हिंदुस्तान की कहानी’ पंडित जवाहरलाल नेहरू की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय कृतियों में से है। यह पुस्तक विश्वविख्यात ‘दि डिस्कवरी ऑव इंडिया’ का अनुवाद है। हम उनकी पुस्तक हिन्दुस्तान की कहानी को धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है धारावाहिक में छोटे आलेख पाठकों को पसंद आयेंगे और वे इस तरह नेहरू के हिन्दुस्तान को पूरा पढ़ पायेंगे। हमें आपकी प्रतिक्रिया और सुझावों का इंतजार रहेगा ताकि हम और बेहतर कर सकें। आज पुस्तक का चैप्टर :४ हिंदुस्तान की खोज : भाग २ : आर्यों का आना
सिध-घाटी की सभ्यतावाले ये लोग कौन थे और कहां से आये थे, इसका हमें अबतक पता नहीं है। यह बहुत मुमकिन, बल्कि संभावित, है कि इनकी संस्कृति इसो देश की संस्कृति यो और उसकी जड़े और शाखाएं दक्खिन हिदुस्तान तक में मिलती हैं। कुछ विद्वान इन लोगों में और दक्खिन हिंदुस्तान के इविड़ों में क़ौम और संस्कृति की खासतौर पर समानता पाते हैं। और अगर बहुत कदीम वक़्त में हिंदुस्तान में बाहरी लोग आये थे, तो इसको तारीख मोहनजोदड़ो से हजारों बरस पुरानी है। व्यवहार के विचार से हम उन्हें हिंदुस्तान के हो निवासी मान सकते हैं। (‘गार्डन चाइल्ड : ‘ह्वाट हैपेन्ड इन हिस्टरी’, पृ० ११३-११४) सिथ-बाटी की सभ्यता का क्या हुआ और वह कैसे खत्म हो गई ? कुछ लोगों का कहना है (और इनमें गार्डन चाइल्ड भी है) कि इसका अंत अचानक और किसी ऐसी दुर्घटना के कारण हुआ, जिसको बताया नहीं जा सकता। सिंघ नदी अपनी बहुत बड़ी बाड़ों के लिए मशहूर है, जो शहरों और गांवों को बहा ले जाती रही है। या बदलती हुई आब-व-हवा के कारण धीरे-धीरे जमीन खुरक हो। गई हो और खेतों के ऊपर बालू छा गया हो। मोहनजोदड़ों के खंडहर खुद इस बात का सबूत हैं कि शहर पर तह-की-तह बालू जमता रहा है, जिसकी वजह से शहरियों को मजबूर होकर पुरानो नीवी पर और ऊंची सतहों पर इमारतें बनवानी पड़ी है। जिन मकानों की खुदाड्यां हुई हैं, उनमें से कुछ ऐसे हैं कि दुमंजिले या तिमंजिले जान पड़ते हैं, असलियत यह है कि जमीन की सतह ज्यों-ज्यों ऊपर उठती गई, त्या-त्यों वे अपनी दीवारें उठाते गए। हम जानते हैं कि कदीम जमाने में सिथ का सूबा बड़ा उपजाऊ और हरा-भरा था, लेकिन मध्य काल के बाद से यह ज्यादातर रेगिस्तान हो रहा है।
इसलिए यह बहुत मुमकिन है कि मौसमी तबदोलियों का उस प्रदेश के लोगों और उनके रहन-सहन पर गहरा असर पड़ा हो। लेकिन यह असर रफ़्ता-रफ़्ता हो पड़ा होगा, अचानक दुर्घटना के रूप में नहीं। और हर हालत में इस दूर तक फैली हुई शहरी सभ्यता के एक टुकड़े पर ही मौसम का यह असर पड़ा होगा, क्योंकि हमारे पास इस बात के विश्वास करने के कारण है कि यह सभ्यता बराबर गंगा की घाटी तक, और संभवतः उससे भी आगे तक, फैली हुई थी। सच बात तो यह है कि ठीक-ठीक फ़ैसला करने के लिए हमारे पास काफ़ी सबूत नहीं हैं। इन कदीम शहरों में से कुछ तो शायद बालू से घिरकर उसीमें दब गए और बालू ने उनको मिटाने से बचाया; और दूसरे शहर और सभ्यता के चिह्न धीरे-धीरे नष्ट होते रहे और जमाने के साथ जाया हो गए। शायद आगे को पुरातत्त्व की खोजों से ऐसी कड़ियों का पता चले, जो इस युग को बाद के युगों से जोड़ती हों।
