हिंदुस्तान की कहानी- चेप्टर ४: हिंदुस्तान की खोज- १३ : महाभारत

 हिंदुस्तान की कहानी – हिंदुस्तान की कहानी’ पंडित जवाहरलाल नेहरू की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय कृतियों में से है। यह पुस्तक  विश्वविख्यात ‘दि डिस्कवरी ऑव इंडिया’ का अनुवाद है। हम उनकी पुस्तक हिन्दुस्तान की कहानी को धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है धारावाहिक में छोटे आलेख पाठकों को पसंद आयेंगे और वे इस तरह नेहरू के हिन्दुस्तान को पूरा पढ़ पायेंगे। हमें आपकी प्रतिक्रिया और सुझावों का इंतजार रहेगा ताकि हम और बेहतर कर सकें। आज पुस्तक का  चैप्टर :४ हिंदुस्तान की खोज भाग १३ : महाभारत

महाकाव्यों का समय वताना कठिन है। इनमें उस क़दीम जमाने का हाल है, जब कि आर्य हिंदुस्तान में वस रहे थे और अपनी जड़ जमा रहे थे। जाहिरा तौर पर इन्हें बहुत-से लेखकों ने लिखा है या इनमें मुख्तलिफ़ वक़्तों में इजाफा किया है। रामायण ऐसा महाकाव्य है, जिसमें बयान में थोड़ी-बहुत एकता है; महाभारत प्राचीन ज्ञान का एक बड़ा और फुटकर संग्रह है। दोनों ही बौद्ध-काल से पहले बन गए होंगे, अगरचे इसमें शक नहीं कि इनमें बाद में भी हिस्से जोड़े गए हैं।

फ्रान्सोसी इतिहासकार मिशले, १८६४ में, खासतौर पर रामायण के हवाले में लिखते हुए कहते हैं- “जिस किसीने भी बड़े काम किये हैं या बड़ी आकांक्षाएं की हैं, उसे इस गहरे प्याले से जिदगी और जवानी की एक लंबी घूंट पोनी चाहिए… पच्छिम में सभी चीजें संकरी और तंग हैं यूनान एक छोटी जगह है और उसका विचार करके मेरा दम घुटता है; जूडिया खुश्क जगह है और मैं हांफ जाता हूं। मुझे विशाल एशिया और गहन पूर्व की तरफ जरा देर को देखने दो। वहां मिलता है मेरे मन का महाकाव्य-हिंद-महासागर-जैसा विस्तृत, मंगलमय, सूर्य के प्रकाश से चमकता हुआ, जिसमें दैवी संगीत है और जहां कोई बेसुरापन नहीं। वहां एक गहरी शांति का राज्य है, और कश-मकश के बीच भी वहां बेहद मिठास और इंतहा दर्जे का माई-चारा है, जो सभी जिदा चीजों पर छाया हुआ है- मुहब्बत, दया, क्षमा का अपार अथाह समुंदर है।”

महाकाव्य की हैसियत से रामायण एक बहुत बड़ा ग्रंथ जरूर है और उससे लोगों को बहुत चाव है, लेकिन यह महाभारत है, जो दरअसल दुनिया की सबसे खास पुस्तकों में से एक है। यह एक विराट कृति है, परंपरा और कथाओं का और हिंदुस्तान की कदीम राजनैतिक और सामाजिक संस्थाओं का यह एक विश्व-कोश है। दस साल से ज्यादा से बहुत-से अधिकारी हिंदुस्तानी विद्वान मिलकर उन पाठों की जांच-पड़ताल में लगे हुए हैं, जो अबतक हासिल हुए हैं, जिसमें कि एक प्रामाणिक संस्करण छपाया जा सके। कुछ हिस्से उन्होंने छापकर प्रकाशित भी कर दिए हैं, लेकिन काम अब भी अधूरा है और चल रहा है। यह एक दिलचस्प बात है कि इस भयानक और व्यापक युद्ध के दिनों में भी रूस के पूर्वी विद्याओं के जाननेवाले विद्वानों ने महाभारत का रूसी तरजुमा पेश किया है।

