भाषा का आधार – जवाहर लाल नेहरू

हमें हिदुस्तानी को उत्तर और मध्य भारत की राष्ट्रीय भाषा समझ कर विचार करना चाहिए। दोनों अलहदा-अलहदा विचार होना चाहिए । सर्वथा भिन्न हैं। इसलिए इन पर हिन्दुस्तानी के हिन्दी और उर्दू भी खास स्वर हैं। यह साफ है कि दोनों का आधार एक है, व्याकरण भी एक है और पोतों का कोप भी एक ही है। वास्तव में दोनों का उद्गम एक ही है। इतना होने पर भी इस समय दोनों में जो भेद हो गया है, वह भी विचारणीय है। कहा जाता है कि कुछ हद तक हिन्दी का श्राधार संस्कृत भौर उर्दू का फारसी है। इन दोनों भाषायों पर इस दृष्टिकोण से विचार करना कि हिन्दी हिन्दुओं की और उर्दू मुसलमानों की भाषा है, युक्तिसंगत नहीं है। उर्दू की लिपि को छोड़कर यदि हम केवल भाषा पर ही विचार करें तो मालूम पड़ेगा कि उर्दू हिन्दुस्तान के बाहर कहीं भी नहीं बोली जाती है। हां, उत्तरी भारत के बहुत से हिन्दुओं के घरों में वह बोली जाती है।

मुसलमानों के शासनकाल में फारसी राजदरबार की भाषा रही है। गुगल शासन के अन्त तक फारसी का इसी रूप में प्रयोग होता रहा तथा उत्तरी और मध्य भारत में हिन्दी बोली जाती रही। एक जीवित भाषा के नाते फारसी के बहुत से शब्द इसमें प्रचलित हो गये। गुजराती और मराठी में भी ऐसा ही हुमा। यह जरूर हुसा कि हिन्दी हिन्दी ही रही । राजदरबार में रहने वाले व्यक्तियों में हिन्दी प्रचलित रही; किन्तु उसमें इतना परिवर्तन हो गया कि वह लगभग फारसी जैसी हो गई। यह भाषा ‘देवता’ कहलाती थी। शायद मुगलों के शासन काल में मुगल-कैम्पों से ‘उर्दू’ शब्द प्रचलित हुया। यह शब्द हिन्दी का पर्यायवाची समझा जाता था। उर्दू शब्द से वही अर्थ समभा जाता था जो हिन्दी से। १८५७ के विद्रोह तक हिन्दी और उर्दू में लिगि को छोड़कर चौर कोई भेद नहीं था। यह तो सभी जानते हैं कि कई हिन्दी के प्रमुख कवि मुसलमान थे। गदर तक ही नहीं, बल्कि उसके बाद भी कुछ दिनों तक प्रचलित भाषा के लिए हिन्दी शब्द का प्रयोग किया जाता था। यह लिपि के लिए प्रयोग नहीं किया जाता था, बल्कि भाषा के लिए। जिन मुसलमान कवियों ने, अपने काव्य उर्दू-लिपि में लिखे, वे भी भाषा को हिन्दी ही कहा करते थे ।

१६ वीं सदी के आरम्भ के लगभग ‘हिन्दी’ और ‘उर्दू’ शब्दों के प्रयोग में कुछ फर्क होने लगा। यह फर्क धीरे-धीरे बढ़ता गया । शायद यह फर्क उस राष्ट्रीय जागृति का प्रतिविम्व था, जो कि हिन्दुओं में हो रही थी। उन्होंने परिष्कृत हिन्दी और देवनागरी की लिपि पर जोर दिया। प्रारंभमें उनकी राष्ट्रीयता का स्वरूप एक प्रकार से हिन्दू राष्ट्रीयता ही था। आरम्भ में ऐसा होना अनिवार्य भी था। इसके कुछ दिनों बाद मुसलमानों में भी धीरे-धीरे जागृति पैदा हुई। उनका राष्ट्रीयता का स्वरूप भी मुस्लिम राष्ट्रीयता ही था ।

