हिन्दुस्तान की कहानी : जवाहर लाल नेहरू -भाग 1: अहमद‌नगर का किला- 6 ज़िंदगी का फिलसफा

हिंदुस्तान की कहानी’ पंडित जवाहरलाल नेहरू की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय कृतियों में से है। यह पुस्तक  विश्वविख्यात ‘दि डिस्कवरी ऑव इंडिया’ का अनुवाद है। हम उनकी पुस्तक हिन्दुस्तान की कहानी को धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है धारावाहिक में छोटे आलेख पाठकों को पसंद आयेंगे और वे इस तरह नेहरू के हिन्दुस्तान को पूरा पढ़ पायेंगे। हमें आपकी प्रतिक्रिया और सुझावों का इंतजार रहेगा ताकि हम और बेहतर कर सकें। आज पुस्तक का चैप्टर१ – अहमद‌नगर का किला का अगला भाग पढ़ें। ( संपादक )

6 जिंदगी का फिलसफ्रा

छः या सात साल हुए, अमरीका के एक प्रकाशक ने एक संग्रह के लिए, जिसे वह प्रकाशित करने जा रहे पे, मुमले अपनी डिएगों के फिलसफे पर एक मजनून लिखने के लिए कहा था। यह खयाल मुझे अच्छा लगा, लेकिन मुझे पसोपेश हुआ, और जितना ही मैंने इस बारे में गोर किया, मेरा पशोपेस बढ़ता गया। आखिरकार मैंने वह मजमून नहीं लिया।

मेरी जिदगो का फिलसका क्या है? मुझे मालूम नहीं। कुछ साल पहले मुझे इतनी दुविधा न होती। उस वक्त मेरे विचारों और मकसदों दोनों में एक निश्चय था, जो अब रफ्ता रफ्ता जा  रहा है। हिंदुस्तान, बीन, यूरोप और सारी दुनिया में होने वाली चंद सात की घटनाएं उत्तमन और परेशानी और कोक्त पैदा करनेवाली रही है, और भविष्य अस्पष्ट और अंधियाला हो गया है और उसके बारे में जो स्पष्टता मेरे दिमाग में पहाते यो, अब नहीं रही है।

बुनियादी मामलों के मुताल्लिक एक बहेने सामने के काम में मेरे लिए अड़चन नहीं पैदा को सिवाय इसके कि मेरी सरगरमी को तेज धार कुछ कुंद पड़ गई हो। अपने जवानी के दिनों में मेरी यह कैफियत थी कि खुद-ब-नाद तीर की तरह अपने चुने हुए निधाने पर पहुंबता था और निमाने को छोडकर और सब चीजों को नजरअंदाज कर देता था। बैसा मैं जब न कर पाता था। फिर भी काम में तो लगा हो रहा, क्योंकि काम के लिए जी में उमंग थी ओर अपने काम और उद्देस्यों में मैंने असतो या खवा मेल भो दाया था। लेकिन राजनीति का वो रूप मेरे सामने था, उसके खिलाफ मु नामे अरुचि बढ़ती गई और रता-पता जियो को जानिव मेरा नारा रुख बदल गया।

जो भार और महसर कम थे, वही आज भी हैं, लेकिन उन पर से मानो एक आब जाता रहा है और उनकी तरफ बढ़ते दिखाई देते हुए भी ऐसा जान पड़ता है कि वे अपनी चमकीली सुंदरता खो बैठे हैं, जिससे दिल में गरमी और जिस्म में ताकत पैदा होती थी। बदी की बहुत अकसर जीत रही है, लेकिन इससे भी अफ़सोस की बात यह है कि जो चीजें पहले इतनी ठीक जान पड़ती थीं, उनमें एक महापन और कुरूपता आ गई है। क्या  आदमी की प्रकृति इतनी बुरी है कि उसे युगों की तालीम की इसलिए जरूरत होगी कि वह लालच और हिंसा और धोखेबाजी की सतह से, जिसपर बह इस वक़्त है, उठ सके ? और क्या इस बीच में, मौजूदा जमाने में या निकट भविष्य में, उसे मूल से बदल देने की सभी कोशिश बेकार होंगी ? उद्देश्य और सापन-क्या दोनों एक साथ लाजिमी तौर पर बंधे हुए हैं और एक-दूसरे पर असर डाल रहे हैं और गलत साधन उद्देश्य को बिगड़ा हुआ रूप देते हैं और कभी-कभी उसे खत्म कर देते हैं? लेकिन सही साधन निर्बल और स्वार्थी मनुष्य-प्रकृति के बूते से बाहर की चीज भी हो सकते है। ऐसी हालत में आदमी का क्या फ़र्ज है? काम करने से मुंह मोड़ना तो पूरी-पूरी हार मान लेना और बुराई के सामने झुक जाना होगा; और काम करने में भी अकसर बुराई की किसी शक्ल के साथ समझौता करना होता है और इस तरह के समझौतों के जो गैर-पसंद नतीजे हो सकते हैं, वे सामने आते हैं।

शुरू में जिदगी के मसलों की तरफ़ मेरा रुख कमोवेश वैज्ञानिक था, और उसमें उन्नीसवीं सदी और बीसवीं सदी के शुरू के विज्ञान के आशा- बाद की चाशनी भी थी। एक सुरक्षित और आराम के रहन-सहन ने और उस शक्ति और आत्म-विश्वास ने, जो इस समय मुझमें था, आशावाद के इस भाव को और बढ़ा दिया था। एक अस्पष्ट सरीखी इन्सानी दर्दमंदी की तरफ़ मेरा खिचाव था।

