हिंदुस्तान की कहानी’ पंडित जवाहरलाल नेहरू की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय कृतियों में से है। यह पुस्तक विश्वविख्यात ‘दि डिस्कवरी ऑव इंडिया’ का अनुवाद है। हम उनकी पुस्तक हिन्दुस्तान की कहानी को धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है धारावाहिक में छोटे आलेख पाठकों को पसंद आयेंगे और वे इस तरह नेहरू के हिन्दुस्तान को पूरा पढ़ पायेंगे। हमें आपकी प्रतिक्रिया और सुझावों का इंतजार रहेगा ताकि हम और बेहतर कर सकें। आज पुस्तक का चैप्टर चैप्टर :३: तलाश -भाग २ : राष्ट्रीयता और अंतर्राष्ट्रीयता
२ : राष्ट्रीयता और अंतर्राष्ट्रीयता
इस तरह हिंदुस्तान के प्रति मेरी प्रतिक्रिया अकसर एक भावुक प्रति- क्रिया थी, और इसके साथ भी बहुत-सी शर्तें और सीमाएं थी। यह एक ऐसी प्रतिक्रिया थी, जो राष्ट्रीयता की शक्ति अख्तियार करती है, अगरचे जहांतक और लोगों का वास्ता था, ये पाबंद करनेवाली शत और सीमाएं गैर-हाजिर थीं। मेरे जमाने में हिंदुस्तान में राष्ट्रीयता की भावना का होना एक अनिवार्य चीज थी, और है, क्योंकि हरएक गुलाम मुल्क के लिए आजादी की स्वाहिश पहली और सबसे बड़ी स्वाहिश होती है; और हिंदुस्तान में, जहां अपनी विशेषता और गुजरे हुए बड़प्पन पर लोगों को इतना नाज है, यह बात दुगनी सही है।
सारी दुनिया में होनेवाली हाल की घटनाओं ने इसे साबित कर दिया है कि यह खयाल गलत है कि अंतर्राष्ट्रीयता और जनता के आंदोलनों के आगे राष्ट्रीयता खत्म हो रही है। सच यह है कि राष्ट्रीयता की भावना लोगों में अब भी एक जोरदार भावना है और इसके साथ परंपरा, मिल-जुलकर रहने और सामान्य मकसद की भावनाएं जुड़ी हुई है। जबकि बीच के वर्ग के विचारशील लोग रफ्ता-रफ्ता राष्ट्रीयता की भावना से अलग छूट रहे हैं. या कम-से-कम समझते हैं कि हट रहे हैं, मजदूर पेशा लोगों के और जनता के आंदोलन, जी जानबूझकर अंतर्राष्ट्रीयता की नीव पर कायम हुए थे, अब राष्ट्रीयता की तरफ झुकते आ रहे हैं। और इस युद्ध के जारी होने में तो सब जगह और सभी को राष्ट्रीयता के जाल में इकेल दिया है। राष्ट्रीयता की इस अचरज-भरी उठान ने या यो कहिये कि एक नई ही में उसे देखने और उसकी अहमियत को जान लेने के कारण ने नये-नये मसले खड़े कर दिए है या पुराने मसलों की शक्ल बदल दी है। पुरानी और जमी हुई परंपराएं आसानी से हटाई या मिटाई नहीं जा सकती नाजूक तों में उठ बड़ी होती है और लोगों के दिमागों पर छा जाती हैं। और असर, जैसाकि हमने देखा है, जानबूझकर इस बात की कोशि होती है कि उनके जरिये लोगों को काम में लगने के लिए या कुरबानियों के लिए उकसाया जाय। पुरानी परंपराओं को बहुत हद तक कुबूल करना पड़ता है और उन्हें नये विचारों और नई हालतों के मुताबिक लाने के लिए उनमें हेरफेर करना पड़ता है। साथ ही नई परंपराओं का कायम करना भी जरूरी है। राष्ट्रीयता का आदर्श एक गहरा और मजबूत आदर्श है और यह बात नहीं कि इसका जमाना बीत चुका हो और आगे के लिए इसका महत्व न रह गया हो; लेकिन और भी आदर्श, जैसे अंतर्राष्ट्रीयता और श्रमजीवी वर्ग के आदर्श, जो मौजूदा जमाने की असलियतों की बुनियाद पर ज्यादा कायम है, उठ खड़े हुए है. और अगर हम दुनिया की कशमकश को बंद कर अमन कायम करना चाहते हैं, तो हमें इन जुदा-ज्दा आदशों के बीच एक समझौता कायम करना होगा, आदमी की आत्मा के लिए राष्ट्रीयता का जो आकर्षण है, इसका लिहाज करना पड़ेगा, चाहे उसके दायरे को कुछ सीमित ही करना पड़े।
अगर उन देशों में भी जहां नये विचारों और अंतर्राष्ट्रीय ताकतों का कोरदार असर पड़ा है, राष्ट्रीयता की भावना इतनी आम है, तो हिदुस्तान के लोगों के दिमागों पर उनका कितना ज्यादा असर होना लाजिमी है। कभी-कभी हमसे कहा जाता है कि हमारी राष्ट्रीयता इस बात की निशानी है कि हम लोग पिछड़े हुए लोग हैं और हमारे दिल संकुवित हैं। जो लोग हमसे इस तरह की बातें करते हैं, शायद उनका खयाल है कि अगर हम अंग्रेजी सल्तनत या कामनवेल्थ के भीतर एक छोटे हिस्सेदार की हैसियत कुबूल कर लें, तो सच्ची अंतर्राष्ट्रीयता की भावना की जीत होगी। वे यह समझने नहीं दिखाई पड़ते कि इस खास क़िस्म की, और महज नाम की अंत- र्राष्ट्रीयता एक संकुचित अंग्रेजी राष्ट्रीयता का फैलाव-भर है, और अगर हमने हिदुस्तान में अंग्रेजी राज्य के वे नतीजे न भी देखे होते, जो हमने देख लिये हैं, तो भी यह हमें पसंद नहीं आ सकती थी। फिर भी, राष्ट्रीयता की भावना चाहे कितनी ही गहरी हो, सच्ची अंतर्राष्ट्रीयता को कुबूल करने में बौर संसार-व्यापी संगठन और राष्ट्रीय संगठन के बीच मेल कराने, बल्कि राष्ट्रीय संगठन को संसार-व्यापी संगठन के मातहत रखने के मामले में हिंदुस्तान बहुत-सी और क़ौमों के मुक़ाबले में आगे बढ़ गया है।
जारी…..