इस तरह से उन्होंने उर्दू को अपनी भाषा समझना शुरू कर दिया । अपनी लिपियों के बारे में वाद-विवाद होने लगा और यह भी मतभेद का एक विषय बन गया कि अदालतों और सरकारी दफ्तरों में किस लिपि का प्रयोग किया जाय। राजनैतिक और रराष्ट्रीय जागृति का ही यह परिणाम या कि भाषा की लिपि के विषय में मतभेद हुषा। आरम्भ में इसने साम्प्र-दायिकता का स्वरूप लिया। जैसे-जैसे यह राष्ट्रीयता वास्तविक राष्ट्रीयता का स्वरूप लेती गई, अर्थात् हिन्दुस्तान को एक राष्ट्र समझा जाने लगा और साम्प्रदायिकता की भावना दबने लगी, वैसे ही भाषा के सम्बन्ध में इस मत-भेद को समाप्त करने की इच्छा बढ़ती गई। बुद्धिहीन व्यक्तियों ने उन अनगिनत बातों पर प्रकाश डालना शुरू कर दिया, जो हिन्दी और उर्दू दोनों में ही दिखाई देती थीं। इस बात की चर्चा होने लगी कि हिन्दु-स्तानी उत्तरी और मध्य भारत की ही नहीं, बल्कि समस्त देश की राष्ट्र-‘भाषा है। खेद की बात है कि भारत में अभी तक साम्प्रदायिकता का जोर है, अतः वह मत-भेद भी एकता की मनोवृति के साथ-साथ अभी तक मौजूद है। यह निश्चय है कि जब राष्ट्रीयता का पूरा विकास हो जायगा तो यह मत-भेय स्वयं ही खत्म हो जायगा। हमें यह सच्छी तरह जान लेना चाहिए कि तभी हम समझ सकेंगे कि इस बुराई की जड़ क्या है। धाप किसी भी ऐसे बाक्ति को ले लीजिए जो इस मत-भेद से सम्बन्ध रखता हो। उसके बारे में खोज कीजिए तो आपको पता चलेगा कि वह सम्प्रदायवादी और सम्भवतः राजनैतिक प्रतिक्रियावादी है। यद्यपि मुरानों के शासन काल में हिन्दी और उर्दू दोनों का ही प्रयोग होता था; किन्तु उर्दू शल्य खास तौर से उस भाषा का चोतक था जो मुगलों की फौजों में बोली जाती थी। राज-दरबार और छावनियों के समीप रहने वालों में कुछ फारसी के शब्द भी प्रचलित थे घौर वही शब्द बाद में भाषा में भी प्रचिलित हो गरे। मुगलों के केन्द्र से दक्षिण की घोर चलते जाइए तो मालूम होता कि उर्दू शुद्ध हिन्दी में मिल गई। देहातों की बनिस्बत नगरों पर ही बदालतों का यह असर पड़ा और नगरों में भी मध्यभारत के नगरों की बनिस्वत उत्तरी भारत में और भी ज्यादा असर पड़ा।

इससे हमें पता चलता है कि आज की उर्दू और हिन्दी में क्या भेद है। उर्दू नगरों की और हिन्दी ग्रामों की भाषा है। हिन्दी नगरों में भी बोली जाती है, किन्तु उर्दू तो पूरी तरह से शहरी भाषा ही है।

