हिंदुस्तान की कहानी’ पंडित जवाहरलाल नेहरू की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय कृतियों में से है। यह पुस्तक विश्वविख्यात ‘दि डिस्कवरी ऑव इंडिया’ का अनुवाद है। हम उनकी पुस्तक हिन्दुस्तान की कहानी को धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है धारावाहिक में छोटे आलेख पाठकों को पसंद आयेंगे और वे इस तरह नेहरू के हिन्दुस्तान को पूरा पढ़ पायेंगे। हमें आपकी प्रतिक्रिया और सुझावों का इंतजार रहेगा ताकि हम और बेहतर कर सकें। आज पुस्तक का चैप्टर१ – अहमदनगर का किला का पहला भाग भाग पढ़ें। ( संपादक )
१ : बीस महीने
अहमदनगर का क्रिला: तेरह अप्रैल उन्नीससौ चवालीस
बीस महीने से ज्यादा हो गए कि हम लोग यहां लाये गए। ये बीस महीने से ज्यादा मेरी नवीं कैद की मुद्दत के हैं। हमारे यहां पहुंचने पर अंधियाले आसमान में झिलमिलाते हुए दूज के नये चांद ने हमारा स्वागत किया। बढ़ती हुई चंद्रकला के साथ उजाला पखवारा शुरू हो गया था। तबसे बराबर नये चांद का दर्शन मुझे इस बात की याद दिलाता रहा है कि मेरी क़ैद का एक महीना और बोता। यही बात मेरी पिछली जेल-यात्रा में हुई थी, जो दिवालो के दीपोत्सव से ठीक बादवाले दूज के चांद के साथ शुरू हुई थी। चांद, जो जेल में हमेशा से मेरा संगो रहा है, नजदीकी परिचय के कारण मुझसे और भी हिल-मिल गया है। यह मुझे याद दिलाता है दुनिया के सौंदय की, जिदगी के ज्वार-माटे की और इस बात की कि अंधेरे के बाद उजाला आता है; मृत्यु और पुनर्जीवन, एक-दूसरे के बाद, अनंत क्रम से चलते रहते हैं। सदा बदलते रहते और फिर भी सदा एक-से इस चांद को मैंने अनेक अवस्थाओं में, अनेक कलाओं के साथ देखा है- संध्या के समय, रात के मौन घंटों में, जबकि छाया सघन हो जाती है और उस वक्त, जबकि उषा की मंद समीर और चहक आनेवाले दिन की सूचना लाते हैं। दिन और महीनों के गिनने में चांद कितना मददगार होता है, क्योंकि चांद का रूप और आकार (वह दिखाई पड़ता हो, तो) महीने की तिथि बहुत-कुछ ठीक- ठीक बता देते हैं! वह एक आसान जंत्री है- अगरचे इसे समय-समय पर सुधारते रहने की जरूरत है- और खेत में काम करनेवाले किसान के लिए तो दिनों के जाने और क्रमशः ऋतुओं के बदलने की सूचना देनेवाली सबसे ज्यादा सुमीते की जंत्री है।
बाहरी दुनिया के सभी समाचारों से अलग, हमने यहां तीन हफ्ते बिताये। उससे हमारा किसी तरह का संपर्क नहीं था। मुलाक़ातें बंद थीं, खत और अखबार नहीं मिलते थे, न रेडियो का प्रबंध था। यहां पर हमारी भी एक राजकीय भेद की बात समझी जाती थी, जिसकी जानकारी उन अफसरों के सिवा, जिनके हवाले हम लोग थे, और किसीको न थी। यह एक निकम्मा-सा राज था, क्योंकि सारा हिंदुस्तान जानता था कि हम कहां है। इसके बाद अखबार मिलने लगे, और कुछ हफ़्तों के बाद नजदीकी रिश्तेदारों के खत भी, जो घरेलू बातों के बारे में होते थे। लेकिन इन बीस महीनों में कोई मुलाकातें न हुई और न कोई दूसरे संपर्क ही हो पाए।
