
हिंदुस्तान की कहानी – हिंदुस्तान की कहानी’ पंडित जवाहरलाल नेहरू की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय कृतियों में से है। यह पुस्तक विश्वविख्यात ‘दि डिस्कवरी ऑव इंडिया’ का अनुवाद है। हम उनकी पुस्तक हिन्दुस्तान की कहानी को धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है धारावाहिक में छोटे आलेख पाठकों को पसंद आयेंगे और वे इस तरह नेहरू के हिन्दुस्तान को पूरा पढ़ पायेंगे। हमें आपकी प्रतिक्रिया और सुझावों का इंतजार रहेगा ताकि हम और बेहतर कर सकें। आज पुस्तक का चैप्टर :४ हिंदुस्तान की खोज भाग १५ : क़दीम हिंदुस्तान में जिंदगी और कारवार
विद्वानों और फ़िलसूफ़ों ने क़दीम हिंदुस्तान के फ़िलसफ़े और अध्यात्म के विकास को जांचने के लिए बहुत कुछ किया है; तारीखी घटनाओं का काल-क्रम निश्चित करने के लिए भो बहुत कुछ किया गया है। लेकिन उन बढ़तों के सामाजिक और आर्थिक हालात को मालूम करने के लिए अभी ज्यादा काम नहीं हुआ है-यह कि किस तरह लोग रहते-सहते थे और अपना धंधा करते थे, क्या चीजें और किस तरह पैदा करते थे और व्यापार किस ढंग से होता था। इन बहुत अहम मसलों पर अब ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है और हिंदुस्तानी विद्वानों के लिखे हुए कुछ ग्रंथ निकले हैं और एक अमरीकी की लिखी हुई एक पुस्तक प्रकाशित हुई है। महाभारत खुद समाज-शास्त्र-संबंधी और और सूचनाओं का भंडार है और यक़ीनी तौर पर दूसरी बहुत-सी पुस्तकों से हमें जानकारी हासिल हो सकती है। लेकिन उनकी इस नुक्ते-नजर से ग़ौर के साथ जांच-पड़ताल करना जरूरी है। एक किताब, जिसकी इस खयाल से बहुत ज्यादा क़ीमत है, कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ है, जो ईसा से पहले चौथी सदी में लिखा गया था और जिसमें राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक बातों और मोचों के फ़ौजी संगठन के बारे में बहुत-सी तफ़सीली जानकारी मिलती है।
इससे भी पहले का एक बयान, जो हमें बुद्ध से भी पहले के जमाने-तक पहुंचाता है, हमें जातक कथाओं में मिलता है। इन जातक कथायों कर मौजूदा रूप बुद्ध के समय से वाद का है। इनमें बुद्ध के पहले के जन्मों का हाल लिखा हुआ खयाल किया जाता है और ये बीद्ध साहित्य का महत्त्वपूर्ण अंग बन गई हैं। लेकिन जाहिरा तौर पर ये कहानियां और भी पुरानी हैं और इनमें बौद्ध-काल से पहले का जिक्र है। इनसे हमें उस जमाने के हिंदुस्तान की जिदगी के बारे में बहुत-सी सूचना मिलती है। प्रोफेसर रीज डेविड्स ने इन्हें लोक-कथाओं का सबसे पुराना, सब से मुक़म्मिल और सबसे महत्त्व का संग्रह बताया है। बाद के अनेक संग्रह, जिनमें जानवरों को और-और कहानियां इकट्ठा की गई हैं, जो हिंदुस्तान में लिखे गए और बाद में पच्छिमी एशिया और यूरोप में फैले, इन्हीं जातकों से निकले सिद्ध किये जा सकते हैं।
