हिंदुस्तान की कहानी’ पंडित जवाहरलाल नेहरू की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय कृतियों में से है। यह पुस्तक विश्वविख्यात ‘दि डिस्कवरी ऑव इंडिया’ का अनुवाद है। हम उनकी पुस्तक हिन्दुस्तान की कहानी को धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है धारावाहिक में छोटे आलेख पाठकों को पसंद आयेंगे और वे इस तरह नेहरू के हिन्दुस्तान को पूरा पढ़ पायेंगे। हमें आपकी प्रतिक्रिया और सुझावों का इंतजार रहेगा ताकि हम और बेहतर कर सकें। आज पुस्तक का चैप्टर१ – अहमदनगर का किला का अगला भाग पढ़ें। ( संपादक )
४ : जेल के दिन : काम के लिए उमंग
जान पड़ता है कि जेलखाने में वक्त अपना स्वभाव बदल देता है। मौजूदा बक़्त का वजूद मुश्किल से कहा जा सकता है, क्योंकि ऐसी भावना या एहसास रहता नहीं, जो उसे गुजरे वक़्त से जुदा कर सके। जेल से बाहर की सरगरम, जीती और मरती हुई दुनिया की खबरें ऐसी जान पड़ती हैं, मानो कुछ सपने-जैसी असार हों; उनमें अतीत की-सी जड़ता और गैर- तबदीली होती है। बाहरी स्वाभाविक वक़्त रह नहीं जाता; भीतरी निजी चेतना बनी रहती है, लेकिन वह मी मंद पड़ जाती है, सिवाय इसके कि जब उसे खयाल मौजूदा वक़्त से हटाकर बीते हुए या आनेवाले वक़्त की किसी हक़ीक़त का अनुभव कराने लगता है। जैसाकि आगस्ट काम्टे ने कहा है, “हम अपने गुजरे हुए जमाने में लिपटे हुए मरे हुए लोगों की-सी जिदगी बिताते हैं। लेकिन यह बात खासतौर पर जेल में लागू होती है, जहां हम बीते वक्त की याद, या वक़्त की कल्पना से अपने वेदम और क़ैद जज्बों के लिए कुछ खुराक हासिल करते हैं।”
गुजरे हुए वक़्त में एक शांति और सदा क़ायम रहनेवाली वस्तु की भावना है। वह बदलता नहीं, पायदार है; जैसेकि रंगी हुई तस्वीर या संगमर्मर या कांसे की मूत्ति हो। मौजूदा वक़्त के तूफ़ानों और उलट-फेर से असर न लेते हुए वह अपनी शान और इतमीनान बनाये रखता है, और दुखी आत्मा और सताये हुए मन को अपनी समाधि-गुफ़ा की तरफ़ पनाह लेने के लिए खींचता रहता है। वहां शांति और इतमीनान है, और वहां आदमी को एक रूहानी कैफ़ियत का भी आभास मिल जायगा ।
लेकिन जबतक हम उसमें और मौजूदा वक्त में, जहां इतनी कश-मकश है और हल करने के लिए इतने मसले हैं, एक जीती-जागती कड़ी न कायम कर सकें, तबतक इस जिंदगी को हम जिंदगी नहीं कह सकते। यह ‘कला कला के लिए, जैसी एक चीज बन जाती है, जिसमें कोई उत्साह नहीं, काम करने की उमंग नहीं, जो जिंदगी का सार है। इस उत्साह और उमंग के बगैर, उम्मीद और ताक़त रफ़्ता-रफ़्ता जाती रहती है; हम जिदगी की एक नीची सतह पर आकर ठहर जाते हैं; यहांतक कि चुपके-चुपके मिट जाते हैं। हम गुजरे हुए जमाने के हाथों कैदी बन जाते हैं और उसकी बे-हिसी का कुछ हिस्सा हममें चिमटकर रह जाता है। तबीयत की यह हालत जेलखाने में आसानी से पैदा हो जाती है, क्योंकि वहां हमें काम करने की आजादी नहीं रहती और हम जेल के क़ायदों और वहां की दिन-चर्या के गुलाम बन जाते हैं। फिर भी, गुजरा हुआ जमाना तो हमारे साथ ही रहता है-हम जो कुछ हमारे पास जो कुछ है, वह गुजरे हुए जमाने से ही हासिल हुआ है। हम उसके बनाये हुए हैं और उसीमें गर्क होकर जीते हैं। इस बात को न समझना और यह खयाल करना कि यह कोई ऐसी चीज है, जो हमारे भीतर रहती है, मौजूदा जमाने को न समझना है। उसे मौजूदा जमाने से जोड़ना और आनेवाले जमाने तक खींच ले जाना, जहां वह इस तरह जुट न सके, वहां से अपने को अलग कर लेना और इस सबको विचार और अमली दुनिया की घड़कती हुई, थरथराती हुई सामग्री बना लेना- यही जिदगी है।