अखबारों की खबरें बुरी तरह कटी-छंटी होतीं। फिर भी उनसे हमें युद्ध की रफ्तार का, जो दुनिया के आधे से ज्यादा हिस्से को भस्म कर रहा था, कुछ अंदाजा लग जाता था, और इस बात का कि हिंदुस्तान में अपने लोगों पर कैसी बीत रही है। हां, अपने लोगों के बारे में हम इससे ज्यादा न जान पाते थे कि बीसियों हजार आदमी, बिना जांच या मुक़दमे के, क़ैद में या नजरबंद हैं; हजारों गोली से मार डाले गए; दसियों हजार स्कूलों और कालिजों से निकाल दिये गए; जंगी कानून-जैसी हालत सारे देश में फैल रही है; आतंक और डर सब जगह छाया हुआ है। जो बीसियों हजार लोग बिना तरह की जांच के कैद कर लिये गए थे, उनकी हालत, हमारी हालत के मुकाबले में कहीं बुरी थी, क्योंकि न सिर्फ उनकी मुलाकातें बंद थीं, बल्कि उन्हें खत या अखबार भी नहीं मिलते थे और पढ़ने के लिए किताबें भी बहुत कम मिल पाती थीं। बहुतेरे पुष्टिकर खाना मिलने की वजह से बीमार पड़े; कुछ हमारे प्रियजन सही तीमारदारी और इलाज न हो सकने के कारण मर गए।
हिंदुस्तान में, इस वक़्त, युद्ध के कई हजार कैदी- ज्यादातर इटली के-बस रहे थे। हम उनकी हालत का अपने देशवासियों की हालत से मुक़ाबला करते थे। हमें बताया जाता था कि जिनेवा के शर्तनामे के अनुसार उनके साथ बर्ताव हो रहा है। लेकिन हिंदुस्तानी कैदियों और नजरबंदों के लिए कोई शर्ते या क़ानून-क़ायदा नहीं था, सिवा उन आर्डिनेंसों के, जो मनमाने ढंग से हमारे अंग्रेज हाकिम समय-समय पर जारी करते रहते थे।
२ : अकाल
अकाल पड़ा-भीषण, दहलानेवाला; ऐसा घोर कि बयान से बाहर ! मलाबार में, बीजापुर में, उड़ीसा में, और सबसे बढ़कर बंगाल के हरे-भरे और उपजाऊ सूबे में, आदमी, औरतें, नन्हें बच्चे; हजारों की तादाद में, रोज खाना न मिलने के कारण मरने लगे। कलकत्ते के महलों के सामने लोग मरकर गिर पड़ते। उनकी लाशें बंगाल के अनगिनत गांवों की मिट्टी की झोपड़ियों में और देहातों में सड़कों पर और खेतों में पड़ी थीं। आदमी दुनिया में सभी जगह मर रहे थे और जंग में एक-दूसरे को मार रहे थे। आमतौर से वे मौतें आनन-फानन की मीत होती, अकसर बहादुरी की सौतें होती। किसी मक्रसद, किसी दावे को लेकर मौत होती बीर ऐला जान पड़ता था कि इस पागल दुनिया में ये मौत होनेवाली घटनाली का निष्फूर परिणाम हैं, इनसे अंत है उस जीवन का, जिस पर हमारा बस नहीं, जिस हम ढाल नहीं सकते। मौत सब जगह साधारण-सी बात हो रही थी।