मजहब में जिस रूप में मैं विचारशील लोगों को भी उसे बरतते और मानते हुए देखता था, चाहे वह हिंदू-धर्म, चाहे इस्लाम या बौद्ध-मत या ईसाई-मत-मेरे लिए कोई कशिश न थी। अंध-विश्वास और हठवाद से उनका गहरा ताल्लुक़ था और जिंदगी के मसलों पर गौर करने का उनका तरीक़ा यक्कोनी तौर पर विज्ञान का तरीका न था। उनमें एक अंश जादू- टोने का था और बिना समझे-बूझे यक़ीन कर लेने और चमत्कारों पर भरोसा करने की प्रवृत्ति थी।

फिर भी यह एक जाहिर सी बात है कि मजहव ने आदमी को प्रकृति की कुछ गहराई के साथ महसूस की हुई जरूरतों को पूरा किया है और सारी दुनिया में, बहुत ज्यादा कसरत में, लोग बिना मजहबी अक़ीदे के रह नहीं सकते। इसने बहुत-से ऊंचे क्रिस्म के मदों और औरतों को पैदा किया है, और साथ ही तंग-नजर और जालिम लोगों को भी। इसने इन्सानी जिदगी को कुछ निश्चित आयें दी है और अगरचे इन आंकों में से कुछ आज के जमाने पर लागू नहीं है, बल्कि उसके लिए नुकसानदेह मी है, दूसरी ऐसी भी हैं, जो अखलाक और अच्छे व्यबहार के लिए बुनियादी है।

‘धर्म’ शब्द का व्यापक अर्थ लेते हुए हम देखेंगे कि इसका संबंध मनुष्य के अनुभव के उन प्रदेशों से है, जिनकी ठीक-ठीक माप नहीं हुई है, यानी जो विज्ञान की निश्चित जानकारी को हद में नहीं आये हैं। एक मानी में इसे हम जाने हुए और पैमाइश किये हुए प्रदेश का विस्तार भी कह सकते हैं, अगरचे विज्ञान और मजहब या धर्म के तरीके बिलकुल जुदा है और बहुत हृद तक दोनों के माध्यम अलग-अलग है। यह जाहिर है कि हमारे गिर्द एक विस्तृत अनजाना प्रदेश है और विज्ञान के जो भी कारनामे हों, वह इसके बारे में कुछ नहीं जानता। हां, जानने की कोशिश में जरूर है। शायद विज्ञान के साधारण तरीके और यह बात कि उसका संबंबव दृश्य जगत और उसको क्रियाजों से है, उसे उन बातों में पूरी तरह कारगर न होने दें, जो आत्मिक, कलात्मक, आध्यात्मिक और अदृश्य जगत से संबंध रखनेवाली हैं। जो हम देखते, सुनते और अनुभव करते हैं, यानी दिखाई पड़नेवाली और समय और अंतरिक्ष के भीतर परिवर्तनशील दुनिया तक ही जिगी महदूद नहीं है। यह बराबर स्पर्श कर रही है एक अनदेखी दुनिया को, जिसमें दूसरे संभवतः ज्यादा टिकनेवाले या उतने ही परिवर्तनशील तत्त्व है और कोई विचारवान आदमी इस अनदेखी दुनिया की अवहेलना नहीं कर सकता।

विज्ञान हमें जिदगी के महद के बारे में ज्यादा नहीं बताता, सच पूछिये, तो कुछ भी नहीं बताता। यह अब अपनी सीमा को फैला रहा है और मुमकिन है कि बहुत जल्द उस संसार परवा बोते, जिसे हम अदृश्य संसार कहते रहे हैं। और इस तरह यह विस्तृत अर्थ में जिदगी के महमद को समझने में हमारी मदद करे, याम-ऐगीत दे, जिससे इन्सान के अस्तित्व या बदके मसले पर न पड़े। पर्म और विज्ञान के बीच का पुराना भगड़ा एक नया चारण करता है यानी विज्ञान के तरीकों को पामिक और मानव पर लागू करता है। धर्म का रहस्यवाद, विभीतिकवाद और हितसर्फ से मेल है। बड़े- बड़े सूफी जरूर हो गए है, जिनकी हिमवतों में कशिश रही है. जिन्हें हम यह कहकर नहीं टाल सकते कि वे अपने को तवे में डाले हुए बेवकूफ में। फिर भी रहस्यवाद को संकुचित बर्ष में लीजिये, तो उसने मुझे खीभ होती है। यह एक अस्पष्ट, डीली और गिलगिली चीज जान पड़ती है; इसके पीछे मन का कठोर संयम नहीं, बल्कि मानसिक शक्तियों का त्याग है और यह भावात्मक अनुभव के समंदर में रहना है। यह अनुभव कभी-कभी ऐसी क्रियाओं के बारे में, जो मोतरी हैं और कम जाहिर हैं, कुछ ज्ञान दे सकता है, लेकिन इसके जरिये आदमी अपने को भुलाबे में भी डाल सकता है।