शायद यह वह जमाना था, जबकि विदेशी लोग हिंदुस्तान में आ रहे थे और अपने साथ अपने रीति-रिवाजों को ला रहे थे। इनमें से बहुत-से रीति-रिवाज आर्यों के रीति-रिवाजों से मुस्तलिफ़ थे, और इस तरह विरोधी विचारों और रीति-रिवाजों की एक अजीब खिचड़ी हमें देखने में आती है। आर्यों में एक स्त्री के कई पति होने का चलन नहीं था, फिर भी हम पाते हैं कि महाभारत की एक खास पात्री के पांच पति हैं, जो आपस में भाई-भाई हैं। रपता-रपता पहले के आदिम निवासी और नये आनेवाले लोग, दोनों ही आर्यों में घुल-मिलकर एक हो रहे थे और वैदिक-धर्म में भी इसीके मुताबिक़ तबदीली आ रही थी। यह वह व्यापक रूप अख्तियार कर रहा था, जिससे मौजूदा हिंदू-धर्म निकला है। यह मुमकिन इसलिए हो सका कि बुनियादी नजरिया यह जान पड़ता है कि सचाई पर किसी एक का इजारा नहीं हो सकता, और उसे देखने और उस तक पहुंचने के बहुत-से रास्ते हैं। इस तरह सभी तरह के, यहांतक कि विरोधी, विश्वासों को गवारा किया जाता था।

महाभारत में हिंदुस्तान (या जिसे गाथाओं के अनुसार जाति के आदि-पुरुष भरत के नाम पर भारतवर्ष कहा जाता था) की बुनियादो एकता पर जोर देने की बहुत निश्चित कोशिश की गई है। इसका एक और पहले का नाम आर्यावर्त्त या आर्यों का देश था। लेकिन यह मध्य-हिंदुस्तान के बिघ्य पहाड़ तक फैले हुए उत्तरी हिदुस्तान तक महदूद था। शायद उस जमाने तक आर्य इस पहाड़ के सिलसिले के पार नहीं पहुंचे थे। रामायण की कथा  आर्यों के दक्खिन में पैठने का इतिहास है। वह बड़ी खाना-जंगी, जो बाद में हुई और जिसका महाभारत में वयान है, एक गोल-मोल तरीके से क़यास किया जाता है कि ईसा से क़ब्ल चौदहवीं सदी में हुई। यह लड़ाई हिंदु-स्तान (या शायद उत्तरी हिंदुस्तान) पर सबसे ऊंचा अधिकार हासिल करने के लिए हुई थी और इससे सारे हिंदुस्तान के, भारतवर्ष के रूप में, कल्पना किये जाने की शुरुआत होती है। भारतवर्ष की जो यह कल्पना थी, उसमें आजकल के अफ़ानिस्तान का ज्यादा हिस्सा, जिसे उस वक़्त गंधार कहते थे (और जिससे कंदहार शहर का नाम पड़ा है) शामिल था और इस देश का अपना अंग समझा जाता था। सच तो यह है कि मुख्य शासक की स्त्री का नाम गांवारी, या गंवार की लड़की, था। दिल्लो इसी वक्त हिंदुस्तान की राजधानी बनती है- मौजूदा शहर नहीं, बल्कि इसके पास के, इससे मिले हुए पुराने शहर, जो हस्तिनापुर और इंद्रप्रस्थ कहलाते थे।

वहन निवेदिता (मार्गरेट नोबुल) ने महाभारत के बारे में लिखते हुए बताया है- “विदेशी पाठक पर… दो खास बातों का असर पड़ता है। पहली बात तो यह है कि विविधता में यहां एकता मिलती है; दूसरो यह कि सुननेवालों पर एक ऐसे मरक़जो हिंदुस्तान के खयाल को बिठाने की लगातार कोशिश है, जिसकी अपनी वोरता को परंपरा है, जो एकता के साव को जगानेवाली है।””