हरएक जोरदार काम जिंदगी की गहराइयों से पैदा होता इस काम का मुहूर्त व्यक्ति के सारे लंबे पिछले जमाने ने, बल्कि नस्ल के गुजरे हुए जमाने ने, पेश किया है। नस्ल की याददाश्तें; पूर्वजों और इर्द-गिर्द के प्रभाव और शिक्षा और दबी हुई चेतना के उकसाव; विचार और सपने; और लड़कपन से आगे के काम सब एक अजीब ढंग से मिल-जुलकर हमें इस काम की तरफ़ मजबूर करके ढकेलते हैं, और यह काम खुद आनेवाले जमाने को निश्चित करने में अपना असर डालता है। भविष्य के ऊपर असर डालना, उसे कुछ हदतक, या मुमकिन है, बहुत हदतक निश्चित करना सही है-फिर भी, यह तय है कि इसे हम निश्चयवाद नहीं कह सकते।
अरविंद घोष ने मौजूदा वक़्त के बारे में कहीं पर लिखा है कि यह ‘विशुद्ध और अक्षत क्षण’ है। समय और वजूद की वह पैनी छुरे की घार है, जो गुजरे हुए जमाने को आनेवाले जमाने से जुदा करता है; और यह है, और फ़ौरन नहीं मी है। यह बयान दिलचस्प है, लेकिन इसके मानी क्या हुए? आनेवाले जमाने के परदे से इस अक्षत क्षण का अपनी पूरी विशुद्धता के साथ प्रकट होना, हमसे उसका लगाव होना और फौरन दागी होकर उसका बासी और गुजरा हुआ जमाना बन जाना! क्या यह हम हैं, जो उस पर दास लगाते हैं और उसका अछूतापन बिगाड़ते हैं? या वह क्षण सचमुच उतना अछूता नहीं है, क्योंकि उसके साथ सारे बीते हुए जमाने का कलंक लगा हुआ है?
फ़िलसफ़े की नजर से इन्सानी आजादी जैसी कोई चीज है या नहीं, या जो कुछ है, वह खुद चलनेवाला और पहले से निश्चित है- मैं नहीं जानता । जान पड़ता है कि बहुत कुछ यक़ीनी तौर पर ऐसी पिछली घटनाओं के मेल-जोल से तंय पाया है, जो शख्स पर बीतती हैं; और अकसर उसे बेबस कर देती हैं। मुमकिन है कि जिस अंदरूनी उकसाव का वह अनुभव करता है, जो जाहिर में उसकी अपनी इच्छा या ख्वाहिश होती है, वह भी और बातों का नतीजा है। जैसाकि शोपेनहार कहता है- “आदमी इच्छा के मुताबिक़ काम कर सकता है; लेकिन इच्छा के मुताबिक़ इच्छा नहीं कर सकता।” इस निश्चयवाद में कतई तौर पर यक़ीन रखना हमें ला-मुहाला बेकार कर देता है और जिंदगी के मुताल्लिक़ मेरा सारा यक़ीन इस खयाल से बग़ावत करता है- अगरचे हो सकता है कि यह बग़ावत भी खुद पिछली घटनाओं का नतीजा हो।
मैं अपने दिमाग़ पर, आमतौर से, ऐसे फ़िलसफ़ियाना और आधि- भौतिक मसलों का बोझ नहीं डालता, जिनका कि हल न हो। कभी-कभी ये आप ही अनजाने में क़ैद के लंबे और मौन क्षणों में मेरे सामने आ जाते हैं; और कभी-कभी तो उन सरगरम लमहों में भी, जब मैं काम में लगा होता हूं। इनके आने के साथ ही मैं एक अलहदगी महसूस करने लगता हूं, या अगर ये विचार ऐसे लमहों में आये, जब मैं दुखी हुआ, तो इनसे मुझे शांति मिलती है। लेकिन आमतौर से काम या काम के विचार ही मेरे दिमाग़ में जगह पाते हैं; और उस वक़्त जबकि मुझे काम करने की आजादी नहीं रहती, तब मैं ख़याल करने लगता हूं कि काम की तैयारी कर रहा हूं।
बहुत दिनों से मैंने काम के लिए बुलाहट का अनुभव किया है; ऐसे काम के लिए नहीं, जो विचार से अलग-थलग हो, बल्कि ऐसे काम के लिए, जो एक सिलसिले के साथ, विचार से पैदा होता हो। और जब दोनों में, यानी काम और विचार में, सामंजस्य पैदा हो गया है- विचार ने काम करने की प्रेरणा दी है और काम में जाकर वह पूरा उतरा है, या काम ने विचार पैदा किया है और बातों को ज्यादा अच्छी तरह समझने का मौक़ा दिया है-तब मैंने जिंदगी को भरी-पूरी पाया है और जिदगी के उस क्षण में मैंने एक खुलती हुई गहराई पाई है। लेकिन ऐसे क्षण बिरले, बहुत बिरले रहे हैं। होता यह है कि आमतौर से काम और विचार, इनमें से एक, दूसरे से आगे बढ़ जाता है, इस तरह दोनों में सामंजस्य नहीं हो पाता, और दोनों को मिलाने में, फ़िजूल कोशिश सर्फ़ होती है। सालों पहले की बात है- एक जमाना था कि मैं काफ़ी अरसों तक किसी-न-किसी भाव के आवेश में रहा करता था; जिस काम में लगा होता, उसी में ग़र्क़ रहता। ऐसा जान पड़ता है कि मेरी जवानी के वे दिन बहुत पीछे छूट गए। सिर्फ़ इसलिए नहीं कि एक जमाना गुजर गया; बहुत-कुछ इसलिए कि उनके और आज के दरमियान तजुरबे और पुरदर्द खयालों का एक समुंदर आ गया है। पुराना जोश अब बहुत धीमा पड़ गया है, वे आवेग जो मुझे बे-क़ाबू कर देते थे, अब नरम पड़ गए हैं। अपने जज्बों और मावों पर मुझे अब ज्यादा क़ाबू हो गया है। हां, विचारों का बोझ अब अकसर काम में रुकावट डालता है और दिमाग़ में जहां यकीन रहा करता था, अब दबे-पांव संदेह आकर खड़ा हो जाता है। शायद यह उम्र का तक़ाज़ा है, या हो सकता है कि वक़्त का आम मिजाज ही ऐसा हो। और फिर भी, अबतक काम में लगने की बुलाहट मेरे अंदर अजीब गहराइयों को कुरेदती है और विचारों के साथ दो हाथ मिड़कर मैं फिर ‘उस भानंद के सुंदर उल्लास’ का तजुरबा करना चाहता हूँ, जो जोखिम और खतरे की तरफ़ भुकता है और जी मौत का ललकारकर सामना करता है। मौत के लिए मुभः कशिश नहीं, अगरचे मैं समझता हूं कि उससे मुझे डर भी नहीं लगता। जिदगी से मुंह मोड़ने, या उससे बाज आने में मुझे मक्क्रीन नहीं। जिंदगी से मुझे मुहब्बत है और वह बराबर मुझे अपनी तरफ सींचती है। अपने ढंग से मैं उसका रस लेना चाहता हूं, अगरचे मैं न जाने कितनी अनदेखी रुकावटों से घिरा हुआ हूं। लेकिन यही ख्वाहिश मुझे जिदगी के साथ खेलने को, उसकी भलक लेने को, उकसाती है-उसका गुलाम बनने के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि हम एक-दूसरे की और भी कद्र कर सकें। शायद मुझे एक उड़ाका होना चाहिए था इसलिए कि जब जिदगी का धीमापन और उदासी मुभपर छाने लगती, तो मैं उड़कर बादलों के कोलाहल में समा जाता और अपने से कहता।
मैंने सब कुछ तौलकर देख लिया; सब बातों पर विचार कर लिया, जो आनेवाले साल हैं, वे सांस की बरबादी से जंचे; जो साल पीछे छूट गए, उनमें भी सांस की बरबादी रही है- इस जिवगी, इस मौत, के मुक्राबले में उन्हें अगर तौला जाय।
क्रमशः—-