आधिभौतिकता और फ़िलसफ़ा या आधिभौतिक फ़िलसफा ये चीजें दिमाग को ज्यादा रुचिकर होती हैं। उनके लिए कठिन विचार और तर्क और दलील आवश्यक हैं, अगरचे ये लाजिमी तौर पर कुछ ऐसी बारणाओं के सहारे पर टिकी होती हैं, जिन्हें स्वतः सिद्ध मान लिया जाता है, लेकिन जो ठोक भी हो सकती हैं और नहीं भी। सभी विचारवान लोग कमोवेश आधिमोतिक-वाद और फ़िलसफ़े चक्कर में पड़ते हैं, क्योंकि ऐसा न करना अपने इस विश्व के बहुत-से पहलुओं से आंख मूंदना है। कुछ लोग औरों की बनिस्बत इस तरफ़ ज्यादा खिचते हैं और इन विषयों पर जो जोर दिया जाता है, उसमें अलग-अलग युगों में फ़र्क़ हो सकता है। पुरानो दुनिया में, यूरोप और एशिया, दोनों जगह बाहरी चोजों के मुकाबले में अंदरूनी जिदगी पर ज्यादा जोर दिया था और यह लाजिमी तीर पर उन्हें आधिमीतिकवाद और फ़िलसफ़े को ओर ले जाता था। आज का आदमी भी इन बाहरी चीजों में ज्यादा गर्क है, लेकिन वह भी नाजुक वक़्तों में और मानसिक तकलीफ़ के मौके पर अकसर आविभीतिकवाद और फ़िलसफ़े की तरफ़ झुकता है।

जिदगी के मुताल्लिक़ हम सभी का कुछ-न-कुछ फिउसफ़ा होता है, बह महज घुबला हो या किसी हद तक स्पष्ट, अगरचे हममें से ज्यादातर बिना खुद सोचे-विचारे अपनी पौड़ी या आस-पास के विचारों को ग्रहण कर लेते हैं। हममें से बहुतेरे जिस विश्वास में भो पले हों, उसके कुछ आधि- भौतिक खवालों को मान लेते हैं। आधिभौतिकवाद मेरे लिए कोई कशिश नहीं रखता, सच पूछिये तो अस्पष्ट कल्पना के लिए मुझमें अरुचि रही है, फिर भी पुरानी और नई आधिमोतिक और फ़िलसफ़ियाना विचार-धारा को समझने की कोशिश में कभी-कभी कुछ दिमाग़ो मजा आया है। लेकिन यह काम मेरी पसंद का नहीं है, और मुझे उसके चक्कर से बच निकलने में ही चैन मिला है।

असल में मेरी दिलचस्पी इस दुनिया में और इस जिंदगी में है, किसी दूसरी दुनिया या आनेवाली जिदगी में नहीं। आत्मा-जैसी कोई चीज है भी या नहीं, मैं नहीं जानता। और अगरचे ये सवाल महत्त्व के हैं, फिर भी इनकी मुझे कुछ मी चिता नहीं। जिस वातावरण में मैं वचपन से पला हूं, उसमें आत्मा और भविष्य की जिदगी, कार्य-कारण का कर्म-सिद्धांत और पुनर्जन्म, ये मान ली गई चीजें हैं। मुझ पर इनका असर पड़ा है, इसलिए एक मानी में इन सिद्धांतों को तरफ मेरे भाव अनुकूलता के हैं। शरीर के भौतिक विनाश के बाद हो सकता है कि आत्मा बनी रहती है और जिंदगी के कामों में कार्य-कारण का सिद्धांत लागू होता है, यह बात तर्कपूर्ण जान पड़ती है, अगरचे हम मूल कारण पर ध्यान दें, तो यह सिद्धांत जाहिरा तौर पर कठिनाइयां भी पैदा करता है। यह मान लिया जाय कि आत्मा है, तो पुनर्जन्म के सिद्धांत में भी कुछ दलील जान पड़ती है।

लेकिन इन सिद्धांतों और मानी हुई बातों में मेरा यक़ीन कोई मजहबी तौर पर नहीं है। ये तो एक अनजाने प्रदेश के बारे में दिमाग्री अटकल की बातें हैं, जो मेरी जिदगी पर असर नहीं डालती और आगे चलकर ये सच्ची साबित होती है या रद्द कर दो जाती हैं, मेरे लिए यक-सां है।

प्रेत-विद्या, जिसके जरिये रूहों के बुलाने का दिखावा होता है और इस क्रिस्म के और घंबे मुझे कुछ बेतुके-से जान पड़ते हैं। आध्यात्मिक बातों बऔर जिदगी के बाद के रहस्यों के जानने का यह एक गुस्ताख ढंग है। आमतौर पर यह इससे भो बुरी चीज होती है और कुछ ऐसे सीधे-सादे लोगों को-जो दिमाग्र पर जोर नहीं डालना चाहते या यों शांति पाना चाहते है-मावुकता से फायदा उठाने की कोशिश होती है। मुमकिन है कि इन आध्यात्मिक व्यापारों में कुछ सचाई का अंश हो । मैं इससे इन्कार नहीं करता । लेकिन जो रास्ता अख्तियार किया जाता है, वह मुझे कतई गलत मालूम पड़ता है और इधर-उधर के टुकड़ों को सबूत के तौर पर जोड़कर जो नतीजा निकाला जाता है, वह वाजिब नहीं होता है।

अकसर जब मैं इस दुनिया को देखता हूँ, तो मुझे रहस्यों का, अनजानी गहराइयों का, आभास मिलता है। जहांतक हो सके, इन्हें समझने की प्रेरणा मुझमें पैदा होती है; और यही नहीं, यह प्रेरणा भी होती है कि इनसे तन्मय होकर इनकी पूर्णता का अनुभव करूं। लेकिन इन्हें जान सकने का तरीका मेरी समझ में विज्ञान का ही तरीक़ा हो सकता है, यानी वह, जिसमें चोजों की जांच तटस्थ होकर की जाती है। यों मैं मानता हूं कि पूरी तटस्थता मुमकिन नहीं, लेकिन अगर आत्मगत अंश बचाया नहीं जा सकता, तो जहां- तक हो सके, उसका वैज्ञानिक ढंग से आना ठीक है।