लेकिन यहां, मौत के पीछे न कोई मकसद था, न कोई हेतु, न उसकी कोई जरूरत ही थी। यह आदमी के निकम्मेपन और कठोरता का था। यह इन्सान की पैदा की हुई थी। यह एक धीमी, भयानक, जू की चाल से रंगकर आनेवाली चीज थी और इसमें परिशोष का कोई पहलू न था। बस जिदगी का मौत में मिलना और उसमें समा जाना था। ऐसा था कि मीत धंसी हुई आंखों से और क्षीण कंकालों से जीवन रहते-रहते भांक रही थी। और इसलिए यह ठीक और उचित न समझा जाता था कि इसकी चर्चा की जाय। अप्रिय प्रसंगों के बारे में बातें करना या लिखना नला नहीं समझा जाता था। ऐसा करना एक अभागी परिस्थिति को ‘नाटकीय ढंग से दिखाना’ हो जाता। हिंदुस्तान और इंग्लिस्तान के हाकिमों की तरफ से भूठी खबरें निकलतीं। लेकिन लाशों की ओर से आंखें नहीं मूंदी जा सकती थीं; वे असली हालत उजागर कर रही थीं।
जब नरक की ज्वाला बंगाल के और दूसरी जगहों के लोगों को भस्म कर रही थी, उस वक़्त बड़े अधिकारियों ने हमें यह बताया कि जंग की वजह से हिंदुस्तान का किसान खुशहाल है और उसके यहां खाने की कमी नहीं है। बाद में यह कहा गया कि जो हालत पैदा हुई, प्रांतीय स्वराज का कुसूर है, और हिंदुस्तान की सरकार, या लंदन का इंडिया आफ़िस संवि धान के अनुसार सूबों के मामलों में दखल नहीं दे सकते। दरअसल यह संविधान मौकूफ था, टूट चुका था, ठुकराया जा चुका था, या यों कहिये कि वाइसराय के बिना अंकुश के अधिकार से जारी किये गए नित नये आडिनेंसों के जरिये रहता था। यह संविधान, आखिरकार, एक अकेले वारुस की बेलगाम हुकूमत बन गया था ऐसे शख्स की, जिसे दुनिया के किसी भी तानाशाह से ज्यादा अधिकार हासिल थे। इस संविधान को स्थायी सविस के कर्मचारी, खासतौर पर सिविल सर्विस और पुलिस के लोग चला रहे थे और वे लोग उत्तरदायी थे गवर्नर के प्रति, जो वाइसराय का मुख्तार था, और वह मंत्रियों को जहां कहीं भी वे थे- नजर अंदाज कर सकता था। मंत्री लोग, भले हों या बुरे, मौन अनुमति के कारण अपने पदों पर बने हुए थे। ऊपर से आये हुए हुक्मों को टालने की उनमें ताब न थी, और वे सर्विस के लोगों तक की आजादी में जो दरअसल उनके मातहत होते थे-दखल देने का साहस न कर सकते थे।
आखिरकार कुछ करना ही पड़ा। थोड़ी-बहुत मदद पहुंचाई गई। लेकिन इस बीच दस लाख, या बीस लाख, या तीस लाख आदमी मर चुके थे। कोई नहीं जानता कि उन भयानक महीनों में भूख के मारे या रोग से कितने लोग मरे। कोई नहीं जानता कि कितने लाख लड़के और लड़कियां और नन्हें बच्चे मौत से तो बच गए, लेकिन जिनकी बाढ़ मारी गई और तन से और आत्मा से जो टूट गए। और अब भी व्यापक अकाल और रोग का भय देश पर मंडरा रहा है।
