
मैं यहां किसी को बुरा-भला कहने नहीं खड़ा हुआ हूं, हमारा काम यह नहीं है। यहां मैं आपके सामने किसी एक दल की तरफ से, या किसी पार्टी की तरफ से नहीं खड़ा हुआ हूं। बल्कि आपके सामने एक मुसाफिर की तरह से, आपके एक हमसफर के रूप में, खड़ा हुआ हूं। इस मुल्क के करोड़ों आदममियों से और आपसे और मुल्क के रहने वालों से यह दरख्वास्त करने कि जरा हम अपने दिल में देखें और और अपने को समझाएं और औरों को समझाएं कि इस वक़्त हमारा क्या फर्ज़ है, हमारा क्या कर्तव्य है।
”हमारी आज़ादीके दिन का आफताब अभी गिरा नहीं था, गरूब नहीं हुआ था कि दूसरी तरह की खबरें हमारे पास आई। कहां तो हम यह शेखी बघारते थे कि हमने शान से, सभ्यता से, अहिंसा से, आज़ादी ली। वहां, यह खबर हमारे पास आई कि हमारे यहां, या हमारे पड़ोसी मुल्क में, भाई-भाई को मार रहा है, बहन-बहन को मार रही है और लोग बच्चों को मार रहे हैं। एकदम से यह तस्वीर आई। एक-दूसरे ढ़ंग की तस्वीर। और वह झगड़ा-फसाद आपके और हमारे इस दिल्ली शहर तक फैला। हमने देखा कि फतह, हार के कितने करीब होती है। क्योंकि आफताब के निकलने के वक़्त की सुबह हमारी फतह की एक निशानी थी, तो हमारी वही शाम हुई, जब हमारी हार की भी झलक हमारे सामने आई।
यह दुश्मन से हार नहीं थी, दुश्मन पर हमने फतह पाई। यह हार थी, अपनी कमज़ोरी से, अपनी नाइत्तफाकी से, जो कि सबमें ज़्यादा खतरनाक बात होती है। शेर का सामना हमने शेरों की तरह किया, फिर सांप ने आकर पीछे से हमें काटा। मैं आपको इसकी याद इसलिए दिलाता हूं कि अब भी ऐसे सांप फैले हुए है जो पीछे से आकर काट सकते हैं। जो हमको कमज़ोर करते हैं। जो हमें जलील करते हैं और हमने इतने ज़माने में यह सब जो किया कराया, उसको नाश करने की पूरी कोशिश करते हैं।
…आख़िर में हमारे इम्तिहान का यह उससे कड़ा ज़माना आ गया। कहां तक हम मुसीबत में मिलकर रह सकते हैं? कहां तक हम मिलकर काम कर सकते हैं? कहां तक हम इस मंड़िल को भी पार कर सकते हैं? यह आया और ऐसे मौ के पर आया जब आपस में फूट है, आपस में लड़ाई है। एक इंसान दूसरे के ऊपर हाथ उठाते हैं। तब उसके क्या माने हैं? क्या हम अपने पुराने सब क भूल गए? क्या हम गांधीजी को भी भूल गए? क्या हम हिंदूस्तान की हज़ारों बरसों की तवारीख को भूल गए? क्या हम जो हमारा भविष्य है, जिसके लिए हम काम कर रहे हैं, उसको भूल गए? क्या हम अपने बच्चों को भूल गए? हमें क्या याद रहा? जब हम एक-दूसरे पर हाथ उठाते हैं और झगड़ा-फसाद करते है? महज किसी सियासी बात को हासिल करने को? या जो कुछ भी उसकी वजह हो। मैं नहीं जानता कि बात क्या है?
तो आपके सामने मै खड़ा हूं और आप यहां खुशी मनाने आते हैं। दिल में खुशी ज़रूरी है, लेकिन दिल में रंज भी है कि ग्यारह बरस बाद भी ऐसी बातें हिंदुस्तान के बाज हिस्सों में हो रही हैं और आज के दिन हो रही है। लोग आपस में झगड़ा – फसाद करते हैं, एक-दूसरे को मारते हैं और एक दूसरे की संपत्ति को जलाते है। तो हम लोगों को इस गफलत से आगाह होना है। मैं यहां किसी को बुरा-भला कहने नहीं खड़ा हुआ हूं, हमारा काम यह नहीं है। यहां मैं आपके सामने किसी एक दल की तरफ से, या किसी पार्टी की तरफ से नहीं खड़ा हुआ हूं। बल्कि आपके सामने एक मुसाफिर की तरह से, आपके एक हमसफर के रूप में, खड़ा हुआ हूं। इस मुल्क के करोड़ों आदममियों से और आपसे और मुल्क के रहने वालों से यह दरख्वास्त करने कि जरा हम अपने दिल में देखें और और अपने को समझाएं और औरों को समझाएं कि इस वक़्त हमारा क्या फर्ज़ है, हमारा क्या कर्तव्य है। कुछ भी कर्तव्य हो, कुछ भी पालिसी हो, कुछ भी नीति हो, जाहिर है कि उसमें हम कामयाब एक ही तरह से हो सकते हैं कि हम मिलकर, शांति से अदम तशद्दुद से काम करें, यह ज़ाहिर है एक मोटी बात है। नहीं तो हमारी सारी ता कत एक-दूसरे के िखलाफ जाया हो जाती है। अगर हमारी राय में फर्क है तो हम एक-दूसरे को समझाएं, एक-दूसरे को अपनाएं। और कोई जारिया नहीं है, इस मुल्क में नहीं है। तो हम यह चाहते हैं।
हम लंबी आवाज़ में दुनिया से बातें करते हैं और नेक सलाहें देते हैं। हमने पंचशील का झंडा उठाया और लोगों की तवज्जोह इधर हुई और मुल्कों पर उसका एक असर हुआ। लेकिन फिर कभी-कभी हम अपने मुल्क की तरफ देखें कि यहां क्या हो रहा है, देखकर हमारा सिर झुक जाता है शरम आ जाती है, किस तरह से औरों को नेक सलाह दें, जब हम अपने को ही पूरी तौर से नहीं संभाल सकते? तो फिर मेरी आपसे यह दरख्वास्त है और मुल्क में सभी से दरख्वास्त है कि और सवालों पर जरूर हम गौर करें, और रास्तों पर हम चलें, लेकिन पहली बुनियादी बात यह है कि हम अपने को संभालें, एक-दूसरे से लड़ाई का सिलसिला छोड़े। हम यह समझ लें कि अगर हम लड़ाई-झगड़ा करके फैसला किया चाहते हैं तो हिंदुस्तान में न आज़ादीहै, न समाजवाद है, न प्रजातंत्र ।”
(१९५८ में नेहरू के भाषण से, नेहरू : मिथक और सत्य, ले: पीयूष बबेले)