रहस्यमय क्या है, यह मुझे नहीं मालूम। मैं उसे ईश्वर नहीं कहता, क्योंकि ईश्वर का अर्थ बहुत-कुछ इस तरह का लगाया जाता है, जिसमें मुझे विश्वास नहीं। मैं अपने को इस बात के लिए नाक़ाबिल पाता हूं कि किसी देवता या अनजानी महान शक्ति की कल्पना साकार रूप में करूं और जब बहुत-से लोग बराबर ऐसा करते हुए दिखाई देते हैं, तो मुभी बड़ी हैरत होती है। एक शख्सी सूरत में ईश्वर का खयाल मुझे बड़ा अटपटा जान पड़ता है। अक़ली तौर पर मैं कुछ हद तक एकेश्वरवाद के विचार को समझ सकता हूं, और अगरचे मुझे इस बात का दावा नहीं कि मैं वेदांत के अद्वैत मत की सभी बारीकियों और गहराइयों को जानता हूं, फिर भी मेरा उसकी तरफ सिचाव रहा है। मैं मानता हूं कि बौद्धिक जानकारी इस तरह की बातों में हमें दूरतक नहीं ले जाती। साथ ही वेदांत और इसके-जैसे और रास्ते अनंत की अनिश्चित और गोल बातों से मुझे डरा देते हैं। प्रकृति की विविधता और भरा-पूरापन मुझमें उत्साह पैदा करते हैं और उनसे मुझे आत्मिक शांति भी मिलती है, और मैं खयाल करता हूं कि पुराने हिंदुस्तान के लोगों या यूनानियों में मैं घुल-मिल सकता था-सिवाय इसके कि देव- ताओं की कल्पना, जो उनके साथ जुड़ी हुई है, वह मेरे माफ़िक़ न होती।

यह बात मुझे बहुत ही पसंद आती है कि जिंदगी की ओर हमारे गख का किसी-न-किसी तरह का नैतिक या इखलाक़ी आधार होना चाहिए। हां, दृळील से इसका समर्थन करना मेरे लिए मुश्किल होगा। गांधीजी सही साधनों पर जो जोर देते हैं, उनकी तरफ मेरा खिचाव रहा है और मेरा खयाल है कि हमारे सार्वजनिक जीवन के लिए गांधीजी की यह सबसे बड़ी देन है। यह खयाल नया तो नहीं है, लेकिन एक नैतिक सिद्धांत का सार्व- जनिक कामों के लिए इतने बड़े पैमाने पर बरता जाना यक़ीनी तौर पर एक अनूठी बात है। इस रास्ते में बड़ी दिक्कतें हैं, और शायद उद्देश्य और साधन एक-दूसरे से जुदा नहीं किये जा सकते, बल्कि दोनों मिलकर एक समूची वस्तु बनते हैं। एक ऐसी दुनिया में, जहां अकसर सिर्फ उद्देश्यों का खयाल किया जाता है और साघनों को नजर अंदाज किया जाता है, साधनों पर इतना जोर देना अनोखी और साथ ही ध्यान देनेवाली बात है। हिंदुस्तान में इसका प्रयोग कहांतक कामयाब रहा है, मैं नहीं कह सकता। लेकिन इसमें शक नहीं कि इसने बहुत बड़ी शुमार में लोगों पर गहरा और क़ायम रहनेवाला असर डाला है।

मार्क्स और लेनिन की रचनाओं के अध्ययन का मुझ पर गहरा असर पड़ा और इसने इतिहास और मौजूदा जमाने के मामलों को एक नई रोशनी में देखने में बड़ी मदद पहुंचाई। इतिहास और समाज के विकास के लंबे सिलसिले में एक मतलब और आपस का रिश्ता जान पड़ा और भविष्य का धुंधलापन कुछ कम हो गया। सोवियत यूनियन के अमली कारनामे कुछ कम बड़े न थे। कुछ बातें वहां जरूर ऐती दिखाई दीं, जिन्हें मैं नहीं पसंद कर पाता था या नहीं समझ पाता था और मुझे ऐसा मालूम हुआ कि वक़्ती बालों से फ़ायदा उठाने की या महज ताक़त के बल पर मक़सद हासिल करने की कोशिश से इसका ताल्लुक है। लेकिन ऐसी सूरत पैदा होने के बावजूद, और बावजूद इस बात के कि इब्तिदाई इन्सानो जज्बे के तोड़-मरोड़ को संभावना था, थो, इसमें मुझे शक नहीं रहा है कि सोवियत इन्क़लाब ने हमारे समाज को बल्लियों आगे बढ़ाया है और एक ऐसी चमकोली ज्योति पैदा की है, जिसे दवाकर बुझाया नहीं जा सकता; और यह कि इसने एक ‘नई तहजीब’ की, जिसको तरफ़ दुनिया का तरक्की करना लाजिमी है, बुनियाद डाली है। मैं इस तरह को व्यक्तिवादो और शरुती आजादी मैं यक़ीन करनेवाला आदमी हूं और बहुत ज्यादा बंदिशें पसंद नहीं कर सकता। फिर भी मुझे यह जाहिर सी बात जान पड़ी कि एक पेचीदा सामा- जिक संगठन में शख्सी आजादी को महदूद करना पड़ता है, और शायद सच्ची शख्ती आजादी के हक में यह लाजिमी है कि समाज के दायरे में कुछ इस तरह की हवें बनाई जायें। एक बड़ी आजादी की खातिर छोटी आजादियों पर अकसर रोक लगाने को जरूरत पड़ती है।