उर्दू और हिन्दी को निकट लाने की समस्या का स्वरूप बहुत बड़ा है, क्योंकि इन दोनों को समीप लाने का अर्थ शहरों और गांवों को समीप लाना है। किसी और मार्ग का अवलम्बन करना व्यर्थ होगा और उसका असर भी स्थिर न होगा। यदि कोई भाषा बदल जाती है तो उसके बोलने बाले भी बदल जाते हैं। उस हिन्दी और उर्दू में अधिक भेद नहीं है जो धामतौर पर घरों में बोली जाती है। साहित्यिक दृष्टि से जो भेद पैदा हो गया है वह भी पिछले चन्द बर्षों में ही हुया है। साहित्य का भेद बड़ा भयंकर है। कुछ लोगों का विश्वास है कि कुछ खास व्यक्ति ही इसके लिए जिम्मेदार हैं। इस प्रकार की कल्पना करना उचित नहीं है। इसमें सन्देह नहीं कि कुछ व्यक्ति ऐसे हैं जो इस भेद को बढ़ते देखकर प्रसन्न होते हैं, किन्तु जीवित भाषाओं की प्रगति इस ढंग से नहीं होती। कुछ व्यक्ति उन्हें अपने ढंग पर लाना भी चाहें तो नहीं ला सकते। इसके लिए हमें गंभीरता से विचार करना होगा। यद्यपि इस भेद का होना बड़ी बदकिस्मती की बात है; किन्तु फिर भी यह इस बात का द्योतक है कि भविष्य अच्छा ही है। हिन्दी और उर्दू दोनों ही भाषाधों में कुछ दिनों की स्थिरता के बाद फिर कुछ गति धाने लगी है और दोनों ही अपना मार्ग ढूंढ़ रही हैं। वे नवीन विचारों को प्रकट करने के लिए संघर्ष कर रही है, और पुराने मागों को छोड़कर एक नया स्वरूप धारण करती जा रही हैं। जहां तक नये विचार का सम्बन्ध है, वहां दोनों का ही शब्दकोष दरिद्र है; किन्तु दोनों ही अन्य भाषाओं से इस घभाव की पूर्ति कर सकती है। हिन्दी संस्कृत से और उर्दू फारसी से इस ग्रभाव को पूरा कर रही है। इस प्रकार जैसे-जैसे हम घरेलू भाषा को छोड़ कर अन्य भाषायों का सहारा लेते हैं, वैसे-वैसे यह भेद बढ़ता जाता है। साहित्यिक संस्थाएं अपनी-अपनी भाषा को परिष्कृत रखने के लिए उत्सुक रहती है। यह मनोवृत्ति बढ़ते-बढ़ते एक सीमा पर पहुंच जाती है और तब वे आपस में एक दूसरे को इस भेद के लिए जिम्मेदार ठहरानी हैं। अपनी घांस का तो ताड़ भी दिखाई नहीं देता औरदूसरे की आंख का तिल भी दिखाई दे जाता है। इसका परिणाम यह हुबा है कि हिन्दी और उर्दू के बीच की साई बढ़ी है और कभी-कभी ऐसा प्रतीत होने लगता है कि दोनों का विकास अलग-अलग भाषाओं के रूप में होना निश्चित है। यह आशंका अनुचित और निर्मूल है।

हिन्दी और उर्दू की इस नई घारा का, चाहे इससे कुछ दिनों के लिए दोनों के बीच की खाई बड़ ही क्यों न जाय, स्वागत करना चाहिए। मौजूदा हिन्दी और उर्दू राजनैतिक, वैज्ञानिक, आर्थिक, व्यापारिक और सांस्कृतिक विचारों को व्यक्त करने में असमर्थ हैं। दोनों ही इस कमी को पूरा करने के लिए अपना कोश बढ़ा रही हैं और इसमें उन्हें सफलता भी मिल रही है। एक दूसरे को आपस में सन्देह नहीं करना चाहिए; क्योंकि हम सभी चाहते हैं कि हमारी भाषा का कोष भरपुर हो। यदि हम हिन्दी या उर्दू में से किसी भी एक के शब्दों को नष्ट करने का प्रयत्न करेंगे तो हम कभी भी अपनी भाषा का कोष न बड़ा पायंगे। हम दोनों ही भापायों को चाहते हैं, हमें दोनों को स्वीकार करना चाहिए। हमें यह समझना चाहिए कि यदि हिन्दी का विकास होता है तो उर्दू का भी होता है धौर यदि उर्दू का होता है तो हिन्दी का भी। दोनों का ही एक-दूसरे पर प्रभाव पड़ेगा और दोनों का ही कोष बढ़ेगा। दोनों को नये-नये शब्दों और विचारधाराधों का स्वागत करने को तैयार रहना चाहिए। मेरी वास्तविक इच्छा यही है कि हिन्दी और उर्दू अपने में विदेशी भाषाधों के शब्दों और विचारों को शामिल कर लें और उन्हें अपना बना लें। ऐसे शब्दों के लिए जो यामतौर पर अंग्रेजी, फ्रेंच और अन्य विदेशी भाषायों में बोले जाने लगे हैं, संस्कृत या फारसी के शब्द गढ़ना ठीक नहीं है।