प्रेसिडेंट रूजवेल्ट की चार आजादियां। अभाव से आजादी। फिर मी खुशहाल इंग्लिस्तान और उससे भी जादा खुशहाल अमरीका ने शरीर की उस भूल की तरफ़ ध्यान न दिया, जो हिंदुस्तान में करोड़ों आदमियों को मारे डाल रही थी उसी तरह, जिस तरह कि उन्होंने आत्मा की उस प्यास का तिरस्कार किया, जो हिंदुस्तान के निवासियों को सता रही थी। बताया गया कि घन की जरूरत नहीं है और खाना पहुंचानेवाले जहाज लड़ाई की जरूरतों के कारण मिल नहीं रहे हैं। लेकिन बावजूद सरकारी रोक के, और बंगाल की भयानक घटनाओं को कम करके दिखाने की इच्छा के, इंग्लिस्तान और अमरीका और दूसरी जगहों के दिल रखनेवाले और हमदर्द लोगों ने माँ और औरतों ने हमारी मदद की। सबसे ज्यादा मदद की चीन और आयरलैंड की सरकारों ने, जिनके साघन थोड़े थे, जिनके सामने अपनी बड़ी कठिनाइयां थीं, लेकिन जो खुद अकाल और दुख का तीखा अनुभव रखते थे और जिन्होंने पहबाना कि हिंदुस्तान के तन और आत्मा को क्या बात पोड़ित कर रही है। हिंदुस्तान की याददाश्त लंबी है, लेकिन और चाहे वह जो कुछ भूले या याद रखे, दोस्ती और हमदर्दी के इन सलुक़ों को वह कभी न मूलेगा।
३ : लोकतंत्र के लिए लड़ाई
एशिया, यूरोप और अफ़रीका में; पैसिफ़िक, अटलांटिक और हिंद महासागरों के बड़े हिस्सों पर, जंग अपनी पूरी भोषणता से जारी है। चीन में करीब सात साल से लड़ाई हो रही है, और साढ़े चार साल से ज्यादा हो गए यूरोप और अफ़रीका में; और इस संसार-व्यापी युद्ध के भी दो वर्ष चार महीने बीत चुके। फ़ासिस्त और नात्सी-मत के खिलाफ़ और दुनिया पर अधिकार हासिल करने की कोशिश के खिलाफ़ लड़ाई लड़ी जा रही है। लड़ाई के इन सालों में से कोई तीन साल मैंने यहां पर और हिंदुस्तान में दूसरी जगहों पर कैद में गुजारे हैं।
मुझे याद है कि क्रांसिस्त और नात्सी-मतों का, उनके शुरू के दिनों में मैंने क्या असर लिया था और मैंने ही नहीं, बल्कि हिंदुस्तान में बहुतों ने। चीन में होनेवाली जापान की ज्यादतियों ने हिंदुस्तान पर कितना गहरा प्रभाव डाला था और चीन के प्रति युगों पुरानी दोस्ती के तरह इटली के अबीसीनिया पर भाव जगा दिए थे; किस किये गए बलात्कार ने हमें बेजार कर दिया थाः चेकोस्लोवाकिया के साथ जो दगा की गई, किस तरह उसने हमें तकलीफ पहुंचाई पीः किस तरह गणतांत्रिक स्पेन जब अपने अस्तित्व की हिफाजत के लिए साहस के साथ लड़ाई लड़ते हुए गिर गया था; तब मैंने और दूसरों ने, उस बात का एक निजी दुख की घटना के तौर पर अनुभव किया था।
यह नहीं कि हम पर सिर्फ उन बाह्री हमलों का असर पड़ा हो, जो फासिस्तों और नात्सियों ने किये थे, या उन बेहूदगियों और हैवानी हरकतों का, जो इन हमलों के साथ-साथ हुई थीं। जिन उसूलों पर वे खड़े थे और जिनका वे वड़े जोर-शोर से ऐलान करते थे और जिंदगी के वे सिद्धांत, जिनकी नींव पर वे अपनी इमारत खड़ी करने की कोशिश में थे; इन सभी बातों ने हमें सजग कर दिया था, क्योंकि ये उन सब यक़ीनों के खिलाफ़ पड़ती थी, जिन पर हम इस बक्त कायम थे और जिन्हें हमने मुद्दतों से अपनाया था और अगर अपनी जातीय स्मृति ने हमारा साथ छोड़ भी दिया होता और हम अपना लंगर खो बैठते, तो भी हमारे अपने तजुरबे (अगरचे वे दूसरी ही शक्ल में हमारे सामने आये थे, और