हिंदुस्तान की कहानी’ पंडित जवाहरलाल नेहरू की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय कृतियों में से है। यह पुस्तक विश्वविख्यात ‘दि डिस्कवरी ऑव इंडिया’ का अनुवाद है। हम उनकी पुस्तक हिन्दुस्तान की कहानी को धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है धारावाहिक में छोटे आलेख पाठकों को पसंद आयेंगे और वे इस तरह नेहरू के हिन्दुस्तान को पूरा पढ़ पायेंगे। हमें आपकी प्रतिक्रिया और सुझावों का इंतजार रहेगा ताकि हम और बेहतर कर सकें। आज पुस्तक का चैप्टर१ – अहमदनगर का किला का अगला भाग पढ़ें। ( संपादक )
7 : अतीत का भार
मेरी क़ैद का इक्कीसवां महीना चल रहा है; चांद बढ़ता और घटता रहता है और जल्द दो साल पूरे हो चुकेंगे। और यह याद दिलाने के लिए कि मेरी उम्र ढल रही है, एक नई सालगिरह आ जायगी। अपनी पिछली चार सालगिरहें मैंने जेल में बिताई हैं- यहां और देहरादून जेल में-और कई और इससे पहले की जेल की मुद्दतों में। उनका शुमार भूल गया हूं।
इन सभी महीनों में मैं बराबर कुछ लिखने का खयाल करता रहा हूं। इसके लिए तबीयत का तकाजा भी रहा है और एक हिचक भी रही है। मेरे दोस्तों ने समझ लिया था कि जैसा मैं पिछली कुंद की मुद्दतों में करता रहा हूं, इस बार भी कोई नई किताब लिखूंगा। गोया यह बात मेरी आदत में दाखिल हो गई है।
फिर भी मैंने कुछ लिखा नहीं। यह बात मुझे एक हद तक नापसंद थी कि कोई किताब विना किसी खास मक़सद के तैयार कर दी जाय। लिखना खुद कुछ दुश्वार न था, लेकिन एक ऐसी चीज पेश करना, जिसका कुछ महत्त्व हो हो और जो मेरे जेल में रहते हुए भी बासी न पड़ जाय, जबकि दुनिया आगे बढ़ जाय, एक दूसरी ही बात थी। मैं आज के या कल के लिए म लिखूंगा, बल्कि एक अनजाने भविष्य के लिए और संभवतः दूर भविष्य के लिए लिखूंगा। और कब के लिए? शायद जो मैं लिखें वह कभी प्रकाशित नहो; क्योंकि जो साल मैं कैद में बिताऊं, वे ऐसे हो सकते हैं कि उनमें दुनिया में और भी खलबली और संघर्ष हो, बनिस्वत लड़ाई के उन सालों के, जो धन बीत चुके हैं। मुमकिन है हिंदुस्तान खुद जंग का मैदान बने, या यहां खानाजंगी छिड़ जाय ।
और अगर हम इन सभी इमकानों से बच भी जायं, तो भी भविष्य को किसी तिथि के लिए लिखना एक जोखिम का काम होगा, क्योंकि आज के मसले मुमकिन है, उस वक़्त तक खत्म हो चुके हों, और उनकी जगह नये ही मसले खड़े हो गये हों। सारी दुनिया में फैली हुई इस लड़ाई को में सिर्फ इस नजर से नहीं देख सकता था कि यह एक लड़ाई है, जो औरों से बड़ी और ज्यादा दूर तक फैली हुई है। जिस दिन से यह शुरू हुई, बल्कि उसके पहले से, मुझे जान पड़ने लगा था कि बहुत बड़ी उथल-पुथल मचा देनेवाली तबदीलियां आनेवाली हैं और उस वक़्त मेरी नाचीज रचनाएं पुरानी पड़ चुकी होंगी। और फिर वे किस काम आयेंगी ?
