अखबारों की आजादी- जवाहर लाल नेहरू

प्रेस की आजादी इसमें नहीं है कि जो चीज हम चाहें, वही छप जाय । एक अत्याचारी ही इस तरह की आजादी को मंजूर करता है। प्रेस की आजादी इसमें है कि हम उन चीजों को भी छपने दें, जिन्हें हम पसन्द नहीं करते । हमारी अपनी भी जो आलोचनाएं हुई हैं उन्हें भी हम बर्दाश्त कर लें

मैं अखबारों की आजादी का बहुत ज्यादा कायल हूं। मेरे खयाल से अखबारों को अपनी राय जाहिर करने और नीति की आलोचना करने की पूरी आजादी मिलनी चाहिए। हां, इसका मतलब यह नहीं होना चाहिए कि अखबार या इंसान द्वेष-भरे हमले किसी दूसरे पर करें या गंदी तरह की अखबार-नवीसी में पड़े, जैसे कि हमारे आजकल के कुछ साम्प्रदायिक पत्रों की विशेषता है। लेकिन मेरा पक्का यकीन है कि सार्वजनिक जीवन का निर्माण आजाद अखबारों की नींव पर होना चाहिए ।

मशहूर राष्ट्रवादी अखबार, जिन्होंने अपनी स्थिति बना ली है. बड़ी हद तक खुद अपना सवाल रख सकते हैं। उन पर कोई मुसीबत आती है तो जनता का ध्यान उनकी तरफ जाता है। मदद भी उन्हें मिलती है। पर जो छोटे और ऐसे अखबार है जिनका नाम थोड़ा ही है, उनमें सरकार अक्सर दखल देती है. क्योंकि उनकी प्रसिद्धि उतनी नहीं है। फिर भी हमारे छोटे-छोटे धौर कमजोर-से-कमजोर अखबारों को सरकारी दबाव का शिकार होने देना खतरे की बात है; क्योंकि ज्यों-ज्यों दबाव पड़ता है त्यों-त्यों दबाव डालने की आदत बढ़ती जाती है और उससे धीरे-धीरे जनता का मन सरकार द्वारा अपने अधिकारों का दुरुपयोग किये जाने का आदी हो जाता है। इसलिए पत्रकारों की एसोसियेशन तथा सब अखबारों के लिए यह जरूरी है कि कम मशहूर अखबारों तक के मामलों को यों ही न जाने दें। अगर वे प्रेस की आजादी बनाए रखने के ख्वाहिशमन्द है तो उन्हें सजग रह कर इस आजादी की रक्षा करनी चाहिए और हर प्रकार के अतिक्रमण को, फिर यह कहीं से भी हो, रोकना चाहिए। यह राजनैतिक विचारों या मतों का ही मामला नहीं है। जिस घड़ी हम उस अखबार पर हमला होने में अपनी रजामन्दी दे देते हैं, जिससे हमारा मतभेद है, तभी उसूलन हम अपनी हार स्वीकार कर लेते हैं और जब हमारे ऊपर हमला होता है तो उसका मुकाबिला करने की शक्ति हम में बाकी नहीं रहती ।

प्रेस की आजादी इसमें नहीं है कि जो चीज हम चाहें, वही छप जाय । एक अत्याचारी ही इस तरह की आजादी को मंजूर करता है। प्रेस की आजादी इसमें है कि हम उन चीजों को भी छपने दें, जिन्हें हम पसन्द नहीं करते । हमारी अपनी भी जो आलोचनाएं हुई हैं उन्हें भी हम बर्दाश्त कर लें और जनता को अपने उन विचारों को जाहिर कर लेने दें जो हमारे पक्ष के लिए नुकसानदेह ही क्यों न हों; क्योंकि बड़े लाभ या अतिम ध्येय की कीमत पर क्षणिक लाभ पाने की कोशिश करना हमेशा एक खतरे की बात है। अगर गलत माप कायम करते हैं और गलत तरीके अख्तियार करते हैं, चाहे इस यकीन से भी कि हम एक ठीक पक्ष को समर्थन दे रहे हैं, तो भी उन मापों यौर तरीकों का प्रभाव उस ठीक पक्ष पर भी पड़ेगा फिर उसमें दुराग्रह भर जायगा । जो ध्येय हमारे सामने है, यह कुछ ग्रंथ में उन्हीं मापों और साधनों द्वारा नियंत्रित होगा और शायद उसका अन्तिम परिणाम भी सर्वथा भिन्न हो, जिसकी हमने कल्पना भी न की थी।

अगर हमारा ध्येय जनतंत्र और आजादी है तो उसे हमें हमेशा अपने काम और कार्रवाइयों में सामने रखना चाहिए। अगर हमारा काम जनतंत्र और आजादी-विरोधी तरीके पर है तो निश्चित ही उसका फल जनतंत्र और आजादी नहीं होगा, बल्कि कुछ और ही होगा ।