मुझे इसमें जरा भी सन्देह नहीं है कि हिन्दी और उर्दू अवश्य ही एक-दूसरे के निकट आयंगी। यह हो सकता है कि उनका स्वरूप भिन्न हो, किन्तु भाषा एक ही होगी। इसके लिए जो बातावरण पैदा हो रहा है, वह बहुत शक्तिशाली है। यदि कुछ लोग उसका विरोध भी पैदा करेंगे तो वे सफल नहीं हो सकते । राष्ट्रीयता का जोर बढ़ता जा रहा है और साथ-ही-साथ यह भावना भी जोर पकड़ती जा रही है कि भारत में एकता का होना जरूरी है। अन्त में इसी भावना का विजयी होना निश्चित है। इसके अलावा एक बात और है। वह यह कि यातायात के साधनों, विचारों और राजनैतिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में क्रान्तिकारी परिवर्तन हो रहे हैं। इनका असर पड़ना भी लाजिमी है। हमारे लिए अपने तंग दायरे में ऐसे समय सीमित रहना, जबकि संसार क्रांतिकारी हालत में है, मुमकिन नहीं। जन-साधारण में शिक्षा का प्रसार होने से भाषा में एकता और प्रामाणिकता आ जायगी। एक परिणाम यह भी होगा कि उसका एक माप या मान भी कायम हो जायगा ।

इसलिए हमें हिन्दी और उर्दू के विकास को आशंका की निगाह से नहीं देलना चाहिए । हिन्दी-प्रेमियों को उर्दू का विकास और उर्दू-प्रेमियों को हिन्दी का विकारा देख कर प्रसन्न होना चाहिए। आज दोनों के कार्य क्षेत्र भिन्न हो सकते हैं; किन्तु अन्त में दोनों को मिल ही जाना है। यद्यपि हम इस अलगाव को सहन कर लेते हैं; किन्तु हमें दोनों की एकता के लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए। इस एकता का आधार क्या होगा ? एकता का आधार जन-साधारण होंगे। हिन्दी और उर्दू जन-साधारण के लिए होगी । हमारे सामने जो कठिनाइयां आती हैं उनका एक कारण यह भी है कि हम भाषा की बनावट के फेर में पड़ जाते हैं और इस प्रयत्न में हम जन-साधारण से सम्पर्क खो बैठते हैं। लेखक जो कुछ लिखते है वह किसके लिए ? हरेक लेखक के ध्यान में, जान में या अनजान में, यह बात अवश्य रहती है कि वह जो कुछ लिख रहा है, वह किसके लिए लिख रहा है। वह अपने दृष्टिकोण को किसके सामने रखना चाहता है ? शिक्षा की कमी के कारण पाठकों की संख्या बहुत्त परिमित होती है; किन्तु यह परिमित संख्या भी काफी होती है और धीरे-धीरे इस संख्या में वृद्धि ही होगी। यद्यपि मैं इस विषय में कोई विशेषज्ञ नहीं हूं; किन्तु फिर भी इतना अवश्य कहूंगा कि लेखक इस परिमित संख्या से भी काफी लाभ नहीं उठाता है। उसे तो उस साहित्यिक समाज का ही ध्यान रहता है जिसमें वह सदा विचरण करता रहता है और जो उसकी कृतियों की प्रशंसा करता है। वह उन्हीं की भाषा में लिखता है। उसके विचार जनता तक नहीं पहुंच पाते। यदि जनता तक पहुंचे भी तो वह उन्हें समझ नहीं पाती । इन कारणों के होते हुए भी यदि हिन्दी और उर्दू की पुस्तकों की खपत कम है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हमारे समाचार पत्रों की वृद्धि न होने का भी यह एक कारण है। उनमें भी उसी साहित्यिक भाषा का प्रयोग होता है।