जहां एक तरफ इस बात का आभास होता है कि सिघ की सभ्यता का अटूट सिलसिला बाद के वक्तों से बना रहा, वहां दूसरी तरफ़ इस सिलसिले के टूटने के बीच में खाई पड़ जाने का अनुमान होता है और यह खाई न केवल समय का अंतर बताती है, बल्कि यह भी कि जो सभ्यता बाद में आई, वह एक दूसरे प्रकार की थी। पहली बात तो यह है कि अगरचे शहर तव भो थे और किसी-न-किसी प्रकार का शहरी जीवन भी था, फिर भी यह बाद की सभ्यता पहले के मुक़ाबले में ज्यादा जराबती खेतिहरों की सभ्यता थी। हो सकता है कि खेती पर खासतौर पर जोर डाला हो, उन लोगों ने, जो वाद में आये, यानी आर्यों ने, जो कई गिरोहों में पच्छिमोत्तर से हिंदु- स्तान में उतरे।
यह खयाल किया जाता है कि आर्यों का यहां आना सिंधु-घाटी की सभ्यता के एक हजार साल बाद हुआ, लेकिन यह भी मुमकिन है कि वक़्त की इतनी बड़ी खाई दोनों के बीच न रही हो और जातियां और क़बीले पच्छिमोत्तर से बराबर थोड़े-थोड़े समय बाद आकर रहे हों, जैसाकि वे बाद में आये, और आने पर हिंदुस्तान में घुल-मिल जाते रहे हों। हम कह सकते हैं कि संस्कृतियों का पहला बड़ा समन्वय और मेल-जोल आनेवाले आयों और द्रविड़ों में, जो संभवतः सिधु घाटी की सभ्यता के प्रतिनिधि थे, हुआ। इस समन्वय और मेल-जोल से हिंदुस्तान की जातियां बनीं और एक बुनियादी हिंदुस्तानी संस्कृति तैयार हुई, जिसमें दोनों के अंश थे। बाद के युगों में और बहुत-सी जातियां आती रहीं, जैसे ईरानी, यूनानी, पाथियन, बैक्ट्रियन, सिदियन, हूण, तुर्क, (इस्लाम से पहले के), क़दीम ईसाई, यहूदी, और पारसी वगैरह। ये सभी लोग आये, इन्होंने अपना प्रभाव डाला और बाद में यहां के लोगों में घुल-मिल गए। डाडवेल के कहने के अनुसार, हिंदुस्तान में “समुद्र की तरह सोखने की असीम शक्ति थी।” यह कुछ अजब- सी बात जान पड़ती है कि हिंदुस्तान में, जहां ऐसी वर्ग-व्यवस्था है और अलग बने रहने को भावना है, विदेशी जातियों और संस्कृतियों को जज्ब कर लेने को इतनी समाई रही हो। शायद यही वजह है कि उसने अपनी जीवनी-शक्ति कायम रखी है और समय-समय पर वह अपना काया-कल्प करता रहा है। जब मुसलमान यहां आये, तो उन पर भी उसका असर पड़ा। विन्सेंट स्मिथ का कहना है कि “विदेशी (मुसलमान तुर्क) अपने पूर्वजों-शकों और युई-ची की तरह हिंदू-धर्म की पचा लेने की अद्भुत शक्ति के वश में हुए और तेजी के साथ उनमें ‘हिंदूपन’ आ गया।”
जारी….