मार्क्सवाद के दार्शनिक दृष्टिकोण में बहुत कुछ ऐसा है, जिसे मैं बगैर दिक़्क़त के मान सकता हूं- उसमें बताई गई जड़ और चेतन को एकता या अद्वैत को; जड़ की गतिशीलता को विकास-क्रम से या सहसा उपस्थित होनेवाले निरंतर परिवर्तन के द्वंद्व को; और क्रिया और प्रतिक्रिया, कारण और उत्पत्ति, प्रतिपत्ति, विरोव और समन्वय के जरिये होनेवाले ढूंढ को। फिर भी इससे मेरा पूरी तरह इतमोनान न हुआ। न इसने उन सब बातों का हल पेश किया, जो मेरे दिमाग में थीं। और मेरे दिमाग में, एक अस्पष्ट आदर्शवादो रास्ता, मानो अनजान में, दिखाई पड़ने लगा। यह रास्ता, कुछ वेदांत के मार्ग-जैसा था। जड़ और चेतन के मेद का ही यह मसला न था, बल्कि कुछ ऐसी चीज थी, जो दिमाग से परे थी। फिर एक नैतिक पृष्ठभूमि का भी सवाल था। मैंने यह भी समझा कि इखलाक यानी नोति का रास्ता एक बदलता हुआ रास्ता है और यह विकास पाते हुए दिमाग और तरक्की करती हुई सभ्यता पर निर्भर करता है। यह युग की मानसिक अवस्था का है। लेकिन इसमें कुछ और बातें भी थीं; यानी कुछ बुनियादो प्रेरणाएं, जो दोनों के मुकाबले में ज्यादा पायदार थीं। मैं कम्युनिस्टों और औरों के व्यवहार में, उनके कामों और इन बुनियादी प्रेरणाओं या सिद्धांतों के बीच जो अलगाव देखता था, उसे पसंद नहीं करता था। इसलिए मेरे दिमाग में कुछ ऐसा गड्डमड्ड हो गया कि मैं उसे बुद्धि द्वारा स्पष्ट या हुल नहीं कर पाता था। एक आम प्रऋत्ति यह थी कि इन बनियादी सवालों पर, जो अपनी पहुंच के बाहर के जान पड़ते है, सोचा-विचारा न जाय, बल्कि जिदगी के उन प्रश्नों पर ध्यान दिया जाय, जो हमारे सामने आतें हैं और उनके बारे में क्या और किस तरह करना चाहिए यह सोचा जाय । आखिर असलियत जो भी हो, और उसे पूरी तौर पर या कुछ अंगों में हम हासिल कर नके या नहीं, यह तय है कि मनुष्य ज्ञान को, चाहे वह आत्मगत ही क्यों न हो, वढ़ाने की और इन्सानी रहन-सहन और सामाजिक संगठन के सुधारने और उसे आगे बढ़ाने की बड़ी संभावना फिर भी रह जाती है।

गुजरे जमाने के लोगों में, और किसी हद तक इस जमाने के लोगों में भी, विश्व की पहेली का उत्तर ढूंढ़ निकालने में लगे रहने की प्रवृत्ति रही है। यह उन्हें आजकल के जाती और समाजिक मसलों से अलग के जाती है। और जब वे इस पहेली का हल नहीं पाते, तब वे मायूस हो जाते है और या तो हाथ-पर-हाथ रखकर बैठ रहते हैं, या बहुत छोटी-छोटी बातों में अपना वक़्त जाया करते है, या फिर किसी हठवादी मत में शरीक होकर अपनी तसक्रीन करते हैं। सामाजिक बुराइयों को, जो ज्यादातर निश्चय ही दूर की जा सकती हैं, पुराने पाप का नतीजा बताया जाता है, या इस तरह कहा जाता है कि इन्सान की प्रकृति या समाज का संगठन ही ऐसे हैं कि उन्हें बदला नहीं जा सकता, या (हिंदुस्तान में) इन्हें पूर्व-जन्म के कर्मों पर मढ़ दिया जाता है। इस तरह आदमी अक्ल और वैज्ञानिक ढंग से विचार करने से दूर रहा, वह अविवेक, अंधविश्वास, बेजा हठ और सामाजिक व्यवहार की शरण लेता है। यह सही है कि अक्ल और वैज्ञानिक विचार भी हमेशा वहांतक नहीं पहुंचाते, जहांतक हम जाना चाहेंगे। घटनाओं के मूल में न जाने कितने कारण और संबंध हुआ करते हैं और उन सबको समझ पाना मुमकिन नहीं, फिर भी उनके पीछे जो खास-खास ताकतें काम करती हैं, उन्हें हम चुन सकते हैं और बाहरी भौतिक तथ्य पर गौर करके और प्रयोग और व्यवहार के जरिये तजुरबे करते हुए और ग़लती करते हुए, टटोल- टटोलकर ज्ञान और सचाई का रास्ता पा सकते हैं।

इस काम के लिए और इन हदों के भीतर साधारण मार्क्सवादी रास्ता, चूंकि वह आज के विज्ञान की जानकारी के अनुकूल पड़ता था, मुझे बहुत सहायक जान पड़ा। लेकिन इस रास्ते को कुबूल करते हुए भी उससे जो नतीजे निकलते हैं, वे, और गुजरे जमाने की और हाल की घटनाओं की उसकी व्याख्या, हमेशा साफ़ न हो पाती। मार्क्स का समाज का साधारण विश्लेषण अद्भुत रूप से सही जान पड़ता है, लेकिन वाद के विकास में जो सूरतें उसने अख्तियार कीं, वे वैसी नहीं हैं, जैसाकि निकट भविष्य के लिए उसने अनुमान किया था। लेनिन ने मार्क्स की प्रतिपत्ति को इन बाद के विकासों पर कामयाबी से लागू किया, लेकिन तबसे और भी परिवर्तन हुए है-जैसे फ़ासिस्त और नात्सी-मतों का और उनके साथ लगी हुई सभी बातों का, सामने आना। तकनीक या यंत्र-विज्ञान की तेजी से होनेवाली तरक्की और विस्तार के साथ विज्ञान की नई जानकारी के प्रयोग दुनिया का नक़शा ही बड़ी तेजी से बदल रहे हैं और इसके साथ नये मसले खड़े हो रहे हैं।

इसलिए अगरचे मैंने समाजवादी सिद्धांत की बुनियादी बातों को कुबूल कर लिया, फिर भी मैं उसके अनगिनत भीतरी मुबाहसों के फेर में नहीं पड़ा। हिंदुस्तान के गरम दलों से, जो अपनी शक्ति का बहुत हिस्सा आपस के झगड़ों में या बारीकियों को लेकर आफ्स के बुरा-भला कहने में सफ़ करते हैं, मेरी बिलकुल न पट सकी। इन बातों में मेरी जरा भी दिलचस्पी नहीं है। जिदगी इतनी जटिल है और जहां तक हम अपने मौजूदा ज्ञान के आधार पर समझ सकते हैं, इतनी तर्क-हीन है कि हम उसे किसी बंधे हुए सिद्धांत की कैद में नहीं ला सकते ।

मेरे सामने जो असली मसले रहे हैं, वे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के हैं- किस तरह शांति के साथ रहा जाय, व्यक्ति की बाहरी और भीतरी जिंदगी में कैसे संतुलन हो, व्यक्तियों और दलों के बीच के संबंध किस तरह स्थिर किये जायं, किस तरह निरंतर अच्छी और ऊंची स्थिति हासिल की जाय, किस तरह समाज का विकास किया जाय और इन्सान के अनयक जोवट और साहस का मसला। इन मसलों के हल के लिए निरीक्षण, ठीक-ठीक ज्ञान और विज्ञान के तरीक़ों के मुताबिक़ पूरी-पूरी दलील का सहारा लेना चाहिए। सत्य की खोज में ये तरीके मुमकिन हैं कि हमेशा कारगर न हों, क्योंकि कविता और कला और कुछ आत्मिक अनुभव, ये ऐसे विषय हैं, जो एक दूसरे ही वर्ग के हैं और विज्ञान के तरीके से, जो पदार्थों की जांच पर अवलंबित हैं, ग्रहण नहीं किये जा सकते। इसलिए सहज ज्ञान और सचाई और असलियत को खोजने के दूसरे तरीक़ों को अलग नहीं किया जा सकता। विज्ञान के मैदान में भी इनकी जरूरत पड़ती है; फिर भी हमें हमेशा वस्तुगत ज्ञान के लंगर को पकड़े रहना चाहिए, ऐसे ज्ञान के लंगर को, जिसकी जांच बुद्धि द्वारा और उससे भी बढ़कर अनुभव और व्यवहार के द्वारा हो चुकी है; और हमें होशियार इस बात से रहना चाहिए कि हम ऐसी बातों के मनन के समुंदर में न खो जायं, जिनका ताल्लुक हमारी रोजमर्रा की जिदगी और उसके मसलों और इन्सान की जरूरतों से नहीं है। एक जिदा फिलसफ़े को ऐसा होना चाहिए कि यह आज के मसलों का हल पेश कर सके ।

यह हो सकता है कि हम लोग, जो इस जमाने के हैं, और जो अपने जमाने के कारनामों पर इतना नाज करते हैं, अपने युग के उसी तरह से गुलाम हों, जिस तरह कि पुराने और मध्य-युग के मर्द और औरत अपने युगों के गुलाम थे। हम अपने-आपको इस बात का धोखा दे सकते हैं, जिस तरह हमसे पहले के लोगों ने अपने को धोखा दे रखा था कि दुनिया की बातों पर हमारा हो नजरिया सही और सचाई तक पहुंचानेवाला नजरिया है। हम इस कैद से बच नहीं सकते, न इस माया-जाल से अगर इसे माया-जाल कहें- छुटकारा पा सकते हैं।

फिर भी मुझे यक़ीन है कि इतिहास के लंबे दौरमें और सब चीजों के मुक़ाबले में विज्ञान के तरीकों और रास्ते ने इन्सानी जिंदगी में सबसे ज्यादा इन्कलाब पैदा किया है और आदमी की तरक्की के और भी बड़े-बड़े इन्कलाब के रास्ते खोल दिए हैं; यहांतक कि जिसे अज्ञात समझा जाता रहा है, उसके दरवाजे तक हम पहुंच गए हैं। शिल्प और व्यवसाय के क्षेत्र में विज्ञान के कारनामे काफ़ी तीर पर जाहिर हो चुके हैं; जहां कहत को हालत थी, वहां इसने उसे बहुतायत और खुशहाली में में तबदील कर दिया है, और अब तो बहुत-से उन मसलों पर विज्ञान ने हमला करना शुरू कर दिया है, जो फ़िलसफ़ के मैदान के समझे जाते थे। देश-काल और ‘क्वांटम’ सिद्धांत ने भौतिक जगत का नक़शा ही पूरे तौर पर बदल दिया है। एटम या परमाणु की बनावट, तत्त्वों के परिवर्तन, विद्युत और प्रकाश के एक-दूसरे में बदले जाने आदि विषयों पर हाल की शोधों ने हमारी जानकारी को बहुत आगे बढ़ाया है। मनुष्य अब प्रकृति को अपने से जुदा और भिन्न रूप में नहीं देखता । मनुष्य की नियति प्रकृति की लय-मयी शक्ति का एक अंग बन ग है; और हमें होशियार इस बात से रहना चाहिए कि हम ऐसी बातों के मनन के समुंदर में न खो जायं, जिनका ताल्लुक हमारी रोजमर्रा की जिदगी और उसके मसलों और इन्सान की जरूरतों से नहीं है। एक जिदा फिलसफ़े को ऐसा होना चाहिए कि यह आज के मसलों का हल पेश कर सके ।

यह हो सकता है कि हम लोग, जो इस जमाने के हैं, और जो अपने जमाने के कारनामों पर इतना नाज करते हैं, अपने युग के उसी तरह से गुलाम हों, जिस तरह कि पुराने और मध्य-युग के मर्द और औरत अपने युगों के गुलाम थे। हम अपने-आपको इस बात का धोखा दे सकते हैं, जिस तरह हमसे पहले के लोगों ने अपने को धोखा दे रखा था कि दुनिया की बातों पर हमारा हो नजरिया सही और सचाई तक पहुंचानेवाला नजरिया है। हम इस कैद से बच नहीं सकते, न इस माया-जाल से अगर इसे माया-जाल कहें- छुटकारा पा सकते हैं।

फिर भी मुझे यक़ीन है कि इतिहास के लंबे दौरमें और सब चीजों के मुक़ाबले में विज्ञान के तरीकों और रास्ते ने इन्सानी जिंदगी में सबसे ज्यादा इन्कलाब पैदा किया है और आदमी की तरक्की के और भी बड़े-बड़े इन्कलाब के रास्ते खोल दिए हैं; यहांतक कि जिसे अज्ञात समझा जाता रहा है, उसके दरवाजे तक हम पहुंच गए हैं। शिल्प और व्यवसाय के क्षेत्र में विज्ञान के कारनामे काफ़ी तीर पर जाहिर हो चुके हैं; जहां कहत को हालत थी, वहां इसने उसे बहुतायत और खुशहाली में में तबदील कर दिया है, और अब तो बहुत-से उन मसलों पर विज्ञान ने हमला करना शुरू कर दिया है, जो फ़िलसफ़ के मैदान के समझे जाते थे। देश-काल और ‘क्वांटम’ सिद्धांत ने भौतिक जगत का नक़शा ही पूरे तौर पर बदल दिया है। एटम या परमाणु की बनावट, तत्त्वों के परिवर्तन, विद्युत और प्रकाश के एक-दूसरे में बदले जाने आदि विषयों पर हाल की शोधों ने हमारी जानकारी को बहुत आगे बढ़ाया है। मनुष्य अब प्रकृति को अपने से जुदा और भिन्न रूप में नहीं देखता । मनुष्य की नियति प्रकृति की लय-मयी शक्ति का एक अंग बन गई है।

विज्ञान की तरक़्क़ी के कारण, विचार-संबंधी इस लथल-पुथल ने वैज्ञानिकों को एक ऐसे प्रदेश तक पहुंचा दिया है, जिसकी सीमाएं आधिभौतिक प्रदेश से मिली हुई हैं। वे मुख्तलिफ़ और अकसर विरोधी परिणामों पर पहुंचते हैं। कुछ को इस परिस्थिति में एक नई एकता दिखाई देती है, जो इस सिद्धांत के बिलकुल वरखिलाफ़ पड़ती है। कुछ और लोग हैं, जैसे बट्रॅड रसेल, जो कहते हैं- “पार्मनीडिस के समय से एकेडेमिक वर्ग के फ़िलसूफ़ बराबर इस बात में यकीन रखते आये हैं कि दुनिया एकता के सिद्धांत पर बनी है; मेरे विश्वासों में से सबसे बुनियादी विश्वास यह है कि इस तरह खयाल करना महद्ध   वेवकूफ़ी है।” या फिर लीजिये- “आदमी उन कारणों की उपज है, जिन्हें इस बात का कोई पूर्व-ज्ञान नहीं कि वे किस अंत की ओर जा रहे हैं; उसकी उत्पत्ति और वृद्धि, उसकी आशाएं और उसके भय, उसके प्रेम और विश्वास परमाणुओं के आकस्मिक मेल का नतीजा हैं।” लेकिन भीतिक-शास्त्र की नई-से-नई शोधों ने बहुत हद तक प्रकृति की बुनियादी एकता साबित कर दी है। “यह यक्रीन कि सभी वस्तुएं, एक ही पदार्थ से बनी हैं, बहुत पुराना है और तब का है जब से आदमी ने विचार करना शुरू किया है। लेकिन हमारी ही पीढ़ी एक ऐसी पीढ़ी है, जिसने इतिहास में सबसे पहले प्रकृति की एकता को देखा है-एक वे-बुनियाद अक़ीदे या नामुमकिन-सी आरजू की सूरत में नहीं, बल्कि विज्ञान के एक सिद्धांत के रूप में, जिसके सबूत इतने साफ़ और जाहिर हैं, जितने कि किसी जानी हुई चीज के हो सकते हैं।””

