हिंदुस्तान की कहानी’ पंडित जवाहरलाल नेहरू की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय कृतियों में से है। यह पुस्तक विश्वविख्यात ‘दि डिस्कवरी ऑव इंडिया’ का अनुवाद है। हम उनकी पुस्तक हिन्दुस्तान की कहानी को धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है धारावाहिक में छोटे आलेख पाठकों को पसंद आयेंगे और वे इस तरह नेहरू के हिन्दुस्तान को पूरा पढ़ पायेंगे। हमें आपकी प्रतिक्रिया और सुझावों का इंतजार रहेगा ताकि हम और बेहतर कर सकें। आज पुस्तक का चैप्टर :४ हिंदुस्तान की खोज : भाग् १ : सिन्धु-घाटी की सभ्यता
हिंदुस्तान के गुजरे हुए जमाने की सबसे पहली तस्वीर हमें सिघ-पाटी की सभ्यता में मिलती है, जिसके पुर-असर खंडहर सिध में मोहनजोदड़ों में और पच्छिमी पंजाब में हड़प्पा में मिले हैं। यहां पर जो खुदाइयां हुई हैं, उन्होंने प्राचीन इतिहास के बारे में हमारे खयालों में इन्कलाब पैदा कर दिया है। बदकिस्मती से इन जगहों में खुदाई का काम शुरू होने के चंद साल बाद ही वह बंद कर दिया गया और पिछले १३-१४ सालों से यहां कोई मार्के का काम नहीं हुआ। काम बंद किये जाने की वजह शुरू में तो यह थी कि सन ३० के बाद के कुछ सालों में बड़ी आर्थिक मंदी फैल गई थी। बताया गया कि पैसे की कमी है, अगरचे सल्तनत की शान-शीकृत और दिसावे में कमी इस कमी ने रुकावट न डाली। दूसरे लोक-व्यापी युद्ध ने सारा काम ही बंद कर दिया, यहांतक कि जो खुदाई हो चुकी थी, उसकी ठीक-ठीक हिफाजत का भी ध्यान न रखा गया। मैं मोहनजोदड़ो दो बार गया हूं-१९३१ में और १९३६ में। अपनी दूसरी यात्रा में मैंने देखा कि बरसात ने और खुश्क रेगिस्तानी हवा ने बहुत-सी इमारतों को, जिनकी खुदाई हो चुकी है, अभी ही नुकसान पहुंचा दिया है। बालू और मिट्टी के अंदर पांच हजार बरसों तक हिफाजत से पड़े रहने के बाद, खुली हवा के असर से वे बड़ी तेजी से नष्ट हो रही थी और कदीम जमाने के इन मूल्यवान खंडहरों के बचाने की कोई कोशिश नहीं हो रही थी। पुरातत्त्व विभाग के अफ़सर ने, जिसके सिपुर्द यहां की देखरेख थी, शिकायत की कि खदाई में निकली इमारतों की हिफाजत के लिए उसे न मदद या सामान दिया जाता है, न पैसे दिये जाते हैं। इन पिछले आठ बरसों में क्या हुआ है, इसकी मुझे जानकारी नहीं, लेकिन मेरा खयाल है कि बरबादी जारी रही है और कुछ और सालों में मोहनजोदड़ो को अपना रंग-रूप देखने को न मिलेगा।
यह एक ऐसी दुर्घटना है, जिसके लिए कोई बहाना नहीं सुना जा सकता और कुछ ऐसी चीजें, जो फिर कभी देखने में आ नहीं सकती, मिट गई होंगी और सिर्फ तस्वीरों या बयानों के आधार पर हम जान सकेंगे कि वे क्या थीं।