महाभारत में कृष्ण की कवाएं हैं और भगवद्‌गीता नाम का मशहूर काव्य भो है। गोता के फ़िलसफ़े के अलावा भो इस ग्रंथ में आमतौर पर जिदगी में और रियासती मामलों में नीति और इखलाक़ के उसूलों पर जोर दिया गया है। धर्म की इस बुनियाद के बगैर सच्चा सुख नहीं मिल सकता और न समाज ही क़ायम रह सकता है। समाज की बहबूबूंदी इसका मक़सद है, किसी एक गिरोह की बहबूदी नहीं, बल्कि सारी दुनिया को बहबूदी, क्योंकि “मयों की यह दुनिया एक परस्पर-आश्रित संगठन है।” (‘यह उद्धरण मैंने सर एस० राधाकृष्णन् की पुस्तक ‘इंडियन फ़िल-सफ़ी’ से लिया है। मैं राधाकृष्णन् का, और उद्धरणों के लिए और इस अध्याय और दूसरे अध्यायों की बहुत-सी बातों के लिए, एहसानमंद हूं।)  लेकिन धर्म खुद सापेक्ष है और सचाई, अहिंसा वगैरह बुनियादी उसूलों के अलावा यह वक़्त और परिस्थिति पर निर्भर करता है। ये उसूल हमेशा-हमेशा क़ायम रहते हैं और इनमें तबदीली नहीं आती, मगर इनके अलावा धर्म, जो कर्तव्यों और जिम्मेदारियों का गड्ड-मड्ड है, बदलते हुए जमाने के साथ बदलता रहता है। यहां और-और जगहों पर अहिंसा पर जो जोर दिया गया है, वह दिलचस्प है, क्योंकि इसमें और किसी अच्छे मक़सद के लिए लड़ाई करने में कोई जाहिरा विरोब नहीं माना गया है। सारा महा-काव्य एक बड़े युद्ध की घटनाओं को लेकर रचा गया है। जान पड़ता है कि अहिंसा की कल्पना का संबंध ज्यादातर मक़सद से था, यानी मन में हिसा का भाव न रखना चाहिए, आत्म-संयम करना चाहिए और गुस्से और नफ़रत पर क़ाबू पाना चाहिए; इसका मतलब यह नहीं था कि अगर जरूरी हो और किसी तरह बचत न हो सके, तो भी शरीर से कोई हिंसा का काम न बन पड़ना चाहिए।

महाभारत एक ऐसा बेशक़ीमती भंडार है कि हमें उसमें बहुत तरह की अनमोल चीजें मिल सकती हैं। यह रंग-बिरंगी, घनी और खुदबुदाती हुई जिंदगी से भरपूर है और इस बात में यह हिंदुस्तानी विचारधारा के दूसरे पहलू से बहुत हटकर है, जिसमें तपस्या और जिंदगी से इन्कार पर जोर दिया गया है। यह महज नोति की शिक्षा देनेवालो किताब नहीं है, हालांकि नोति और इखलाक़ की तालीम इसमें काफ़ी मिलेगी। महाभारत की शिक्षा का सार एक जुमले में रख दिया गया है- “दूसरे के लिए तू ऐसी बात न कर, जो तुझे खुद अपने लिए नापसंद हो।” जोर समाज की भलाई पर दिया गया है, और यह बात मार्के की है; क्योंकि खयाल यह किया जाता है कि हिंदुस्तानी दिमाग का रुझान शत्सी कमाल हासिल करने की ओर रहा है न कि समाज की मलाई की तरफ़। इसमें कहा है- “जिससे समाज की भलाई नहीं होती, या जिसे करते हुए तुम्हें शर्म आती है, उसे न करो।”

फिर कहा है- “सचाई- अपने को बस में रखना, तपस्या, उदारता, अहिंसा, धर्म पर डटे रहना- इनसे कामयाबी हासिल होती है, जात और खानदान से नहीं।” “जिंदगी और अमर होने से धर्म बढ़कर है।” “सच्चे आनंद के लिए तकलीफ़ उठाना जरूरी है।” धन कमाने के पीछे पड़े रहने-वाले पर एक व्यंग्य है- “रेशम का कीड़ा अपने धन के कारण मरता है।” और, अंत में, एक जीती-जागती और तरक्की करती हुई जाति के लोगों के उपयुक्त यह आदेश है- “असंतोष तरक़्क़ी के लिए उकसानेवाला है।”

महाभारत में वेदों का बहुदेववाद है, उपनिषदों का अद्वैतवाद है और देववाद, द्वैतवाद और एकेश्वरवाद भी है। फिर भी नजरिया रचनात्मक, कमोबेश बुद्धिवादी है। अलहदगी की भावना अभी तक महदूद है। जात-पांत के मामलों में कट्टरपन नहीं है। अभी भी लोगों में अपने में भरोसा है; लेकिन ज्यों-ज्यों बाहरी ताकतों के हमले होते हैं और पुरानी व्यवस्था पर बार होता है, त्यों-त्यों यह भरोसा कुछ कम होता जाता है और अंदरूनी एकता और शक्ति पैदा करने के लिए ज्यादा समानता की मांग होता है। नये-नये निषेव लागू होते हैं। गो-यांस का खाना, जिसे पहले बुरा न समझा जाता था, बाद में बिलकूल मना कर दिया जाता है। महामारत में मान्य अतिथियों को गो-मांस और बछड़े का मांसपेश करने के हवाले हैं।

जारी…..

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *