हिन्दुस्तान की कहानीः जवाहरलाल नेहरूः चैप्टर १ – अहमद‌नगर का किलाः५ : गुजरे हुए जमाने का मौजूदा जमाने से संबंध

५ : गुजरे हुए जमाने का मौजूदा जमाने से संबंध

हिंदुस्तान की कहानी’ पंडित जवाहरलाल नेहरू की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय कृतियों में से है। यह पुस्तक  विश्वविख्यात ‘दि डिस्कवरी ऑव इंडिया’ का अनुवाद है। हम उनकी पुस्तक हिन्दुस्तान की कहानी को धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है धारावाहिक में छोटे आलेख पाठकों को पसंद आयेंगे और वे इस तरह नेहरू के हिन्दुस्तान को पूरा पढ़ पायेंगे। हमें आपकी प्रतिक्रिया और सुझावों का इंतजार रहेगा ताकि हम और बेहतर कर सकें। आज पुस्तक का चैप्टर१ – अहमद‌नगर का किला का अगला भाग पढ़ें। ( संपादक )

५ : गुजरे हुए जमाने का मौजूदा जमाने से संबंध

काम करने के लिए यह उमंग, काम के जरिये तजुरबा हासिल करने की यह इच्छा, मेरे सभी खयालों और घंघों पर असर डालती रही है। किसी चीज के बारे में बराबर विचार करना-खुद तो यह एक काम है ही- थानेवाले काम का एक जुज बन जाता है। यह कोई हवाई और बगैर आधार की चीज नहीं, जिसका जिदगी और काम से कुछ ताल्लुक न हो। इसके जरिये गुजरा हुआ जमाना मौजूदा जमाने तक, काम करने के क्षण तक, रास्ता बनाता है और आनेवाला जमाना यहीं से शुरू होता है।

मेरी जेल की जिंदगी का, जिसमें जाहिरा तौर पर काम करने की गुंजा- इया नहीं रहती-खयालों और जस्बों का कुछ ऐसा ढंग है कि आनेवाले या क्र्यासी घंधे से एक रिश्ता कायम हो जाता है और इस तरह इस जिंदगी में मुझे कुछ ऐसा सार मिल जाता है, जिसके बिना वह सूनी होती और उसमें जीना दूमर हो जाता। जब दरअसल मुझे किसी काम में लगने की आजादी नहीं रह गई है, तब मैंने गुजरे हुए जमाने और इतिहास को कुछ इस तरह से समझने की कोशिश की है। चूंकि मेरे अपने तजुरबे अकसर तारीखी घटनाओं की छूकर निकले हैं और मैंने अपने मैदान में ऐसी घटनाओं पर असर भी डाला है, इसलिए इतिहास को एक जीते-जागते सिलसिले की शक्ल में क़यास करने में मुझे दिक्कत नहीं हुई है और मैं अपने को उससे कुछ हदतक एक कर सका हूं।

इतिहास से मेरा परिचय देर में हो पाया, और वह भी उस सीधे रास्ते से नहीं, जिसमें बहुत-सी घटनाओं और तारीखों की जानकारी हासिल कर उनमें ऐसे नतीजे निकाले जाते हैं, जिनका अपनी जिंदगी से ताल्लुक़ न हो। जबतक मैं यह करता रहा हूं, तबतक इतिहास का मेरे लिए कोई महत्त्व नहीं रहा। दैवी घटनाओं और आनेवाली जिदगी के मसलों में मेरी दिल- चस्पी और भी कम रही है। विज्ञान और मौजूदा जमाने के मसलों और अपनी आजकल की जिदगी में मेरी कहीं अधिक दिलचस्पी रही है।

विचारों, भावनाओं और प्रेरणाओं के किसी मेल-जोल के कारण, जिसका मुझे एक धुंधला एहसास-भर रहा है, मुझमें काम करने के लिए उमंग पैदा हुई है; और काम करने ने मुझे विचार की तरफ़ पलटाया है और मुझमें मौजूदा जमाने की जड़ें, बोते हुए जमाने में थीं, इसलिए मैंने बीते जमाने की खोजें शुरू की और उसमें जहां कहीं भी मुमकिन हुआ, मौजूदा जमाने को समझने का पता ढूंढ़ता रहा हूं। और पुरानी घटनाओं पर और ‘क़दीम लोगों के बारे में गौर करते हुए चाहे मैं अपने को कितना भी मूल गया हूं, फिर भी मैं मौजूदा जमाने की गिरफ्त से बाहर नहीं गया हूं। अगर मैंने कभी यह अनुभव किया है कि मैं एक गुजरे जमाने का आदमी हूं, तो मैंने यह मी अनुभव किया है कि मेरा सारा गुजरा हुआ जमाना सिमटकर मौजूदा वक्त में आ गया है। पुराने जमाने का इतिहास इस जमाने में समा गया, और एक जिदा हक़ीक़त बन गया है, जिसके साथ सुख और दुख के एहसास गुंये हुए हैं।