मोहनजोदड़ो और हड़प्पा एक-दूसरे से काफ़ी दूरी पर हैं। इन दो जगहों के खंडहरों की खोज एक इत्तिफाक की बात थी। इसमें शक नहीं कि बहुत से ऐसे मिट्टी में दबे हुए शहर और पुराने जमाने के आदमियों के कारनामे इन दो जगहों के बोच पड़े होंगे और यह तहजीब हिंदुस्तान के बड़े हिस्सों में, और यकोनी तौर पर उत्तरी हिंदुस्तान में फैली हुई थी। ऐसा वक्त आ सकता है, जबकि हिंदुस्तान के क़दीम जमाने के ऊपर से परदा उठाने का काम फिर हाथ में लिया जाय और मार्के की खोजें हों। अभी ही इस सभ्यता के निशान हमें इतनी दूर फैली हुई जगहों में मिले हैं, जैसे पच्छिम में काठियावाड़ और पंजाब में अंबाला जिले में और ऐसा यकीन करने की बजहें है कि वह सभ्यता गंगा की चोटी तक फैली हुई थी। इस तरह यह सभ्यता महज सिघ-घाटी की सभ्यता के अलावा कुछ और भी थी। मोहन- जोदड़ो में मिले हुए लेख अभीतक ठीक-ठीक पढ़े नहीं जा सके हैं।
लेकिन जो भी हम अबतक जान सके हैं, वे बड़े महत्त्व की बातें हैं। सिब-घाटी की सभ्यता, जैसा भी हम उसे जान सके हैं, एक बड़ी तरक्की- याफ्ता सभ्यता थी और उसे इस दर्ज तक पहुंचाने में हजारों साल लगे होंगे। यह काफी अचरज की बात है कि यह सभ्यता लौकिक और दुनियाबो सभ्यता है और अगरचे इसमें मजहबी अंश भी मौजूद थे, वे इस पर हावी न थे। यह भी जाहिर है कि यह सभ्यता हिंदुस्तान के और तहजीबी जमानों की पूर्व-सूचक थी।
सर जान मार्शल हमें बताते हैं- “मोहनजोदड़ो और हड़प्पा, इन दोनों जगहों में, एक चीज जो साफ़ तौर पर जाहिर होती है और जिसके बारे में कोई धोखा नहीं हो सकता, वह यह है कि इन दोनों जगहों में जो सभ्यता हमारे सामने आई है, वह कोई इब्तदाई सभ्यता नहीं है, बल्कि ऐसी है, जो उस समय ही युगों पुरानी पड़ चुकी थी, हिंदुस्तान की जमीन पर मजबूत हो चुकी थी और उसके पीछे आदमी का कई हजार बरस पुराना कारनामा था। इस तरह अब से मानना पड़ेगा कि ईरान, मेसोपोटामिया और मिस्र की तरह हिंदुस्तान उन सबसे प्रमुख प्रदेशों में एक है, जहां सभ्यता का आरंभ और विकास हुआ था।” और फिर वह कहते हैं कि “पंजाब और सिंघ में, अगर हम हिंदुस्तान के और दूसरे हिस्सों में न भी मानें, एक बहुत तरक़्क़ीयाप्ता और अद्भुत रूप से आपस में मिलती-जुलती हुई सभ्यता का प्रचार था, जो उसी जमाने की मेसोपोटामिया और मिस्त्र की सभ्यताओं से जुदा होते हुए भी, कुछ बातों में उनसे ज्यादा तरक्की पर थी।”
सिंघ-घाटी के इन लोगों के उस जमाने की सुमेर-सभ्यता से बहुत-से संपर्क थे और इस बात का भी सबूत मिलता है कि अक्क़ाद में हिंदुस्तानियों की, संभवतः व्यापारियों की, एक बस्ती थी। “सिघ-घाटी के शहरों को बनी हुई चीजें दजला और फ़रात के बाजारों में बिकती थीं और उधर सुमेर की कला के कुछ नमूनों, मेसोपोटामिया के सिंगार के सामान, और एक बेलन के आकार की मुहर की नक़ल सिंघवालों ने कर ली थी। व्यापार कच्चे माल और विलास की चीजों तक महदूद न था। अरब सागर के किनारों से लाई गई मछलियां मोहनजोदड़ो की खाने की चीजों में शामिल बीं।”
