महादेवी वर्मा और नेहरू

महादेवी वर्मा द्वारा लिखे गए रेखाचित्र और संस्मरण भारतीय साहित्य की धरोहर हैं। उनका एक ऐसा ही संस्मरण है जवाहरलाल नेहरू के बारे में, शीर्षक है : ‘जवाहर भाई’। नेहरू से अपनी पहली मुलाक़ात के बारे में महादेवी लिखती हैं कि तब वे इलाहाबाद के क्रास्थवेट गर्ल्स कॉलेज में सातवीं कक्षा की छात्रा थीं। एक दिन उन्हें आचार्या कुमारी तुलासकर के साथ आनंद भवन जाने का मौका मिला और वे स्कूली ड्रेस में ही बस्ता लिए अपनी शिक्षिका के साथ आनंद भवन के लिए चल पड़ीं। नेहरू से इस पहली मुलाक़ात में
अपने मन में पड़ी गहरी छाप के विषय में महादेवी लिखती हैं कि ‘उनकी दृष्टि में एक स्वप्निल विशेषता थी। सामने खड़े व्यक्ति को ऐसालगता था मानों वे आँखें उसके पार कुछ देख रही हैं।’

अपनी शिक्षिका के साथ आनंद भवन से जब वे लौटने लगीं तो अपना बस्ता भूलकर बाहर आ गईं। नेहरू महादेवी का बस्ता बाहर ले कर आए और उनसे पूछा कि ‘यह किताबें तुम्हारी हैं?’ जब महादेवी ने स्वीकृति में सिर हिलाया तो नेहरू ने डांटते हुए कहा – ‘क्या वाहियात बात है! किताबें फेंकती घूमती हो। पढ़ती क्या खाक होगी?’महादेवी लिखती हैं कि ‘क्या वाहियात बात है’ वाली डांट उन्हें नेहरू से आगे चलकर भी कई दफ़े सुनने को मिली। मोटर दुर्घटना में महादेवी का पैर टूट गया, नेहरू ने कहा ‘क्या वाहियात बात है, तुमने अपना पैर ही तोड़ लिया।’ जब कई महीनों तक महादेवी अस्वस्थ रहीं, तो नेहरू ने कहा ‘क्या वाहियात बात है, तुम अक्सर बीमार हो जाती हो।’ महादेवी लिखती हैं कि नेहरू को तब से उन्होंने सैकड़ों बार देखा, पर ‘किसी भी स्थिति में उनके मानवीय रूप में कोई अंतर नहीं मिला।’

उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू से मुलाक़ात का एक दिलचस्प ब्यौरा दिया है। हुआ यूँ कि महादेवी को लेखकों के कॉपीराइट से जुड़े मुद्दे के संबंध में मौलाना आज़ाद से बात करने के लिए दिल्ली जाना पड़ा। उन्होंने नेहरू से मिलने की भी ठानी, पर महादेवी ने पहले से इस मुलाक़ात के लिए समय निश्चित नहीं किया था। जब वे नेहरू से मिलने तीन मूर्ति पहुंची, तो उनके निजी सचिव ने कहा कि बिना पूर्व निश्चित समय के उनसे मुलाक़ात संभव नहीं, और यह भी कि ‘यहाँ तो लोग 10-10 दिन प्रतीक्षा में पड़े रहते हैं।’ बात महादेवी को चुभ गई, उन्होंने पलटकर जवाब दिया, ‘वह प्रधानमंत्री की व्यस्तता का प्रमाण हो सकता है, परंतु जो 10-10 दिन पड़े रहते हैं, उनके निठल्लेपन का तो निश्चित प्रमाण है। आप जाकर उन्हें सूचना दें कि प्रयाग से महादेवी आई है और उसे आज ही लौट जाना है। वह उनसे मिलने की प्रतीक्षा में जीवन के 10 दिन खोने की स्थिति में नहीं है।’ फिर क्या था जवाहरलाल ख़ुद बाहर आए और महादेवी को अपने साथ अंदर ले गए और उनसे कहा ‘यहाँ बैठो, इलाहाबाद के हालचाल बताओ। तुमसे किसने क्या कह दिया?’
महादेवी लिखती हैं कि ‘इसके बाद मुझे न रूठने की याद रही न उपालंभ देने की। कार्यव्यस्त रहने पर भी दूसरों के विश्वास और सुविधा की चिंता करना वे कदाचित ही कभी भूलते थे।’

एक दिलचस्प घटना खाने की दावत को लेकर भी है, जो शायद मौजूदा समय में और भी प्रासंगिक है। एक बार महादेवी और मैथिलीशरण गुप्त नेहरू से मिलने गए। नेहरू ने दोनों को रात में भोजन का आमंत्रण दिया। जब उन्हें पता चला कि मैथिलीशरण गुप्त की तरह ही महादेवी भी शाकाहारी हैं तो नेहरू ने महादेवी से मज़ाक में कहा ‘क्या तुम अब तक घासपात खाती हो’। मैथिलीशरण जी ने जवाब दिया ‘आप सबने हमारे लिए छोड़ा ही क्या है।’ फिर नेहरू ने शाकाहारी भोजन बनवाने का प्रबंध किया। रात के भोजन में शाकाहारी और मांसाहारी दोनों ही का प्रबंध था। नेहरू ने महादेवी की थाली अपने पास रखवाई और उनसे आत्मीयता से कहा ‘जो तुम नहीं खाती हो, उसे दूसरों को खाते देख नाक-भौं मत चढ़ाना, अच्छा!’ महादेवी इस अनूठे संस्मरण के आखिर में लिखती हैं : ‘आज वे अपनी स्वप्नदृष्टि के साथ तिरोहित हो चुके हैं, उन्होंने अपने स्वप्नदर्शी होने
का मूल्य चुकाया और देश ने एक स्वप्नदर्शी पाने का।’

[संदर्भ : महादेवी साहित्य समग्र, खण्ड-2.]

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