जातकों में उस जमाने का जिक्र है, जबकि हिंदुस्तान की दो खास जातियों का, यानी द्रविड़ों और आर्यों का, आखिरी मेल-मिलाप हो रहा था। उनसे एक “विविध और अस्त-व्यस्त समाज का पता लगता है, जिसके वर्गीकरण की सभी कोशिशें बेसूद होंगी और जिसके बारे में उस जमाने की वर्ण-व्यवस्था के अनुसार संगठन की कोई बात ही नहीं हो सकती।”*(* रिचर्ड फ़िक : ‘दि सोशल आर्गनाइजेशन इन नार्थ-ईस्ट इंडिया इन बुद्धाच टाइम’ (‘बुद्ध के जमाने में पूर्वोत्तर हिंदुस्तान का सामाजिक संगठन’) (कलकत्ता, १९२०), पृष्ठ २८६१ एक और हाल की पुस्तक, जो खासकर जातक कथाओं के आधार पर लिखी गई है, रतिलाल मेहता की ‘प्रि-बुद्धिस्ट इंडिया’ (पूर्व-बौद्धकालीन भारत) (बंबई, १९३९) है। अपनी ज्यादातर सामग्री के लिए में इस दूसरी पुस्तक का आभारी हूं।)
यह कहा जा सकता है कि जातकों में हमें ब्राह्मणों और क्षत्रियों की परंपरा के विरोध मे जन-साधारण की परंपरा मिलती है।जुदा-जुदा राज्यों और शासकों के काल-क्रम और वंशावलियां हमें मिलती हैं। शुरू में राजा चुना जाता था; बाद में राजा वंशगत होने लगे और सबसे जेठा लड़का राज्य का अधिकारी होता। औरतें उत्तराधिकार से अलग रखी गई हैं, लेकिन इस नियम के अपवाद भी मिलते हैं। जैसाकि चीन में रहा है, शासक सभी दुर्भाग्यों के जिम्मेदार ठहराये जाते थे।
अगर कोई बात बिगड़ती है, तो इलजाम राजा पर आता है। मंत्रियों की समितियां हुआ करती थीं और एक तरह की राज्य-परिषद के भी हवाले मिलते हैं। फिर भी राजा खुदमुख्तार हुआ करता था, हालांकि उसे कुछ कायमशुदा मुआहदों के बगूजिब चलना पड़ता था। दरबार में पुरोहित का पद बड़ा ऊंचा माना जाता था; वह सलाहकार भी होता था और घार्मिक रस्मों को अदा करनेवाला भी। जालिम और अन्यायी राजाओं के खिलाफ़ जनता के विद्रोह के भी हवाले मिलते हैं, और ऐसे राजाओं को उनके अपराधों के लिए जानें तक गंवानी पड़ी हैं।
गांव की पंचायतों को एक हद तक खुदमुख्तारी हासिल थी। जमीन के लगान से खास आमदनी थी। यह खयाल किया जाता था कि जमीन पर लगाया गया कर राजा के हिस्से का है; आमतौर पर यह गल्ले या उपज की शक्ल में अदा किया जाता था; लेकिन हमेशा ऐसा न होता था। यह खास-कर किसानों की तहजीब थी और इसकी बुनियादी इकाई यही खुदमुख्तार गांव हुआ करते थे। इन्हीं गांवों की जनता के आधार पर राजनैतिक और आर्थिक संगठन होता था; दस-दस और सौ-सौ गांवों के गिरोह बना दिए जाते थे। बागवानी, पशु-पालन और ग्वालों का धंधा बहुत बड़े पैमाने पर होता था। बाग़ और उद्यान बहुतायत से थे और फूलों और फलों की क़द्र की जाती थी। जिन फूलों का जिक्र है, उनकी एक लंबी फेहरिस्त तैयार होगी; जो फल पसंद किये जाते थे, वे आम, अंजीर, अंगूर, केला और खजूरे हैं। जाहिरा तौर पर तरकारी और फल बेचनेवालों की और मालियों को शहरों में बहुत-सी दूकानें हुआ करती थीं। आज की तरह उस जमाने में भी फूल-मालाओं की बड़ी क़द्र थी।