यह सच है कि ऊंचे ऊंचे ऐसे सिद्धान्त बनाना आसान है जो कि तर्क-संगत हैं और बड़े अच्छे लगते हैं। पर उन्हें व्यवहार में लाना ज्यादा मुश्किल है; क्योंकि जिन्दगी अधिक तर्क-संगत नहीं है और आदमी के व्यवहार का माप भी उतना ऊंचा नहीं होता जितना कि हम चाहते हैं। हम एक ऐसे जंगल में रहते हैं जहां लुटेरे लोग और राष्ट्र अक्सर मनमाने ढंग से इधर-उधर चक्कर लगाते हैं और समाज को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करते हैं। युद्ध या राष्ट्र की आजादी के लिए हलचल या वर्गों के बीच कशमकश और ऐसे संकट पैदा होते रहते हैं जिनसे घटनाओं की स्वाभाविक गति-विधि बदल जाती है। उस वक्त अपने बनाये ऊंचे सिद्धांतों पर, जो कि आदमियों के व्यवहार का एक माप नियत करते हैं, पूरी तरह से कायम रहना मुश्किल हो जाता है। ऐसे संकट के समय में आदमी या जमात की साधारण स्वतन्त्रता पर कुछ हद तक फिर से विचार करना जरूरी हो जाता है। ऐसा जरूरी होते हुए भी, हमारा फिर से विचार करना एक खतरे की बात है और उसके नतीजे भी बुरे निकल सकते हैं, अगर हम पूरी तरह से सजग रह कर न चलें। ऐसा न करेंगे तो हम उसी बुराई के शिकार हो जायंगे जिसके खिलाफ कि हम लड़ते हैं।

जब हम जनतंत्र, आजादी और नागरिक अधिकार की बात करते हैं तो हमें याद रखना चाहिए कि इनमें जिम्मेदारी और अनुशासन भी मौजूद रहता है। बिना व्यक्ति और जमात के अनुशासन पालन किये और जिम्मेदारी महसूस किये सच्ची आजादी नहीं मिल सकती । गुलामी की हालत और स्वतन्त्रता से आजादी की स्थिति में आ जाने पर मनमाने तौर पर काम करने की प्रवृत्ति होना शायद लाजिमी है। यह अफनोस की बात है। लेकिन उसे समझना मुश्किल नहीं है; क्योंकि लम्बे अर्से से चले आनेवाले दबाव की यह प्रतिक्रिया है। कुछ हद तक इसको बर्दाश्त किया जाना चाहिए, क्योंकि उसे दबाने का मतलब तो उस भावना पर जोर देना है जिससे कि यह पैदा हुई है। फिर भी, हम सबको अपनी आजादी को नीचे गिराकर मनमानेपन, गैर जिम्मेदारी और अनुशासनहीनता में परिणत होने से रोकने के लिए तैयार रहना चाहिए ।

हिन्दुस्तान सहनशीलता का शानदार नमूना है, चीन को छोड़कर दुनिया के किसी भी मुल्क में ऐसा नमूना नहीं है। उस वक्त जबकि यूरोप -और दूसरे मुल्क खून में नहा रहे थे, धर्म की लड़ाइयों में फंसे वे और एक दूसरे के मत या विचारों को दबाने में लगे थे, हिन्दुस्तान और चीन दूसरे मुल्कों के धर्मों के लिए अपने द्वार खोल रहे थे। संस्कृति के सुनहले युग का उन्हें विश्वास था । सहिष्णुता और संस्कृति की महान पृष्ठभूमि हमारे लिए एक कीमती विरासत है ।
आज हममें उन दूसरे मामलों के बारे में उत्साह है, जिनका हमसे महत्वपूर्ण संबंध है। यह ठीक है कि इन मामलों के बारे में हम गहराई के साथ सोचें, क्योंकि उन्हीं के परिणामों पर हमारे मुल्क और दुनिया का भविष्य निर्भर करता है। यह ठीक है कि हम उस पक्ष को आगे बढ़ाने में अपनी पूरी ताकत लगा दें, जो हमें प्रिय है। लेकिन यह ठीक नहीं है कि हम उन सिद्धांतों को ही छोड़ दें या ढीला कर दें जो कि पुराने जमाने में हिन्दुस्तान की सभ्यता का गौरव और कुछ भिन्न अर्थ में, जनतंत्रीय आजादी की नींव रहे हैं। सब से अधिक हमें आजादी और नागरिक अधिकारों के साथ अनुशासन और जिम्मेद्वारी को जोड़ने की कोशिश करनी चाहिए ।
(बंगाल की प्रांतीय कांग्रेस कमेटी की कार्य समिति के ‘युगान्तर’ पत्र के बहिष्कार का प्रस्ताव पास करने तथा बंगाल सरकार द्वारा कई पत्रों से जमानत मांगने और सम्पादन में दखल देने पर ‘अमृतबाजार पत्रिका’ के सम्पादक श्री तुषारकान्ति घोष को लिखा गया पत्र । “हिन्दुस्तान की समस्याएं” से)

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