भलमन्सो के लिहाज से से कुछ बदले हुए भेस में में थे) काफ़ी थे कि हमें बता दें कि ये नात्सी सिद्धांत और जिदगों के उसूल क्या हैं और किस तरह के राज्य की ओर हमें आखिरकार ले जायंगे, क्योंकि हमारे देशवासी बहुत दिनों से उन्हीं उसूलों के और वैसे ही सरकारी तरीक़ों के शिकार रह चुके हैं। इसलिए हमारी प्रतिक्रिया फ़ौरन और जोर के साथ फ़ासिस्त और नात्सी उसूलों के खिलाफ़ हुई।
मुझे याद है कि किस तरह मैंने मार्च, १९३६ के शुरू के दिनों में सिन्योर मुसोलिनी इसरार के साथ भेजा गया, निमंत्रण अस्वीकार कर दिया था। इंग्लिस्तान के बहुतेरे राजनीतिज्ञ, जिन्होंने बाद में, जब इटली लड़ाई में शरीक़ हुआ, इस फ़ासिस्त नेता के खिलाफ़ बहुत कड़ी बातें कहीं, उन दिनों उसकी चर्चा तारीफ़ के साथ और मीठेपन से किया करते थे और उसकी हुकूमत और तरीक़ों के प्रशंसक थे।
दो बरस बाद, म्यूनिख के समझौते से पहले, गरमी के दिनों में नात्सी सरकार ने मुझे जर्मनी में आने की दावत दी थी। दावतनामे के साथ यह लिखा था कि वह नात्सी-मत के खिलाफ़ मेरे विचारों को जानती है। फिर भी बह चाहती है कि मैं जर्मनी की हालत खुद आकर देखूं। मैं सरकार का मेहमान बनकर या निजीतीर पर जाने के लिए आजाद था और खुलेतौर पर या दूसरा नाम रखकर जहां मैं चाहता, वहां बगैर रुकावट के जा सकता था, इस बात का यक़ीन दिलाया गया था। लेकिन मैंने धन्यबाद के साथ इस न्यौते को नामंजूर कर दिया। उलटे मैं चेकोस्लोवाकिया गया- उस ‘दूर- देश’ में, जिसके बारे में उस वक्त के इंग्लिस्तान के प्रधानमंत्री बहुत थोड़ी ही जानकारी रखते थे।
म्यूनिख के समझौते के पहले मैं ब्रिटिश मंत्रि-मंडल के कुछ लोगों और इंग्लिस्तान के दूसरे खास-खास राजनीतिज्ञों से मिला था और मैंने उनके सामने फ़ासिस्त और नात्सी-मत के खिलाफ़ अपने विचारों को रखने का साहस किया था। मैंने देखा कि मेरी राय का स्वागत नहीं किया गया और मुझसे कहा गया कि बहुत-सी बातों का लिहाज रखना जरूरी है।
चेकोस्लोवाकिया के संकट के मौके पर प्राग और सुडेटनलैंड में, लंदन, पेरिस और जिनेवा में, जहां लीग-असेंबली की उन दिनों बैठक हो रही थी, फ़ान्सीसी और ब्रिटिश राजनीतिज्ञों का जो रुख मैंने देखा, उसे देखकर मैं अचंमे में रह गया और मुझे नफ़रत हुई। अगर यह कहा जाय कि दूसरे फ़रीक़ को राजी रखने की कोशिश की गई, तो लफ़्ज असलियत को ठीक- ठीक अदा करने के लिए नाकाफ़ी होंगे। जो हुआ, उसके पीछे सिर्फ हिटलर का डर न था, बल्कि उसकी जानिब बुजदिली की तारीफ़ का भाव था।
और अब, भाग्यचक्र का एक अजीब पलटा है कि मैं और मुझ जैसे लोग, जबकि फ़ासिस्तों और नात्सियों के खिलाफ़ जंग जारी हो, अपने दिन क़ैद में काटें; और उनमें से बहुत से लोग, जो हिटलर और मुसोलिनी के यहां सलामियां बजाते थे, और जो चीन में होनेवाली जापान की ज्यादतियों को पसंद करते थे, आजादी और लोकतंत्र और फासिस्त-विरोध का भंडा उठाये हुए दिखाई पड़ें।