इतने पुराने जमाने में भी हिंदुस्तान में रुई कपड़ा बनाने के काम में लाई जाती थी। मार्शल सिव-घाटी की सभ्यता का समकालीन मेसो- पोटामिया और मिस्र की सभ्यता से मिलान और मुकाबला करते हैं- “इस तरह, कुछ खास-खास बातें ये हैं कि इस जमाने में रुई का कपड़ा बनाने के काम में इस्तेमाल सिर्फ हिंदुस्तान में होता था और पच्छिमी दुनिया में २००० या ३००० साल बाद तक यह नहीं फैला। इसके अलावा मिस्र या मेसोपोटामिया या पच्छिमी एशिया में कहीं भी हमें वैसे अच्छे बने हुए हम्माम या कुशादा घर नहीं मिलते, जैसेकि मोहनजोदड़ो के शहरी अपने इस्तेमाल में लाते थे। उन मुल्कों में देवताओं के शानदार मंदिरों और राजाओं के लिए महलों और मकबरों के बनाने पर ज्यादा ध्यान दिया जाता था और धन खर्च किया जाता था। लेकिन जान पड़ता है कि जनता को मिट्टी की छोटी झोंपड़ियों से संतोष करना पड़ता था। सिध-घाटी में इससे उलटी ही तस्वीर दिखाई देती है और अच्छी-से-अच्छी इमारतें वे मिलती हैं, जिनमें नागरिक रहा करते थे।” निजी या आम लोगों के लिए खुले हम्मामों का और नालियों के जरिये गंदगी निकालने का जो इंतजाम हम मोहनजोदड़ो में पाते हैं, वह अपने ढंग का पहला है, जो कहीं भी मिलता है। हमें रहने के दो मंजिले घर भी मिलते हैं, जो पकी हुई मिट्टी के बने होते थे और जिनमें हम्माम, चौकीदार के घर, और अलग-अलग घरानों के रहने के लिए हिस्से होते थे। (‘गार्डन चाइल्ड : ‘ह्वाट हैपेन्ड इन हिस्टरी’ (पेलिकन बुक्स) पृ० ११२)। मार्शल से, जो सिघ-घाटी की सभ्यता के माने हुए विशेषज्ञ हैं और जिन्होंने खुद खुदाई कराई थी, एक और उद्धरण दूंगा। वह कहते हैं- “सिघ-घाटी की कला और धर्म भी उतने ही विचित्र हैं और उन पर एक अपनी खास छाप है। इस जमाने के दूसरे मुल्कों की हम कोई ऐसी चीज नही जानते, जो शैली के खयाल से यहां की चीनी मिट्टी की बनी मेड़ों, कुत्तों और जानवरों की मूत्तियों से मिलती हो, या उन खुदी हुई मुहरों से, खास तोर से जिन पर छोटी सींगों के कूबड़वाले बैलों को नक़्क़ाशा है और जो बनाने के कौशल और सुडौलपन को दृष्टि से बेमिसाल हैं। न वहीं मुम- किन होगा कि हड़प्पा में पाई गई दो छोटी मुत्तियों का मुकाबला, बनावट की नुषड़ाई के खयाल से किन्हीं और मूत्तियों से कर सकें, सिवाय इसके कि जब पूनान की सभ्यता के प्रौढ़ काल के कारनामे देखें। सिब-घाटी के लोगों के धर्म में बहुत-सी ऐसी बातें हैं, जिनसे मिलती हुई बातें हमें और मुल्कों में मिल सकती है, और यह बात सभी पूर्व-ऐतिहासिक और ऐति- हातिक धर्मों के बारे में सच ठहरेगी। लेकिन सव-कुछ लेकर, उनका धर्म इतनी विशेषता के साथ हिंदुस्तानी है कि आजकल के प्रचलित हिंदू-धर्म से उसका भेद मुश्किल से किया जा सकता है।”
