाथ साहा, शांति स्वरूप भटनागर, विक्रम साराभाई, पीसी महालनोबिस की मजबूत टीम उनके साथ थी. इसी टीम के कारण काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (CSIR) जैसी संस्था का उदय हुआ.

कांग्रेस की राष्ट्रीय योजना समिति के अंतर्गत निरंतर विचार-विमर्श के उपरांत तथा मेघनाथ साहा के साथ अन्य विशेषज्ञों ने मिलकर 1935 में ‘साइंस एंड कल्चर’ नामक नियतकालिक पत्रिका की शुरुआत के साथ इस संस्था की नींव रखी. इस संस्था के माध्यम से नेहरू ने 1948 से 1958 तक दस सालों में 22 राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं की नींव डाली.

1945 में स्थापित की गई टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) को तो नेहरू हमेशा ही प्रोत्साहन देते रहे. आज़ादी मिलते ही तीन साल बाद नलिनी रंजन सरकार की अध्यक्षता में 22 सदस्यीय समिति बनी, जिसकी कोशिशों से 1950 में इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (IIT) जैसा प्रतिष्ठित संस्थान पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में आरंभ हुआ.

इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस (IISc) की स्थापना हो या इंडियन स्पेस एंड रिसर्च ऑर्गनाइज़ेशन (ISRO) की नींव डालनी हो, नेहरू ने देश के विकास के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण का झंडा हमेशा बुलंद रखा. इस तरह का विकास होना इसलिए आश्चर्यजनक नहीं था क्योंकि विज्ञान एवं तकनीकी विभाग प्रधानमंत्री के नियंत्रण में था. इंडियन साइंस कांग्रेस के पहले अध्यक्ष नेहरू थे, जो स्वयं वैज्ञानिक नहीं थे.

भाखड़ा नांगल परियोजना हो या भारत हेवी इलेक्ट्रिकल (BHEL) जैसी कंपनियां या फिर विज्ञान और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में स्थापित अनेक संस्थाएं, नेहरू इन्हें ‘आधुनिक भारत के मंदिर’ कहा करते थे. नेहरू मूलत: धार्मिक न होने के बावजूद अक्सर धार्मिक परिभाषाओं का उपयोग कर आधुनिकता का पथ प्रशस्त करते थे. इसीलिए नेहरू ने ‘मंदिर’ इन्हीं को बनाया था!

धर्म सिर्फ आध्यात्मिकता से संबंधित है और विज्ञान महज़ भौतिकता से संबंधित – इस तरह की द्वंद्वात्मक दृष्टि से उन्होंने धर्म-विज्ञान-संबंध को कभी नहीं देखा. उन्होंने विज्ञान की भूमिका हमेशा व्यापक सर्वजन हिताय की ही मानी. पारलौकिकता की बातें करने की बजाय उनका विश्वास था कि जीवन की मूलभूत समस्याओं को विज्ञान के माध्यम से ही सुलझाया जा सकता है.

जिस देश में निरक्षरता, भुखमरी, बेरोजगारी, विषमता बड़े पैमाने पर हो, उस देश में अंतरिक्ष संबंधी संशोधन के प्रयास करने की बात पर दुनिया हंसी उड़ा रही थी. मगर नेहरू के मन में ज़मीनी सवालों के लिए अंतरिक्ष की उड़ान में छिपे विज्ञान के जवाब थे.

नेहरू के इन प्रयत्नों के दौरान एक ओर देश बंगाल के भीषण अकाल से रूबरू हो रहा था, विभाजन के गहरे ज़ख़्मों को झेल रहा था तो दूसरी ओर नेहरू विज्ञान और समाजवाद के तालमेल से आधुनिक दुनिया में प्रवेश की अंतर्दृष्टि प्रदान कर रहे थे. वे विज्ञान को वेदना का शमन करने वाले बाम जैसा मानते थे इसीलिए वे विज्ञान को इकहरी दृष्टि से न देखते हुए एकात्म और अंतरअनुशासनिक दृष्टि से देखते थे.

नेहरू का विचार था कि विज्ञान महज़ विकास या प्रगति का साधन नहीं है तथा समाजवाद भी सिर्फ एक आर्थिक प्रारूप नहीं है; बल्कि विज्ञान आशा और सपनों का संप्रेरक होता है तथा समाजवाद समूची मानव जाति के अभ्युदय का पथ प्रशस्त करने वाला उत्प्रेरक है. विज्ञान सिर्फ रसायनों का खेल नहीं या गति-नियमों की फेहरिस्त मात्र नहीं. विज्ञान खुले दिल-दिमाग से सोचने की खिड़की है. दुनिया में कोई अंतिम सत्य नहीं होता, इस बात का नम्रता से स्वीकार कर विज्ञान सत्य की निरंतर खोज करता रहता है.