शिकार एक बाक़ायदा धंधा था, खासतौर से इसलिए कि उसके ज़रिये खाना हासिल होता था। मांसाहार साधारण-सी बात थी, और इसमें मुर्गे और मछलियां शामिल थीं; हिरन के गोश्त की बड़ी क़द्र होती थी। मछुओं का अलग बंवा था और क़साई-खाने भी थे। लेकिन खाने की खास चोजें चावल, गेहूं, बाजरा और मक्का थीं। ईख से शक्कर बनाई जाती थी। आज की तरह उस जमाने में भी दूध और उससे बनी दूसरी चीज़ों की बड़ी क़द्र थी। शराब की दुकाने भी थीं और शराब, जान पड़ता है, चावल, फल और ईख से तैयार की जाती थी ।
घातुओं और क़ीमती पत्थरों की खानें थीं। जिन धातुओं का जिक्र आया है, वे हैं सोना, चांदी, तांबा, लोहा, सीसा, टिन, पीतल। क़ीमती पत्थरों में हीरा, लाल, मूंगा हैं, मोतियों का भी जिक्र है। सोने, चांदी और तांबे के सिक्कों के हवाले मिलते हैं। व्यापार के लिए साझे हुआ करते थे और सूद पर कर्ज दिया जाता था ।
तैयार किये गए माल में रेशम, ऊन, और रुई के कपड़े, लोइयां, कंबल और कालीन थे। कताई, बुनाई, रंगाई के धंधे खूब फैले हुए और नफ़े के धंधे थे। धातु-उद्योग लड़ाई के हथियार तैयार करता था। इमारत के घंबे में पत्थर, लकड़ी और ईंटें काम में आती थीं। बढ़ई लोग तरह-तरह के सामान तैयार करते थे, जैसे गाड़ियां, रथ, पलंग, कुरसियां, बेंचें, पेटियां खिलौने वगैरह। बेंत का काम करनेवाले चटाई, टोकरियां, पंखे और छाते तैयार करते थे। कुम्हार हर एक गांव में होते थे। फूत्रों और चंदन की लकड़ो से कई तरह को सुगंधियां, तेल और सिंगार को चाजें तैयार को जाती थी, इसमें चंदन की बुकनी भी होती थी। कई तरह को दवाइयां और आसव तैयार होते थे और कभी-कभी मरे हुए आदनी के शरीर को मसाला लगा-कर सुरक्षित भी रखा जाता था ।
बहुत तरह के कारीगरों और दस्तकारों के अलावा, जिनको चर्चा हुई है, कई और पेशेवरों के हवाले मिलते हैं। वे हैं- अध्यापक, वैद्य, जर्राह, व्यापारी, दूकानदार, गवैये, ज्योतिषी, कुंजड़े, मांड़, बाजीगर, नट, कठपुतली का तमाशा करनेवाले और फेरी करनेवाले।
घरों में गुलामों का होना काफ़ी मामूली बात थी, लेकिन खेतों के काम और दूसरे कामों के लिए मजदूर लगाये जाते थे ने। । उस वक्त भो थोड़े-से अछूत थे- ये चांडाल कहलाते थे और इनका खास काम था मुर्दों को फेंकना या जलाना ।
व्यापारियों की जमातों और कारीगरों के धंधों का महत्त्व माना जा चुका था। फ़िक का कहना है- “व्यापारी समाएं, जो कुछ तो आर्थिक वजहों से बनी थीं, कुछ पूंजो के अच्छे ढंग से इस्तेमाल और मिलने-जुलने की सहूलियतों की वजह से, और कुछ अपने वर्ग के क़ानूनो हितों की हिफाजत के लिए, हिदुस्तानी संस्कृति के शुरू के जमाने में बन चुको थीं।” जातकों में लिखा है कि कारीगरों के १८ संथ थे, लेकिन उनमें सिर्फ चार नाम-से बताये गए हैं, यानी बड्ड्यों और मेमारों के, सुनारों के, चमड़े का काम करनेवालों के और रंगसाजों के।