ये सब विचार मुझे परेशान करते रहे और लिखने से रोकते रहे और इनके पीछे मेरे दिमाग़ के छुपे हुए कोने में और गहरे सवाल भी समाये हुए थे, जिनका मुझे कोई सहज उत्तर नहीं मिल रहा था।
इसी तरह के खयाल और ऐसी ही दिक़्क़तें मेरे सामने पिछली, यानी अक्तूबर १९४० से दिसंबर १९४१ तक की, कैद की मुद्दत में भी आई थी, जिसे मैंने देहरादून जेल की अपनी पुरानी कोठरी में, जहां छः साल पहले ‘मेरी कहानी’ लिखना शुरू किया था, काटा था। यहां पर १० महीने तक कुछ भी लिखने का मेरा जी न चाहा और अपना वक़्त मैंने पढ़ने या जमीन खोदकर र मिट्टी मिट्टी और फूलों के के र साथ खिलवाड़ करने में बिताया। आखिरकार कुछ लिखा भी। जो कुछ लिखा, वह ‘मेरी कहानी’ का सिलसिला ही था। कुछ हफ्तों तक मैं तेजी से लगातार लिखता रहा। लेकिन मेरा काम पूरा न हुआ था कि अपनी चार साल की कैद की मुद्दत के खत्म होने से बहुत पहले मैं रिहा कर दिया गया ।
यह अच्छी ही बात थी कि जो काम मैंने शुरू किया था, उसे खत्म नहीं कर पाया था, क्योंकि अगर मैं उसे खत्म कर चुका होता, तो उसे किसी प्रकाशक को दे देने की इच्छा हुई होती। उसे अब देखता हूं, तो अनुभव करता हूं कि यह चीज कितने कम मूल्य की है; उसका बहुत-सा हिस्सा अब कितना बासी और नीरस जान पड़ता है। जिन घटनाओं का इसमें बयान है, उनका सारा महत्त्व जाता रहा है और अब वह एक अघ-भूले अतीत के मलबे की तरह है, जिस पर बाद के ज्वालामुखी के उफ़ानों का लाबा फैला हुआ है। उनमें मेरी दिलचस्पी जाती रही है। जो चीजें मेरे दिमाग़ में बच रही है, वे हैं निजी तजुरवे, जिनकी छाप मुझ पर पड़ी है, यानी हिंदुस्तान की जनता से-जो इतनी विविध है, फिर भी जिसमें इतनी अद्भुत -અવુ एकता है- बड़ी संख्या में संपर्क में आना; दिमाग़ की कुछ उड़ानें; दुख की कुछ लहरें और उन पर क़ाब पाने पर संतोष और खुशी; काम में सिर्फ किये गए वक़्त का आनंद। इनमें से ज्यादातर बातें ऐसी हैं कि उनके बारे में कुछ लिखा नहीं जा सकता। आदमी की भीतरी जिदगी, भावों और विचारों के बारे में कुछ अपनापन है कि दूसरों तक उसका पहुंचाया जाना न वाजिब है और न मुमकिन। फिर मो इन निजी और गैर-निजी संपकों की बड़ी कीमत है। वे व्यक्ति पर असर डालते हैं, बल्कि उसे ढालते हैं और जिंदगी और मुल्क और दूसरी क़ीमों के बारे में उसके खयालों में तबदीली पैदा करते हैं।
जैसे मैं और जेलों में किया करता था, वैसे ही अहमदनगर के क़िले में भी बागवानी शुरू की और रोज कई घंटे, यहांतक कि कड़ी धूप में भी, जमीन खोदकर क्यारियां तैयार किया करता था। जमीन बड़ी खराब और पथरीली थी और पिछली इमारतों के ईट-रोड़ों से भरी हुई थी। यहां पुरानी इमारतों के अवशेप भी थे, क्योंकि यह एक तारीखी मुक़ाम है, जहां राजि- श्ता जमाने में बहुतेरी लड़ाइयां हुई हैं और महलों के पड्यंत्र चलते रहे हैं। अगर के इतिहास का खयाल किया जाय, तो इस जगह का यह इतिहास बहुत पुराना नहीं है और व्यापक दृष्टि डाली जाय, तो इतना महत्त्वपूर्ण भो नहीं है। लेकिन इससे संबंध रखनेवाली एक घटना है, जो माक की है और जिसकी अब भी याद की जाती है। यह है एक खूबसूरत औरत चांदबीवी की बहादुरी, जिसने इस क़िले की रक्षा की थी और जिसने हाथ में तलवार लेकर अपने सिपाहियों के साथ अकबर की शाही फ़ीज का सामना किया था। अपने ही आदमियों में से एक के हाथों उसकी मौत हुई थी।