अगर गुजरे हुए जमाने में मौजूदा जमाना बन जाने की प्रवृत्ति है, तो मौजूदा जमाना मी कभी-कभी बीते हुए जमाने में समा जाता है, उसीकी तरह बे-हिस और स्थिर जान पड़ता है। काम की सरगरमी के बीच कभी- कभी ऐसी भावना पैदा हो जाती है कि जिस काम में लगे हैं, वह बोते हुए जमाने की कोई घटना है और हम उसे इस तरह देख रहे हैं, जैसे कोई किसी बीते हुए जमाने की चीज को देखता है। गुजरे हुए जमाने को और उसके मौजूदा जमाने के साथ के संबंध को खोजने की इसी कोशिश ने, आज से १२ बरस पहले, अपनी लड़की के नाम लिखे गए खतों की शक्ल में, मुझे ‘विश्व-इतिहास की झलक,’ लिखने पर आमादा किया था। मैंने कुछ सतही बंग की चीज लिखी, और जहांतक बन पड़ा, सादे ढंग से लिखा, क्योंकि एक लड़की के पढ़ने के लिए लिखी गई थी, जिसकी उम्र १५-१६ बरस की थी। लेकिन इस लिखने के पीछे वही तलाश और खोज थी। मैं अपने को एक साहसी यात्रा पर निकला हुआ समझता था, और मैंने एक-एक करके कई युगों में और वक़्तों में उन मदों और औरतों को साथी समझकर जिंदगी बिताई, जो बहुत दिन कब्ल गुजर चुके थे। जेल में मुझे फुरसत थी, किसी तरह की जल्दी नहीं थी, न एक निश्चित वक्त में काम पूरा करने का सवाल था। इसलिए मैं अपने दिमाग को सैर करने देता था, या अगर जी चाहा,तो कुछ वक़्त के लिए एक जगह ठहर लेने देता था, अपने ऊपर गहराई से असर पड़ने देता था, जिसमें कि गुजरे जमाने की सूली हड्डियों पर गोश्त और खून चढ़ जाय।

इसी तरह की एक तलाश ने, अगरचे वह ज्यादा नजदीकी वक़्त और लोगों तक महदूद थी, मुझे अपनी कहानी लिखने के लिए उकसाया था।

में खयाल करता हूं कि इन बारह सालों में मैं बहुत बदल गया हूं। मैं ज्यादा विचारशील हो गया हूं। शायद मुझमें ज्यादा सतुलन और अलहदगो की भावना और मिजाज की शांति आ गई है। अब मैं विपत्ति से, या जिसे मैं विपत्ति समझता रहा हूं, उससे, उतना नहीं घबड़ाता। मन की उथल-पुथल और परेशानी अब कम हो गई है, या ऐसी है कि स्यादा वक्त तक ठहरती नहीं, हालांकि कहीं बड़े पैमाने पर मुझपर विपत्तियां गुजरी हैं। मुझे ताज्जुब हुआ है कि ऐसा क्यों हुआ। क्या यह त्याग की भावना बढ़ जाने के सबब से है, या एहसास मोटा पड़ गया है? या क्या यह महज उस का तकाजा है, या ताकत घट रही है और जिदगी के लिए उत्साह कम हो रहा है? या ऐसा है कि मुद्दतों तक जेल में रहने की वजह से जिदगी रफ़्ता-रफ्ता क्षीण हो गई है और जो खयाल मन में भरे हुए थे, वे चले गए हैं और महज कुछ अपनी लहरिया छोड़ गए हैं? तकलीफ का मारा हुआ दिमाग अपनी बचत की कोई सूरत इड़ता है। इंद्रिया बार-बार की चोट से कुंठित हो जाती हैं, और आदमी मोचता है कि इस दुनिया पर इतनी बुराई और बदकिस्मती छाई हुई है कि उनमें कुछ कमी-वेशी हो जाने से श्यादा फर्क नहीं आता। हमारे लिए सिर्फ एक बात रह जाती है, जिसे हमसे छीना नहीं जा सकता, और वह है हिम्मत और शान के साथ अपने उन आदशों पर कायम रहना, जिनसे कि जिदगी सार्थक होती है। लेकिन यह राजनैतिक का ढंग नहीं है।

किसीने उस दिन कहा था- “मौत दुनिया में पैदा हुए हर आदमी का जन्मसिद्ध अधिकार है।” एक जाहिर-सी और सच्ची बात कहने का यह एक अजीब ढंग है। यह ऐसा जन्म-सिद्ध अधिकार है, जिससे कित्तीने इन्कार नहीं किया, न कोई कर सकता है, लेकिन जिसे हम भूले रहने, और जबतक हो सके, दूर रखने की कोशिश करते हैं। फिर भी इस बयान में एक नयापन और कशिश है। जो लोग जिंदगी की इतने कड़एपन से शिका- यत करते रहते हैं, वे अगर चाहें, तो उनके पास बच निकलन का उपाय है। अगर हम जिदगी पर काबू नहीं पा सकते, तो कम-से-कम मौत पर अधिकार कर सकते हैं। यह एक खुश करने वाला विचार है, जो बेबसी के एहसास को कम करता है।

क्रमशः—

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