महाकाव्यों में भी व्यापारी और कारीगरों के संगठनों के हवाले हैं। महामारत में लिखा है- ‘संघों की रक्षा एकता से है।” कहा जाता है कि व्यापारियों के संघों का ऐसा जोर था कि राजा भी इनके खिलाफ़ कोई कानून नहीं बना सकता था। पुरोहितों के बाद इन संघों के मुखियों को बताया गया है, जिनका राजा को खास ध्यान रखना चाहिए ।’ व्यापारियों का मुखिया श्रेष्ठी (आजकल का सेठ) बहुत काफ़ी महत्त्व रखता था।
* ‘केंब्रिज हिस्ट्री ऑव इंडिया’, जिल्द १, पृष्ठ २६९ । प्रो० वःशबर्न हाप्किन्स का लेख ।
जातकों के बयान से एक कुछ गैर-मामूली विकास का पता लगता है। वह है, खास-खास धंधा करनेवालों के अलग गांव या बस्तियां। जैसे एक बढ़इयों का गांव था, जिसमें कहा जाता है कि एक हजार घर थे। एक सुनारों का गांव था, और उसी तरह और भी थे। इस तरह के खास पेशेवरों के गांव आमतौर पर शहरों के करीब होते थे, जहां उनकी बनाई चीजों की खपत होती थी और जहां उन्हें अपनी जरूरत की और चीजें हासिल हो जाती थीं। जान पड़ता है कि सारा गांव सहकारिता के उसूलों पर काम करता था और बड़े-बड़े ठेके लिया करता था। शायद इस अलहदा संगठन और रहने की वजह से जातों का विकास हुआ और वे फैली। ब्राह्मणों और कुलीनों की मिसालें रफ़्ता-रफ़्ता व्यापारियों के संघों और कारीगरों की सभाओं ने अपनाई ।
बड़ी-बडी सड़कें, जिनके किनारे यात्रियों के आराम के लिए घर बने थे, और कहीं-कहीं अस्पताल भी, सारे उत्तरी हिंदुस्तान में फैली हुई थी और दूर-दूर जगहों को मिलाती थीं। ईसा से पहले की पांचवीं सदी में मिस्त्र में मेंफ़ोस नाम की जगह पर हिंदुस्तानी व्यापारियों की एक बस्ती थी, जैसाकि वहां पाई गई हिंदुस्तानियों के सिरों की मूत्तियों से पता चलता है। शायद हिंदुस्तान और दक्खिन-पूरवी एशिया के टापुओं के बीच भी व्यापार हुआ करता था। समुद्र-पार के व्यापार के लिए जहाजों की जरूरत थी और यह जाहिर है कि हिंदुस्तान में देश के भीतर नदियों पर चलने के लिए, बल्कि समुंदर पर भी चलनेवाले जहाज बनते थे। महाकाव्यों में दूर से आने-वाले सौदागरों से जहाज की चुंगी लिये जाने के हवाले हैं।
जातकों में सौदागरों की समुद्र-यात्राओं के हवाले मरे पड़े हैं। खुश्की के रास्ते से, रेगिस्तानों को पार करके, भड़ोंच के पच्छिमी बंदरगाह तक और उत्तर में गंधार और मध्य-एशिया तक कारवां जाया करते थे। भडोंच से जहाज बेविलन (बावेरू) के लिए फारस की खाड़ी को जाया करते थे। नदियों के रास्ते बड़ी आमद-रपत हुआ करती थी और जातकों के अनुसार बेड़े बनारस, पटना, चंपा (भागलपुर) और दूसरी जगहों से समुंदर