हिंदुस्तान के भीतर भो एक हैरत अंगेज तबदीली आ गई है। और मुल्कों की तरह यहां भी ऐसे लोग हैं, जिन्हें सरकार का ‘पिट्टू’ कहना चाहिए, जो सरकार के घाघरे के इर्द-गिर्द चक्कर लगाया करते हैं और उन विचारों को दुहराया करते हैं, जो उनकी समझ में, उन्हें अपने मालिकों का कृपापात्र बनायेंगे। बहुत दिन नहीं हुए, एक ऐसा जमाना था, जब वे हिटलर बऔर मुसोलिनी की तारीफ़ के पुल बांधा करते थे और उन्हें मिसाल की तरह पेश किया करते थे और साथ ही रूसी सरकार को हर तरह की गालियां करते थे। अब वह बात नहीं रही, क्योंकि मौसम बदल गया है। सरकार के और राज के वे ऊंचे हाकिम हैं और फ़ासिस्त तथा नात्सी-विरोधी अपनी तानों को ऊंचे स्वर में अलापते लापते हैं, और तक की चर्चा करते हैं। लेकिन दबी सांस से, मानो वह कोई जरूरी चीज तो है, पर दूर- दराज की है। मुझे कभी-कभी यह कौतूहल होता है कि घटनाओं ने कोई दूसरा ही रख लिया होता, तो उस हालत में ये लोग क्या करते । लेकिन सच यह है कि कयास की गुंजाइश नहीं, क्योंकि जो मी बक्ती हुकूमत हो, उसीकी ये माला फेरते और उसीके आगे ये स्वागत-पत्र लेकर हाजिर होते।
जंग से बरसों पहले से मेरे दिमाग में, आनेवाली कया-मकश की बातें धूम रही थी। मैं उनके बारे में विचार करता। तकरीरें करता और लिखता था; और मैंने अपने को, जहनी तौर से, इसके लिए तैयार कर लिया था। मैं चाहता था कि जोश के साथ हिंदुस्तान इस बड़े संघर्ष में अमली हिस्सा ले। मैं अनुभव करता था कि इसमें ऊंचे उसूलों की बाजी लगेगी और इस कश- मकश का नतीजा यह होगा कि हिंदुस्तान में और दुनिया में बड़ी और इन्क्र लाबी तबदीलियां होंगी। उस वक़्त में नहीं समझता था कि हिंदुस्तान को फौरन कोई खतरा है या उस पर हमले का इमक़ान है। फिर भी मैं चाहता था कि हिदुस्तान उसमें पूरा-पूरा हिस्सा ले। लेकिन मुझे यकीन था कि सिर्फ एक आजाद मुल्क ही, बराबरी की हैसियत से, इस तरह शिरकत कर सकता है।
यही नजरिया नेशनल कांग्रेस का भी था, जो हिदुस्तान का अकेला ऐसा संगठन रहा है, जिसने फ़ासिस्त बौर नात्सी-मत का उसी तरह विरोध किया है, जिस तरह कि साम्राज्यवाद का। इसने गणतांत्रिक स्पेन, चेकोस्लोवाकिया बऔर चीन का बराबर समर्थन किया था। और अब क़रीब दो साल से कांग्रेस गैर-क़ानूनी करार दे दी गई है। कानूनी हिमायत की वह हक़दार नहीं रही, और किसी सूरत में भी वह अपना काम नहीं कर पा रही है। कांग्रेस जेलखाने में है। सूबों की विधान-सभाओं के सदस्य, इन सभाओं के अध्यक्ष, इनके पुराने बजीर, कांग्रेसी मेयर, इसकी म्यूनिसिपैलिटियों के सभापति सब जेल में हैं। इस बीच, जंग जारी है लोकतंत्र और अटलांटिक चार्टर और चार बाजादियों के नाम पर !
क्रमशः-