
हिंदुस्तान की कहानी – हिंदुस्तान की कहानी’ पंडित जवाहरलाल नेहरू की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय कृतियों में से है। यह पुस्तक विश्वविख्यात ‘दि डिस्कवरी ऑव इंडिया’ का अनुवाद है। हम उनकी पुस्तक हिन्दुस्तान की कहानी को धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है धारावाहिक में छोटे आलेख पाठकों को पसंद आयेंगे और वे इस तरह नेहरू के हिन्दुस्तान को पूरा पढ़ पायेंगे। हमें आपकी प्रतिक्रिया और सुझावों का इंतजार रहेगा ताकि हम और बेहतर कर सकें। आज पुस्तक का चैप्टर :४ हिंदुस्तान की खोज भाग १७ : चंद्रगुप्त और चाणक्य ; मौर्य साम्राज्य की स्थापना
बोद्ध-धर्म हिंदुस्तान में रफ्ता-रफ़्ता फैला; अगरचे मूल में यह क्षत्रियों की तहरीक़ थी और हुकूमत करनेवाले वर्ग और ब्राह्मणों के बोच के झगड़े को जाहिर करती थी, फिर भो इसके इखलाक़ो और जमहूरियत के पहलू और खासकर पुरोहिताई और कर्म-कांड के विरोध आम लोगों को पसंद आये। इसका विकास एक आमपसंद सुधार के आंदोलन के रूप में हुआ और कुछ ब्राह्मण विचारक भी इसमें खिचकर आ गए। लेकिन आमतौर पर ब्राह्मगों ने इसका विरोध किया और बौद्धों को नास्तिक और क़ायम-शुदा मजहब के खिलाफ़ बगावत करनेवाला बताया। ढाई सदी वाद सम्राट अशोक ने इस धर्म में दोक्षा ली और शांति के साथ इस मजहब का हिंदुस्तान में और बाहर प्रचार करने में उसने अपनी सारी ताक़त लगा दी।
झगड़े गुजरे हुए जमाने की बात हो जायगी और अंग्रेजों और यूरोपोयों से दुश्मनी का खयाल बिलकुल भुला दिया जायगा।” और फिर बहुत हाल में उन्होंने कहा है- “जात-पांत की व्यवस्था – उसे हम जिस रूप में जानते हैं-यक्रियानूसी चीज है। अगर हिंदू-धर्म और हिंदुस्तान को क़ायम रहना है और तरक्की करना है, तो इसे जाना ही होगा।”
इन दो सदियों में हिंदुस्तान में बहुत-सी तबदीलियां हुई। जातियों में मेल-जोल ले आने की और छोटी-छोटा रियासतों की गणराज्य का रूप देने की बहुत-सी क्रियाएं बहुत दिनों से जारी थी; और एक मिला-जुला केंद्रीय राज्य क्रायम करने की पुरानो प्रेरणा भी काम कर रही थी, और इन सबका नतीजा यह हुआ कि एक ताकतवर और शानदार साम्राज्य कायम हो गया । पच्छिमोत्तर में होनेवाले सिकंदर के हमले ने इस विकास को और भी आगे ढकेलने में मदद दो, और दो ऐसे मार्के के आदमी सामने आये, जिन्होंने इस बदलती हुई हालत से फायदा उठाया और उसे अपनी मर्जी के मुताबिक ढाल लिया। ये लोग थे चंद्रगुप्त मौर्य और उसका दोस्त, वजीर और सलाहकार ब्राह्मण चाणक्य । इनके मेल से खूब काम चला। दोनों ही नंदों के मगध राज्य से, जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) थी, निकाले हुए थे; दोनों ही पच्छिमोत्तर में तक्षशिला पहुंचे और वहां सिकंदर के मुकर्रर किये हुए यूनानियों के संपर्क में आये। चंद्रगुप्त सिकंदर से खुद मिला; उसकी विजयों और शान-शौकत का हाल सुना, और उसीकी बराबरी करने का उसके मन में हौसला पैदा हुआ। दोनों देख-भाल और तैयारी में लगे रहे। उन्होंने बड़े ऊंचे मनसूबे बांधे और अपना मक़सद पूरा करने के लिए मौके के इंतजार में रहे।