इस अभागी धरती को खोदते हुए हमें पुरानी दीवालों के हिस्से मिले हैं और जमीन की सतह से बहुत नीचे दबी हुई इमारतों के गुंबदों के ऊपरी हिस्से भी। हम इस काम में ज्यादा आगे नहीं बढ़ सके, क्योंकि अधिकारियों ने यह पसंद नहीं किया कि गहरी खुदाई की जाय या पुरातत्त्व के बारे में खोज की जाय और न हमारे पास इस काम के लिए ठीक साघन ही थे। एक वार हमें पत्थर में खुदा हुआ एक कमल मिला, जो किसी दीवार के किनारे पर, शायद किसी दरवाजे के ऊपर था।
मुझे याद आई एक दूसरी और कम खुशगवार खोज, जो मैंने देहरा- दून जेल में की थी। तीन साल हुए, अपने छोटे-से अहाते में जमीन खोदते हुए मुझे बीते हुए जमाने का एक अजीब निशान मिला। जमीन की सतह से काफ़ी गहराई पर दो पुराने खंभों के बचे हुए हिस्से मिले और हमने इन्हें किसी कुदर उत्तेजना के साथ देखा। वे पुरानी सूलियों के टुकड़े थे, जो वहां तीस-चालीस साल पहले काम में लाई जाती थीं। यह जेल अब बहुत दिनों से सूली चढ़ाने के काम में नहीं लाया जाता था और पुरानी सूलियों के सब जाहिरा निशान हटा दिये गए थे। हमने उसकी जड़ को पा लिया था और उखाड़ डाला था और जेल के मेरे सभी साथी, जिन्होंने इस काम में हाथ बंटाया था, इस बात से खुश थे कि हम लोगों ने आखिरकार इस मनहूस चीज को निकाल फेंका था। अब मैंने अपनी कुदाल अलग रख दी है और कलम उठा लिया है।
इस वक्त जो कुछ लिखें, उसका शायद वही हथ हो, जो मेरी देहरादून जेल की अपूरो पांडुलिपि का हुआ था। मौजूदा वक्त के बारे में, जबतक कि काम में लगकर उसका तजुरबा हासिल करने के लिए आजाद नहीं हैं, मैं कुछ नहीं लिख सकता। यह तो मौजूदा वक्त में काम करने की जरूरत है, जो उसे सजीव ढंग से हमारे सामने लाती है। तब फिर उसके बारे में मैं सहज में और सुगमता के साथ लिख सकता हूं। जेल में रहते हुए यह वक़्त कुछ धुंधला-सा, परछाई-जैसा जान पड़ता है, उसे मजबूती से पकड़ नहीं सकता, उसका ठोस अनुभव नहीं कर पाता। सही मानी में वह मेरे लिए मौजूदा वक्त रह नहीं जाता और न उसे हम गुजरे हुए जमाने-जैसा समझ सकते है, क्योंकि उसमें गुजरे हुए जमाने की गतिहीनता और मृत्तिमत्ता नहीं।
न मेरे लिए यही ममकिन है है कि मैं पैगंबर का जामा पहनें और भविष्य के बारे में लिखूं। मेरा दिमाग कभी-कभी भविष्य के बारे में सोचता है और उसका परदा फाड़ने की ओर उसे अपनी पसंद के कपड़े पहनाने की कोशिश करता है। लेकिन ये सब व्यर्थ की कल्पनाएं हैं और भविष्य अनिश्चित और अनजाना बना रहता है और कोई नहीं कह सकता कि वह फिर हमारी उम्मीदों पर पानी न फेर देगा और इन्सान के सपनों को झुठला न देगा। अब अतीत या बीता हुआ जमाना रह जाता है। लेकिन गुजरी हुई घटनाओं के बारे में मैं शास्त्रीय ढंग से इतिहासकार या विद्वान की तरह नहीं लिख सकता। न मुझमें इसको लियाक़त है, न मेरे पास इसके लिए साधन हैं, और न ऐसी तालीम मिली है और न इस तरह के धंधे में लगने को इस वक़्त जो चाहता है। गुजरा हुआ जमाना मुझ पर भारी गुजरता है या जब कभी उसका मोजूदा वक्त से लगाव हुआ, तो मुझ में सरगरमी पैदा करता है और इस जिदा बक़्त का एक पहलू बन जाता है। अगर ऐसा न हो, तो फिर वह एक ठंडो, चंजर, बेजान और गैर-दिलचस्प चीज है। उसके बारे में में महज उस हालत में लिख सकता हूं- जैसा मैंने पहले भी किया है- जबकि उसका अपने मौजूदा कामों और खयालों से ताल्लुक़ पैदा करा सकूं; और उस वक़्त इतिहास लिखने का धंधा गुजरे हुए जमाने के बोझ से कुछ पनाह दिलाता है। मैं समझता हूं कि मनोविश्लेषण का यह भी एक तरीका है; फ़र्क इतना है कि यह व्यक्ति पर लागू न किया जाकर किसी जाति या मनुष्य-मात्र पर लागू किया जाता है।