विज्ञान की ओर साधनात्मक दृष्टि से देखने की बजाय उसका मानवतावादी और मुक्तिदायी विचार नेहरू ने प्रस्तुत किया. अंधश्रद्धा, रूढ़ि-परंपराओं के दलदल से बाहर निकलने की विवेकनिष्ठ दिशा वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने से ही हासिल हो सकती है, नेहरू का मानना था.

पश्चिमी दुनिया विज्ञान को सिर्फ आर्थिक समृद्धि और पूंजीवादी विकास के साधन के रूप में देखती थी मगर नेहरू अपनी समाजवादी मानवतावादी दृष्टि के कारण विज्ञान को सबकी खुशहाली के रास्ते के रूप में देखते थे. नेहरू के इस नीतिगत दृष्टि का औपनिवेशिक बंधनों से नव-स्वतंत्र हुए देशों के नेताओं पर गहरा प्रभाव पड़ा. वैज्ञानिक समाजवाद का ‘नेहरू पैटर्न’ अन्य नेताओं के लिए उदाहरण साबित हुआ.

इंडियन साइंस कांग्रेस के 1938 में आयोजित अधिवेशन में नेहरू ने कहा था, ‘ज्ञान कोई सुखदायी विषयांतर नहीं है; न ही अमूर्तीकरण की व्यवस्था ही है, बल्कि विज्ञान समूची जीवन शैली की बुनावट (texture) है. राजनीति के कारण ही मुझे अर्थशास्त्र की ओर दृष्टिपात करना पड़ा और अर्थशास्त्र के कारण विज्ञान की ओर. वैज्ञानिक दृष्टिकोण के कारण सभी समस्याओं की जड़ में और अंतत: जीवन की ओर मैंने देखा.’

नेहरू आग्रह के साथ प्रतिपादित करते थे कि जीने का सम्यक और समग्र विश्लेषण खुले दिल से करने के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण का लेंस हमारे पास होना ही चाहिए.

हाल ही में बीबीसी ने नेहरू की टीवी पर आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस का वीडियो जारी किया है. इस बात का उल्लेख ज़रूरी है कि नेहरू विदेश में भी प्रेस कॉन्फ्रेंस लिया करते थे; हालांकि उस ज़माने में टेलीप्रॉम्प्टर नहीं हुआ करते थे. एक पत्रकार ने उनसे सवाल किया था, ‘अनेक वर्षों तक ब्रिटिशों द्वारा राज किए जाने के बावजूद आपने ‘कॉमनवेल्थ’ में शामिल होने का निर्णय लिया. क्या भारतीय लोगों के मन में ब्रिटिशों के प्रति कटुता या नाराज़गी नहीं है? इस क्षमाशीलता का क्या कारण है?’

नेहरू ने जवाब में कहा था, ‘पहली बात, हम भारतीय लोग किसी के प्रति हद दर्ज़े का विद्वेष नहीं पालते और दूसरी बात, हमारे पास गांधी थे.’

दिल-दिमाग का यह खुलापन वैज्ञानिक दृष्टि से ही आता है. इसी दृष्टि की खिड़की से यह नज़ारा देखना संभव है. द्वेष जीने की एक शैली नहीं हो सकती, मगर प्रेम जीने का धर्म हो सकता है. इस सोच का प्रधानमंत्री वैज्ञानिक दृष्टिकोण, समता पर आधारित भारत का सपना देख रहा था और जनमानस में भी उसी स्वप्न को पिरो रहा था.

यही कारण है कि इस देश ने मनोहारी स्वप्नलोक की अभिलाषा की और इस विज्ञानाधारित आधुनिकता के मंदिर ने अनशन, गरीबी, अशिक्षा, अंधश्रद्धा, रूढ़िवादी परंपराओं से बाहर निकलने का विशाल प्रवेशद्वार खोला.

(लेखक सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं और मराठी के कवि व उपन्यासकार हैं.)

(लोकसत्ता में प्रकाशित मूल मराठी लेख से उषा वैरागकर आठले द्वारा अनूदित)

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