जल्द ही उन्हें बेबिलोन से सिकंदर के (३२३ ई० पू० में) मरने की खबर मिली और फोरन चद्रगुप्त और चाणक्य ने राष्ट्रीयता का पुराना और सदा नया नारा बुलंद किया। यूनानियों की संरक्षक सेना तक्षशिला से भगा दी गई। कोमियत की पुकार ने चंद्रगुप्त को बहुत-से साथी दिये और उन्हें साथ लेकर उत्तरी हिंदुस्तान पार करते हुए उसने पाटलिपुत्र पर घावा कर दिया। सिकंदर की मौत के दो साल के भीतर ही उसने इस शहर पर और राज्य पर कब्जा कर लिया और मीर्य साम्राज्य की स्थापना हो गई।
सिकंदर के सेनापति सेल्युकस ने जिसने अपने स्वामी की मौत के बाद एशिया माइनर से लेकर हिंदुस्तान तक के प्रदेश पर उत्तराधिकार पाया था, पच्छिमोत्तर हिंदुस्तान पर फिर से हूकूमत कायम करनी चाही और उसने अपनी फ़ौज लेकर सिघु नदी पार कर ली। उसने शिकस्त खाई और काबुल और हिरात तक अफ़ग़ानिस्तान का एक हिस्सा उसे चंद्रगुप्त को देना पड़ा और उसने अपनी लड़की भी चंद्रगुप्त के साथ ब्याह दी। दक्खिन हिंदुस्तान को छोड़कर सारे हिंदुस्तान पर अरब सागर से लेकर बंगाल की खाड़ी तक, चंद्रगुप्त का साम्राज्य फैला हुआ था, और उत्तर में यह क़ाबुल तक पहुंचता था। लिखित इतिहास में यह पहला मौक़ा था कि हिंदुस्तान में एक केंद्रीय हुकूमत इतने बड़े पैमाने पर बनी। इस बड़ी सल्तनत की राजधानी पाटलिपुत्र थी। यह नई हुकूमत थी कैसी? खुशकिस्मती से इसके पूरे-पूरे हाल हमें मिलते है, हिदुस्तानियों के लिखे हुए मो और और यूनानियों के मो। मेगस्थनीज ने, जो सेल्यूकस का भेजा हुआ एलची था, हालात दर्ज किये हैं और उस से भी ज्यादा महत्त्व की बात यह है कि कोटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में, जो राज-नीति-शास्त्र पर एक पुस्तक है, हमें उसी जमाने का लिखा हुआ हाल मिलता है। कौटिल्य चाणक्य का ही दूसरा नाम है और इस तरह हमें एक ऐसी किताब देखने को मिलती है, जिसका लिखनेवाला न महज एक विद्वान था, बल्कि उसने साम्राज्य के क़ायम करने, उसे तरक्की देने और उसकी हिफ़ा-जत में बहुत खास हिस्सा लिया था। चाणक्य को हिंदुस्तान का मैकियाविली कहा गया है और कुछ हद तक यह मुक़ाबला मुनासिब भी है। लेकिन हर मानी में वह उसके मुक़ाबले में बहुत बड़ा आदमो था-दिमाग में भी और काम में भी। वह एक राजा का महज पैरोकार या एक शक्तिशाली साम्राट का दीन सलाहकार न था। हिंदुस्तान के एक पुराने नाटक- ‘मुद्राराक्षस’-में, जो उस जमाने का हाल दर्ज कराता है, उसकी तस्वीर हमें मिलती है। साहसी और षड्यंत्री, गर्वीला और बदला लेनेवाला, अपमान को कभी न भूलनेवाला, अपने उद्देश्य पर बराबर डटा रहनेवाला, दुश्मन को धोखे में डालने और हराने की सभी तरह की तरक़ीबों को काम में लानेवाला- इस रूप में हम उसे एक साम्राज्य की बागडोर को हाथ में लिये देखते हैं और वह सम्राट को अपने मालिक की तरह नहीं, बल्कि एक प्रिय शिष्य की तरह देखता है। अपनो जिदगी में सीबा-सादा और तपस्वी, ऊंचे पद की शान-शौक़त में दिलचस्पी न लेनेवाला है; और जब उसका मक़सद हासिल हो जाता है, तो वह काम से छुट्टी पा लेना चाहता है और ब्राह्मण की तरह मनन और चिंतन की जिदगी बिताना चाहता है।
