हिन्दुस्तान की कहानीः जवाहर लाल नेहरू-1

‘हिंदुस्तान की कहानी’ पंडित जवाहरलाल नेहरू की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय कृतियों में से है। यह पुस्तक  विश्वविख्यात ‘दि डिस्कवरी ऑव इंडिया’ का अनुवाद है। उन्होंने इसे अपनी नवी और सबसे लम्बी क़ैद (९ अगस्त, १९४२ से १५ जून, १९४५) के दिनों में पांच महीनों के भोतर लिखा था। इसका संसार की लगभग सभी प्रमुख भाषायों में अनुवाद हो चुका है और सभी जगह यह बड़ी लोकप्रिय हुई है। नई पीढ़ी जवाहर लाल नेहरू के लेखन और उनके आइडिया ऑफ इंडिया के विचार से पूरी करह अनभिज्ञ है। 27 मई ,उनकी पुण्यतिथि से हम उनकी पुस्तक हिन्दुस्तान की कहानी को धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। हम श्री रामचन्द्र टंडन द्वारा हिन्दी में किए गए अनुवाद को यहां दे रहे हैं । उम्मीद है धारावाहिक में छोटे आलेख पाठकों को पसंद आयेंगे और वे इस तरह नेहरू के हिन्दुस्तान को पूरा पढ़ पायेंगे। हमेंआपकी पऱतिक्रियाओं और सुझावों का इंतजार रहेगा ताकि हम और बेहतर कर सकें। आज पुस्तक का पहला भाग उनकी प्रस्तावना से शुरू कर रहे हैं। ( संपादक)

प्रस्तावना

अहमदनगर किला जेल के 9 अगस्त 1942 से 28 मार्च 1945 तक के साथी कैदियों और मित्रों को समर्पित

यह किताब मैंने अहमदनगर क़िले के जेलखाने में, अप्रैल से सितंबर १९४४ के पांच महीनों में लिखी थी। मेरे कुछ जेल के साथियों ने इसका मसविदा पड़ने की और उसके बारे में कई क़ीमती सुझाव देने की कृपा की थी। जेलखाने में, किताब को बुहाते हुए, मैंने इन सुझावों से फ़ायदा उठाया और कुछ बातें और जोड़ दीं। यह बताने की जरूरत नहीं कि जो कुछ मेने लिखा है, उसके लिए कोई दूसरा जिम्मेदार नहीं, न यही लाजिमी है कि दूसरा उससे सहमत हो। लेकिन अहमदनगर क़िले के अपने संगो क्रंदियों का में उन चर्चाओं और आपस के बहस-मुबाहसों के लिए। बड़ा एहसानमंद हूं, जो हम लोगों के बीच हुए और जिनसे हिंदुस्तान के इतिहास और संस्कृति के बारे में अपने खयाल को सुलझाने में मुझे बड़ी मदद मिली। बोड़ो मुद्दत तक भी रहने के लिए जेलखाना कोई खुशरावार जगह नहीं है, न तब कि जब लंबे सालों तक वहां रहना पड़े। लेकिन यह मेरी खुशकिस्मती थी कि आलाक़ाबलियत और तहजीब के और अस्थायी भावनाओं से उठकर इन्सानी मामलों पर व्यापक दृष्टि रखनेवाले लोगों के बहुत नजदीक रहने का मुझे मौक़ा मिला।

