हिंदुस्तान की कहानी’ पंडित जवाहरलाल नेहरू की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय कृतियों में से है। यह पुस्तक विश्वविख्यात ‘दि डिस्कवरी ऑव इंडिया’ का अनुवाद है। हम उनकी पुस्तक हिन्दुस्तान की कहानी को धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है धारावाहिक में छोटे आलेख पाठकों को पसंद आयेंगे और वे इस तरह नेहरू के हिन्दुस्तान को पूरा पढ़ पायेंगे। हमें आपकी प्रतिक्रिया और सुझावों का इंतजार रहेगा ताकि हम और बेहतर कर सकें। आज पुस्तक का चैप्टर 2– बेडेनवाइलर लोज़ान- भाग ३ : इन्सानी रिश्तों का सवाल (संपादक )
ये सब और बहुत-से और खयाल मेरे दिमाग में बेडेनवाइलर के तनहाई के लंबे घंटों में आते। मैं जेल का वातावरण सहज में दूर न कर पाता था। बहुत दिनों से मैं इसका आदी हो गया था और इस नई फ़िजा ने कुछ ज्यादा तबदीली न पैदा की। नात्सी इलाके में, उसकी तमाम अनोखी घटनाओं के बीच, जिसे मैं बेहद नापसंद करता था, मैं रह रहा था। लेकिन नात्सियों ने मुझसे छेड़न की। ब्लैक फॉरेस्ट के एक कोने के इस छोटे-से गांव में नात्सी-पन के कोई चिह्न नहीं मिलते थे।
पर शायद ऐसा हो कि मेरे दिमाग में और हो बातें मर रही थीं। मेरे सामने अपनी बीती हुई जिदगी की तस्वीरें फिर रही थी, और उनमें हमेशा कमला साथ दिखाई देती थी। मेरे लिए वह हिंदुस्तान को महिलाओं, बल्कि स्त्री-मात्र, की प्रतीक वन गई। कभी-कभी हिंदुस्तान के बारे में मेरी कल्पना में वह एक अजीब तरह से मिल-जुल जाती उस हिदुस्तान की कल्पना में, जो अपनी सब कमजोरियों के बावजूद हमारा प्यारा देश है, और जो इतना रहस्यमय और मेद-मरा है। कमला क्या थी? क्या मैं उसे जान सका था, उसकी असली आत्मा को पहचान सका था? क्या उसने मुझे पहचाना और समझा था ? क्योंकि मैं भी एक अनोखा आदमी रहा हूं और मुझमें भी ऐसा रहस्य रहा है, ऐसी गहराइयां रही है, जिनकी बाह में खुद नहीं लगा सका हूं। कभी-कभी मैंने माल किया है कि वह मुझसे इसी वजह से जरा सहमी रहती थी। शादी के मामले में मैं खातिर-खाह आदमी न रहा है, न उस वक्त था। कमला और मैं एक-दूसरे से कुछ बातों में बिलकुल जुदा थे, और फिर भी कुछ बातों में हम एक-जैसे थे। हम एक-दूसरे की कमियों को पूरा नहीं करते थे। हमारी जुदा-बुदा ताकत ही आपस के व्यवहार में कमजोरी बन गई। या तो आपस में पूरा समझोता हो, विचारों का पूरा मेल हो, नहीं तो कठिनाइयां होंगी ही। हममें कोई भी साधारण गृहस्थी श्री जिदगी, जैसे भी गुजरे, उसे कुबूल करते हुए, नहीं बिता सकते थे।
हिंदुस्तान के बाजारों में जो बहुत-सी तस्वीरें देखने में आती, उनमें एक ऐसी थी, जिसमें कमला की और मेरी तस्वीरें साथ-साथ लगाई गई थी और जिसके ऊरर लिखा हुआ था – ‘आदर्श जोड़ी’ । बहुत-से लोग इसी रूप में हमारी कलाना करते रहे हैं, लेकिन आदर्श को पा लेना और उसे पकड़े रहना बड़ा कठिन है। फिर भी मुझे पाद है कि अपने लंका के सफर में मैं कमला से यह कहा करता था कि बहुत दिक्कतों और आपस के भेदों के रहते हुए और जिदगी ने हमारे साथ जो चाल चलो हैं, उनके वावजूद, हम कितने खुशकिस्मत है। व्याह एक अनोखी घटना होती है और अगरचे व्याह का हमें हजारों साल का तजुरवा हासिल है, यह बात आज भी उतनी ही सच है। हमने अपने गिर्द बहुत-सी वादियों की वरवादी देखी, या जिरी हम इससे बेहतर न कहेंगे, यह देखा कि जो चीज सुनहली और आबदार थी, वह मंद और फीकी पड़ गई है। मैं उससे कहा करता कि हम लोग कितने खुश- किस्मत हैं, और इसे वह कुबूल करती, क्योंकि आपस में हम लड़े मले ही हों, एक-दूसरे से नाराज मले ही हुए हों, फिर भी हमने उस जिदा ज्योति को बुझने न दिया, और जिदगी हम दोनों को नये-नये करिश्मे दिखाती रही और एक-दूसरे को नई भझलक देती रही।
इन्सानी रिश्तों का मसला कितना बुनियादी है, फिर भी राजनीति और अर्थ-शास्त्र की बहसों में पड़कर हम उसे कितना नजर अंदाज कर देते हैं। चीन और हिंदुस्तान की पुरानी और अक्लमंद तहजीवों में इसे नजरअंदाज नहीं किया गया था। वहां सामाजिक व्यवहार के आदशों का विकास हुआ या, जिसमें और जी मी खामियां रही हों, यह खुबी थी कि व्यक्ति को एक संतुलन, एक हम-वजनीपन, हासिल होता था। यह संतुलन आज हिंदुस्तान में नहीं दिखाई पड़ रहा है; लेकिन पश्चिम के देशों में ही, जहां और दिशाओं में इतनी तरक्की हुई है, यह कहां दिखाई पड़ता है? या यह संतुलन ही दर- असल गतिहीनता है और उन्नतिशील तबदीली का विरोबी है? क्या एक का दूसरे के लिए बलिदान करना जरूरी है? यकीनी तौर पर इसे मुमकिन होना चाहिए कि भीतरी संतुलन का बाहरी तरक्की से, पुराने जमाने के ज्ञान का नये जमाने की शक्ति और विज्ञान से मेल कायम हो। सच देखा जाय, तो हम लोग दुनिया के इतिहास की एक ऐसी मंजिल पर पहुंच गए हैं कि अगर यह मेल न कायम हो सका, तो दोनों ही का अंत और नाश रखा हुआ है।
जारी…..