इस तरह का विश्वास अग्रगरचे एशिया और यूरोप में बहुत पुराना है, फिर भी विज्ञान के कुछ नये-से-नये नतीजों का उन बुनियादी विचारों से मुक़ाबला, जो अद्वैत वेदांत की तह में हैं, दिलचस्प होगा। वह विचार यह है कि विश्व एक ही द्रब्य से बना है, जिसका रूप निरंतर बदलता रहता है और यह कि शक्तियों का कुल जोड़ सदा एक समान बना रहता है। यह भी कि ‘वस्तुओं की व्याख्या उन्हींकी प्रकृति में निहित है, और इस विश्व में क्या हो रहा है, इसे समझाने के लिए बाहरी अस्तित्वों का सहारा लेना जरूरी नहीं, और इन विचारों का हासिल यह है कि विश्व स्वतः विकासशील है।’, ( ‘कालं के० डैरो : ‘दि रिनेजां ऑव फ़िजिक्स’ (न्यूयार्क, १९३६) पृष्ठ ३०१।)

ये अस्पष्ट मनन आदमी को किस नतीजे पर पहुंचाते हैं, इसकी विज्ञान परवा नहीं करता। इस बीच में अपने खास प्रयोगात्मक ढंग से जांच करते हुए, ज्ञान के नक़्शे की हदों को बढ़ाते हुए और इस तरह इन्सानी जिंदगी की रविश को बदलते हुए, वह आगे बढ़ रहा है। हो सकता है कि वह मूल रहस्यों को ढूंढ़ निकालने के नजदीक पहुंच गया हो, और यह भी हो सकता है कि इन रहस्यों को वह न भी खोल पाये। फिर भी वह अपने निश्चित रास्ते पर आगे बढ़ता जायगा, क्योंकि इसकी यात्रा का अंत नहीं है। फ़िलसफ़े का प्रश्न है ‘क्यों ?’,  इसे वह नजर अंदाज करके ‘कैसे ?’, यह पूछता रहेगाऔर ज्यों-क्यों उश पर रहस्य का और खुलता रहेगा, उसके अधीजिवी सवाल का जवाब देने में भी कुछ तक बहार हो। या शायद हम इस दीवार की पार कर सकें और रहस्यमयरहस्यमय ही बना रह जाय, और जिदग। अपनी तमाम तवदीलियों के साथ अच्छाई और दराई का एक बंडल संघों का एक तांता और बेमेल और विरोधी प्रेरणाओं का एक अजीब-ओ-गरीब मजमुआ बनी रहे।

या फिर मुमकिन है कि विज्ञान की तरक्की ही नैतिक संयमों की लीड़ कर, दशक्ति और विनाश के उन भयानक साधनों को, जिन्हें उसने तैयार किया है, बरे और स्वार्थी लोगों के हाथों में केंद्रित कर दे-ऐसे लोगों के हाथों में, जो दूसरों पर अधिकार करने की कोशिस में रहते हैं और इस तरह अपने बड़े कारनामों का खुद खात्मा कर दे। इस तरह की कुछ बातें हम आजकल घटित होती हुई देखते हैं, और इस युद्ध के पीछे है मनुष्य की आत्मा का भीतरी संघर्ष ।

मनुष्य की आत्मा भी कैसी अद्भुत है। अनगिनत कमजोरियों के बावजूद आदमी ने, सभी युगों में, अपने जीवन की और अपनी सभी प्रिय वस्तुओं की, एक आदर्श के लिए, सत्य और विश्वासों के लिए, देश और इज्जत के लिए कुरबानी की है। यह आदर्श बदल सकता है, लेकिन कुरबानी की यह भावना बनी हुई है और इसीकी वजह से हम इन्सान की बहुत-सी कमजोरियों को माफ़ कर सकते हैं और उसकी तरफ से मायूस नहीं होते। आफ़तों का सामना करते हुए भी उसने अपनी धान निभाई है, जिन भीजी की यह कीमत करता रहा है, उनमें अपना विश्वास कायम रखा है। प्रकृति की महान शक्तियों के कठपुतले, जिसकी हरती इस बड़े विश्व में धूल के एक कण से प्यादा नहीं, मनुष्य ने मौलिक शक्तियों की ललकारा है और अपनी अक्ल के जरिये, जो इन्कलाब का पालना रहा है, उन्हें अपने वश में करने की कोशिश की है। देवता लोग जैसे भी हीं, मनुष्य में कोई बात देवता-जैसी जरूर है उसी तरह, जिस तरह कि उसमें कुछ शैतान-जैसी भी बात है।

भविष्य अंधेरा है, अनिश्चित है। लेकिन उस तक पहुंचनेवाले रास्ते का हम एक हिस्सा देख सकते हैं और यह याद रखते हुए कि चाहे जी बीते, मनुष्य की आत्मा, जिसने इतने संकटों की पार किया है, दवाई नहीं जा सकती, हम उस पर साबित क़दमी से चल सकते हैं। हमें यह भी याद रखना है कि जिदगी में चाहे जितनी बुराइयां हों, आनंद और सौदर्य भी है और हम सदा प्रकृति की मोहिनी वन-भूमि में सैर कर सकती हैं।

ज्ञान इसके सिवा क्या है? क्या है मनुष्य का प्रयास या ईश्वर की अनुकंपा, जो इतनी सुंदर और विशाल है ? भय से मुक्त होकर खड़े रहना; सांस लेना और प्रतीक्षा करना; घृणा के विरुद्ध हाथ उठाये रहना : फिर क्या सौंदर्य सदा प्यार करने की वस्तु नहीं है ?’

जारी —

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