हमारे लेखकों को चाहिए कि वे जन-साधारण को ही अपना पाठक समझें और जो कुछ भी लिखें वह उनके लिए ही लिखें । इसका स्वाभाविक परिणाम यह होगा कि भाषा सरल हो जायगी। जब किसी भी भाषा में’ बनावट आने लगती है तो उसके नाश के दिन निकट आ जाते हैं। भाषा के सरल होने के साथ-साथ यह बनावट भी दूर हो जायगी और ऐसे शब्द प्रयोग में आने लगेंगे जिनमें ओज और शक्ति भी अधिक होगी। अभी तक हममें से यह भावना दूर नहीं हुई कि साहित्य और संस्कृति उच्च वर्गों की देन है। यदि इसी दृष्टिकोण से सोचते रहेंगे तो हम एक तंग दायरे के अन्दर ही रह जायंगे और जन-साधारण से जरा-सा भी सम्पर्क कायम न कर सकेंगे। संस्कृति का श्राधार यधिक विशाल होना चाहिए अर्थात् वह जन-साधारण पर धवलम्बित होनी चाहिए। भाषा संस्कृति का एक अंग है, घतः उसका प्राधार भी वही होना चाहिए जो संस्कृति का है।

बन-साधारण के निकट पहुंचने का सवाल सरल शब्दों या मुहावरों के उन भावों से है जिन्हें ये व्यक्त करते हैं। भाषा के द्वारा ही जन-साधारण से अपील की जाती है, इसलिए भाया ऐसी होनी चाहिए जो उनके लिए उपयुक्त हो और उनके कष्टों, भाशाओं और सुखों को पूरी तरह जाहिर कर सके। भाषा को एक छोटे-से वर्ग के जीवन का दर्पण न होकर जन-साधारण के जीवन का द्योतक होना चाहिए। इतना होने पर भाषा की जड़े ज्यादा मजबूत हो सकती है और तभी उसे जन-साधारण का सहारा मिल सकता है।

यह बात केवल हिन्दी और उर्दू से नहीं, बल्कि भारत की समस्त भाषाओं से सम्बन्ध रखती है। मैं जानता हूं कि उन सबमें इन्हीं विचारों का जोर हो रहा है और जन-साधारण की अधिक-से-अधिक चिन्ता की जा रही है। इस मार्ग की गति और तेज होनी चाहिए। लेखकों का भी यही लक्ष्य होना चाहिए कि वे इसे प्रोत्साहन दें।

मेरे विचार में इस बात की बड़ी जरूरत है कि हमारी भाषाओं का विदेशी भाषाओं से सम्पर्क स्थापित हो। प्राचीन और मौजूदा पुस्तकों का अनुवाद किया जाय। ऐसा करने से हमें दूसरे देशों की संस्कृति और साहित्य का ज्ञान हो जायगा और हम उनके सामाजिक आन्दोलनों से भी परिचित हो जायंगे। नये विचारों से हमारी भाषा को ताकत मिलेगी।

जन-साधारण से सम्पर्क बढ़ाने में बंगला सबसे आगे है। बंगला का साहित्य बंगाल की जनता के जीवन से दूर नहीं है। बन-साधारण भोर उच्च वर्ग के भेद को विश्व-कवि टैगोर ने काफी दूर कर दिया है। आज रविबाबू की कविताएं ग्रामों के झोपड़ों में भी सुनाई देती हैं। इससे बंगाल के साहित्य में ही वृद्धि नहीं हुई, बल्कि बंगाल की जनता को भी प्रोत्साहन मिला है। बंगला बहुत शक्तिशाली भाषा बन गई है और उसमें सरल शब्दों के द्वारा बड़े-बड़े साहित्यिक मुहावरों को व्यक्त किया जा सकता है। इससे हम शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं और अपनी भाषा को भी वही रूप दे सकते है। इस सम्बन्ध में गुजराती का भी जिक्र कर देता उचित जान पड़ता है। मैंने सुना है कि गांधीजी की सरल भाषा का गुजराती पर बहुत प्रभाव पड़ा है।*

(“हिंदुस्तान की समस्याएं ” पुस्तक से) प्रकाशन २५ जुलाई, १६३७

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