अहमदनगर क़िले के मेरे ग्यारह साथी हिंदुस्तान के विभिन्न भागों का एक दिलचस्प नमूना पेश करते थे; वे न महज राजनीति को नुमाइंदगी करते थे, बल्कि हिंदुस्तानी इल्म को पुराने और नये इल्म की और आज- कल के हिदुस्तान के मुहतलिफ़ पहलुओं की भी नुमाइंदगी करते थे। करीब- क़रीब सभी खास-खास जोतो-जागती हिंदुस्तानी बोलियों के बोलनेवाले वहां मौजूद थे और उन पुरानी भाषाओं के जाननेवाले भी ये, जिन्होंने हिंदुस्तान पर पुराने या नये जमाने में असर डाला है और जिनमें काबलियत का दरजा खासा ऊंचा था। पुरानी भाषाओं में संस्कृत और पाली, अरबो और फ़ारसी थीं; मौजूदा जबानों में हिंदी, उर्दू, बंगला, गुजराती, मराठी, तेलगू, सिधी और उड़िया थीं। मेरे सामने इतनी दोलत थी, जिससे में फायदा उठा सकता था और अगर कोई रुकावट थी तो वह मेरी हो इन सबसे फ़ायदा उठाने की क़ाबलियत की कमी थी। अगरचे में अपने सभी साथियों का एहसानमंद हूं, फिर भी मैं खासतौर पर नाम लेना चाहूंगा मौलाना अबुल कलाम आजाद का, जिनकी आला क़ाबलियत को देखकर हमेशा जी खुश होता था और कभी-कभी तो हैरत होती थी। इसके अलावा में गोविन्द बल्लभ पंत, नरेंद्रदेव और आसफ़अली का खासतौर पर एहसानमंद हूं।

इस किताब के कुछ हिस्से पुराने पड़ गये हैं, और जबसे यह लिखी गई है, बहुत-सी बातें गुजर चुकी हैं। इसमें कुछ जोड़ने की और इसे दुहराने की अक्सर सवाहिश हुई है, लेकिन मैंने इस सवाहिश को रोका है। सच तो यह है कि इसके अलावा कोई दूसरी सूरत न थो, क्योंकि क्रंदखाने से बाहर की जिदगी का ताना-बाना हो कुछ दूसरा होता है और सोच-विचार करने और लिखने की फुरसत ही नहीं होती। शुरू में मैंने इसे पूरा-पूरा अपने हाथ से लिखा; मेरे क्रंद से छूटने के बाद यह टाइप किया गया। टाइप किया हुआ मसविदा देखने का मुझे दवत नहीं मिल रहा था और किताब को छपाई में देर हो रही थी। ऐसी हालत में मेरी बेटी इंदिरा ने हाथ बंटाया और मेरे कंधे से यह ब बोझ अपने ऊपर ले लिया। किताब उसी शक्ल में है, जिस शक्ल में यह जेल में तैयार हुई थी, कुछ जोड़ा या घटाया नहीं गया है, सिवा इसके कि आखिर में एक ‘ताजा कलम’ जोड़ दिया गया है।

में नहीं जानता कि दूसरे लेखक अपनी रचनाओं के बारे में कैसा खयाल करते हैं, लेकिन जब में अपनी किसी पुरानी चीज को पढ़ता हूं, तो हमेशा एक अजीब-सा एहसास मुझे होता है। इस एहसास में और भी अनोखा- पन उस वक्त आ जाता है, जब रचना जेल के बंधे हुए और गैर-मामूली वातावरण में हुई हो और पढ़ने का मौक़ा बाहर आने पर मिला हो। में उस रचना को पहचान जरूर लेता हूं, लेकिन पूरी-पूरी तरह नहीं। ऐसा जान पड़ता है कि किसी दूसरे की लिखो हुई, लेकिन परिचित रचना पड़ रहा हूं-ऐसे शहस को, जो मुझसे क़रीब जरूर है, लेकिन है दूसरा हो। शायद यह फ़र्क उतना होता है, जितना खुद मुझमें इस बीच आ गया होता है।

इसी तरह का खयाल इस किताब के बारे में भी मुझमें पैदा हुआ. है। यह मेरी है, लेकिन जो मेरी हालत है, उसे देखते हुए बिल्कुल मेरी नहीं है, बल्कि यह मेरे किसी पुराने व्यक्तित्व की नुमाइंदगी करती है, जो उन व्यक्तित्वों के लंब सिलसिले में शामिल हो चुका है, जो कुछ वक़्त तक क्रायम रहकर मिट गये हैं और अपनी महज एक याद छोड़ गये हैं।

जवाहर लाल नेहर

आनंद भवन इलाहाबाद दिसंबर २९,१९४५

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