अपना मक़सद हासिल करने के लिए शायद ही कोई बात हो, जिसे करने में चाणक्य को पसोपेश होता। वह काफ़ी बेबाक था, साथ ही वह काफ़ी बुद्धिमान भी था और यह समझता था कि गलत जरियों से मक़सद को ही नुक़साम पहुंच सकता है। क्लौसविट्ज’ (जर्मन सेनापति तथा सैन्य लेखक – १७८०-१८३१ ई०) से बहुत पहले कहा जाता है कि उसने बताया था कि युद्ध दूसरे जरियों से शासन-नीति का ही एक सिलसिला है, लेकिन उसने यह भो बताया है कि युद्ध का मक़सद इस नीति के व्यापक उद्देश्यों को पूरा करना होना चाहिए, उसे खुद एक मक़सद बनकर ही न रह जाना चाहिए। राजनीतिज्ञ का हमेशा यह उद्देश्य होना चाहिए कि युद्ध के फलस्वरूप राज्य की तरक्की हो, केवल यह नहीं कि बैरी हार जाय और नष्ट हो जाय। अगर युद्ध से दोनों फ़रीक़ नष्ट हो जाते हैं, तो इसे राजनीतिज्ञता का दिवाला समझना चाहिए। लड़ाई के लिए हथियारबंद फ़ौज की जरूरत होती है, लेकिन हथियारों के जोर से कहीं ज्यादा महत्व की बात है वह कूटनीति, जिससे दुश्मन भरोसा खो बैठे और उसकी फ़ोज तितर-बितर होकर या तो नष्ट हो जाय, या हमला होने के पहले ही नाश की हालत के क़रीब पहुंच जाय। अगरचे चाणक्य अपने मक़सद को हासिल करने के मामले में बड़ा कड़ा और कुछ भी न उठा रखनेवाला था, फिर मो बह यह कभी नहीं भूलता था कि अक्लमंद और आला-दिमाग दुश्मन को कुचलने के बनिस्बत उसे अपना हिमायती बना लेना ज्यादा अच्छा है। दुश्मन की फ़ोज में फूट के बीज बोना उसका आखिरी हथियार था। साथ हो, कहा यह जाता है कि ठोक उस वक़्त, जबकि जीत होनेवालो थो, उसने चंद्रगुप्त को अपने बैरो की तरफ़ उदारता दिखाने पर आमादा किया। यह भी कहते हैं कि चाणक्य ने अपने ऊंचे ओहदे की मुहर को खुद ही इस विपक्ष। के मंत्रा के सिपुर्द कर दिया, जिसकी बुद्धिमानी और अपने पुराने मालिक के लिए वफ़ादारी का चाणक्य पर बड़ा असर पड़ा था। इस तरह से यह क़िस्सा हार और अपमान की कड़वाहट के साथ नहीं बल्कि समझौते के साथ और राज्य की मजबूत और क़ायम रहनेवाली बुनियाद के रखने के साथ खत्म होता है, जिसमें दुश्मन की हार ही नहीं होती है, बल्कि उसे दिल से भो अपने में मिला लिया जाता है।
मोर्य-साम्राज्य का यूनानी दुनिया के साथ कूटनीतिक संबंध था-सेल्यूकस से भी और उसके उत्तराधिकारी टोलमो फिलाडेल्फस से भो। यह संबंध आपस के व्यापारिक हितों की मजबूत बुनियाद पर टिका हुआ था। स्ट्रैनो कहता है कि मध्य-एशिया की आमूनदी उस महत्त्वपूर्ण सिलसिले की एक कड़ी था, जिससे हिंदुस्तानी माल कैस्पियन और काले समुंदरों के रास्ते यूरोप में पहुंचाया जाता था। ईसा से पहले की तीसरी सदी में यह रास्ता बहुत चालू था। उस जमाने में मध्य एशिया खुशहाल और जरखेज था। उससे एक हजार साल कुछ बाद वह सूखने लगा। ‘अर्थशास्त्र’ में लिखा है कि राजा के अस्तबल में अरबी घोड़े थे।
जारी …