को जाया करते थे और वहां से दक्खिनी बंदरगाहों और लंका और मलय टापू तक। पुराने तमिळ काव्यों में कावेरीपट्टिनम् नाम के बंदरगाह का हाल मिलता है, जो दक्खिन में कावेरी नदी के किनारे पर था और जो अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का केंद्र था। ये जहाज काफी बड़े होते होंगे, क्योंकि जातकों में बताया गया है कि एक जहाज पर सैकड़ों व्यापारी और यात्री सवार हुए।
‘मिलिंद’ में (यह ईसा से बाद की पहली सदी की रचना है। मिलिंद उत्तरी हिंदुस्तान का यूनानी-वारूत्री राजा था, जो कट्टर बौद्ध बन गया बा) यह लिखा है- “जिस तरह एक जहाज का मालिक, जिसने किसी समुद्री बंदरगाह के शहर में माल के भाड़े से खूद घन कमा लिया है, समुद्र-यात्रा करके बंग (बंगाल), या तक्कील, या चोन, या सोविर, या इस्कंदरिया या कारीमंडल तट पर, या हिंदुस्तान से पूर्व, या किसी ऐसी जगह, जहां जहाज इकट्ठा होते हैं, जा सकता है।””
“हिंदुस्तान से बाहर जानेवाले माल में रेशम के कपड़े, मलमल और महीन कपड़े, छरियां, जिरह-बस्तर, कमखाव, जरदोजी के काम, लोइयां, इत्र-फुलेल, दवाइयां, हाथी-दांत और हाथी-दांत की बनी चीजें, जेवर और सोना (चाँदी बहुत कम) – ये खास चोजें होती थीं, जिन्हें व्यापारी भेजा करते थे।
हिंदुस्तान, बल्कि उत्तरी हिंदुस्तान, अपने लड़ाई के हथियारों के लिए मशहूर था, खासतौर पर अपने लोहे को उम्दगों के लिए और तलवारों और कटारों के लिए। ईसा से पहले की पांचवीं सदी में हिंदुस्तानी सिपाहियों को एक बड़ौ टुकड़ी, पैदल और घुड़सवार दोनों की, ईरानी फ्रीज के साथ यूनान गई थी। जब सिकन्दर ने ईरान पर हमला किया, तो (यह फ़िरदोसी के प्रसिद्ध महाकाव्य ‘शाहनामा’ में लिखा है) हिंदुस्तान से ईरानियों ने जल्दी-जल्दी से तलवारें और हथियार मंगाये। तलवार के लिए पुराना (इस्लाम से पहले का) अरबी लफ़्ज है ‘मुहन्नद’, जिसके मानी हैं “हिंद से आया हुआ” या हिंदुस्तानी। यह लफ़्ज़ आजकल भी आमतौर पर इस्तेमाल किया जाता है।
कदीम हिंदुस्तान में जान पड़ता है कि लोहे के तैयार करने में बड़ी तरक़्क़ी हो गई थी। दिल्ली के पास एक बहुत बड़ा लोहे का खंभा है, जिसने आजकल के वैज्ञानिकों को दंग कर दिया है और वे नहीं पता लगा सके हैं कि यह किस तरह बना होगा, क्योंकि इस पर न जंग लग सका है ओर न दूसरी मौसमी तवदोलियों का असर पहुंचा है। इस पर जो लेख खुदा हुआ है, बह गुप्त जमाने की लिपि में है, जो ईसा से बाद की चौथी सदी में प्रचलित थो। लेकिन कुछ विद्वानों का यह कहना है कि यह खंभा खुद इस लेख से पहले का है और यह लेख बाद में जोड़ा गया है।
* मिसेज सी० ए० एक० रोज डेविड्स ने ‘केंब्रिज हिस्ट्री ऑव इंडिया’ (जिल्व १), पृष्ठ २१२ में उद्धृत किया है। * रोज डेविड्स : ‘बुद्धिस्ट इंडिया’, पृष्ठ ९८।
इस भाग का शेष आगे जारी…..