इस तरह से हम देखते हैं कि सिव-बाटी की सभ्यता ईरान, मेसो- पोटामिया और मिस्र को उस जमाने की सभ्यताओं के संपर्क में रही है, इसके और उनके लोगों में आपस में व्यापार होता रहा है और कुछ बातों में यह उनसे बड़कर रही है। यह एक शहरी सभ्यता थी, जहां के व्यापारी मालदार ओर असर रखनेवाले लोग थे। सड़कों पर दूकानों की कतारें होती और ऐसी इमारतें, जो शायद छोटी-छोटो दूकानें थी और आजकल के हिंदुस्तानी वाजार-जैसी लगती हैं। प्रोफ़ेसर चाइल्ड कहते हैं-“इससे जाहिरा तौर पर यह नतीजा निकलता है कि सिब के शहरों के कारीगर विक्री के लिए सामान तैयार करते थे। इस सामान के विनिमय की सुविधा के लिए समाज ने कोई सिक्कों का चलन और कीमतों की माप स्वोकार की थी या नहीं, और अगर की थी, तो वह क्या थी, इसका ठीक पता नहीं। बहुत-से बड़े और कुशादा मकानों के साथ लगे हुए सुरक्षित गोदामों से पता लगता है कि इन घरों के मालिक लोग सौदागर थे। इन घरों की गिनती और आकार यह बताते हैं कि यहां पर मजबूत और खुशहाल व्यापारियों को बिरादरी थी।” “इन खंडहरों में सोने, चांदी, कीमती पत्थरों और चीनी मिट्टी के जेवर, पिटे हुए तांबे के बरतन, घातु के बने ओजार ओर हथियार इतनी बहुतायत से मिले हैं कि अचरज होता है।” चाइल्डसाहब यह भी कहते हैं कि “गलियों की सुंदर तरतीब और नालियों की बहुत बड़िया व्यवस्था और उनकी बराबर सफाई इस बात का संकेत देते हैं कि यहां कोई नियमित शहरी हुकूमत थी और वह अपना काम मुस्तैदी से करती थी। इसकी अमलदारी इतनी काफ़ी मजबूत थी कि बाढ़ों की वजह से बार-बार बनी इमारतों की तैयारी के वक़्त भी नगर-निर्माण के और सड़कों की कतारों के कायम रखने के नियमों का पालन होता था।”
सिष-बाटी की सभ्यता और आज के हिदुस्तान के बीच की बहुत-सी कड़ियां गायब है और ऐसे जमाने गुजरे हैं कि जिनके बारे में हमारी जान- कारी नहीं के बराबर है। एक जमाने को दूसरे जमाने से जोड़नेवाली कड़ियां अकसर जाहिर भो नहीं हैं और इस बाबत जाने कितनी घटनाएं भदी है और कितनी तबदीलियां हुई हैं। फिर भी ऐसा मालूम देता है। कि एक सिलसिला कायम रहा है और एक साबित जंजीर है, जो आज के हिंदु- स्तान को उस छः-सात हजार साल पुराने जमाने से, जबकि सिय-घाटी की सभ्यता शायद शुरू हुई थी, बांध रही है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की कितनी चीजें चलो आती हुई परंपरा की, रहन-सहन की, लोगों के पूजा- पाठ, कारीगरी, यहांतक कि पोशाक के डंगों की, हमें याद दिलाती रहती है। इनमें से बहुत-सी बातों ने पच्छिमी एशिया पर प्रभाव डाला था। यह बड़े अचरज की बात है।
यह एक दिलचस्प बात है कि हिंदुस्तान की कहानी के इस उपा-काल में हम उसे एक नन्हें बच्चे के रूप में नहीं देखते हैं, बल्कि इस वक़्त भी वह अनेक प्रकार से समाना हो चुका था। वह जिंदगी के तरीकों से अनजान नहीं है, यह किसी घुघली और हासिल न होनेवाली दूसरी दुनिया के सपनों में सोया हुआ नहीं है; बल्कि उसने जिदगी की कला में, रहन-सहन के साधनों में काफी तरक्की कर ली है और न महज सुंदर चीजों की रचना की है. बल्कि आज की सभ्यता के उपयोगी और खास चिह्नों अच्छे हम्मामों और नालियों को भी तैयार किया है।
जारी….