गुजरे हुए जमाने का-उसकी अच्छाई और बुराई दोनों का ही-बोझ एक दवा देनेवाला और कभी-कभी दम घुटानेवाला बोझ है, खासकर हम लोगों में से उनके लिए, जो ऐसी पुरानी सभ्यता में पले हैं, जैसी चीन या हिंदुस्तान की है। जैसा कि नीत्यों ने कहा है-“न केवल सदियों का ज्ञान, बल्कि सदियों का पागलपन भी हममें फूट निकलता है। वारिस होना खतरनाक है।” मेरी विरासत क्या है? मैं किस चीज का वारिस हूं ? उस सबका, जिसे इन्सान ने दसियों हजार साल में हासिल किया है; उस सबका, जिस पर इसने विचार किया है, जिसका इसने अनुभव किया है या जिसे इसने सहा है या जिसमें इसने मुख पाया है; उसके विजय की घोषणाओं का और उसकी हारों की तीखी वेदना का; आदमी की उस अचरज-भरी जिंदगी का. जो इतने पहले शुरू हुई और अब भी चल रही है और जो हमें अपनी तरफ इशारा करके बुला रही है। इन सबके, बल्कि इनसे भी ज्यादा के सभी इन्सानों की शिरकत में, हम बारिस है। लेकिन हम, हिंदुस्तानियों की एक खास विरासत या दाय है। वह ऐसी नहीं कि दूसरे उससे वंचित हों, स्पोंकि सभी विरासतें किसी एक जाति की न होकर सारी मनुष्य जाति की होती हैं। फिर भी यह है, जो हम पर खास तौर पर लागू है, जो हमारे मांस और रक्त में और हड्डियों में समाई हुई है और जो कुछ हम हैया हो सकेंगे, उसमें उसका हाथ है। यह खास दाय क्या है और इसका मोजूदा वक्त से क्या लगाव है, इसके बारे में मैं बहुत दिनों से गौर करता रहा हूं और इसके बारे में में लिखना चाहूंगा, अगरचे विषय इतना जटिल और कठिन है कि मैं उससे डर जाता हूं। इसके अलावा मैं महज उसकी सतह को छू सकता हूं, उसके साथ न्याय नहीं कर सकता। लेकिन इसके प्रयान में लगकर मैं शायद अपने साथ न्याय कर सकूं और वह इस तरह कि अपने विचारों को सुलझा सकू और उसे विचार और काम की आनेवाली मंडितों के लिए तैयार कर सकू।
इस विषय को देखने का मेरा ढंग लाजिमी तौर पर अकसर एक निजी ढंग होगा; यानी किस तरह खयाल मेरे दिमाग में उपजा, क्या शकुले उसने अख्तियार की, किस तरह उसने मुझ पर असर डाला और किस तरह उसने मेरे काम को प्रभावित किया। कुछ ऐसे अनुभवों का बयान जरूरी होगा, जो बिलकुल निजी हैं और जिनका ताल्लुक इस मजमून के विस्तृत पहलुओं से न होगा, बल्कि जो ऐसे हैं कि जिनका मुझ पर रंग पड़ा है और जिन्होंने इस सारे प्रश्न पर जो मेरा रुख है, उस पर बसर डाला है। मुल्कों और लोगों के बारे में हमारी रायें कई बातों पर निर्भर करती है और अगर हमारे निजी संपर्क रहे हैं, तो ये उन बातों में से हो हैं। अगर हम किसी मुल्क के लोगों को निजी तौर पर नहीं जानते, तो हम अक्सर उनके बारे में और भी गलत रायें कायम कर लेते हैं और उन्हें अपने से बिलकुल जुदा और अजनबी समझने लगते हैं ।
जहांतक अपने देश का संबंध है, हमारे निजी संपर्क अनगिनत हैं और ऐसे संपकों के जरिये हमारे सामने अपने देशवासियों की बहुत-सी अलग-अलग तस्वीरें आती हैं, या एक मिली-जुली तस्वीर हमारे दिमाग में बनती है। इस तरह अपने दिमाग की चित्रशाला को हमने तस्वीरों से मरा है। उनमें से कुछ सूरतें साफ़, जीती-जागती और ऐसी हैं, जो मानो ऊपर से मेरी तरफ़ झांक रही हो और जिंदगी के ऊंचे उद्देश्यों की याद दिलाती हों। फिर भी ये बहुत पुरानी- मो चीजें, किसी पढ़े हुए किस्से-जैसी जान पड़ती हैं। और बहुत-सी दूसरी तस्वीरें भी हैं, जिनके गिर्द पुराने दिनों के साथ की और दोस्ती की ऐसी याद लगी हुई है, जो जिदगी में मिठास पैदा करती है। और फिर जनता की अनगिनत तस्वीरें हैं- हिंदुस्तान के मदों, औरतों और बच्चों की, जिनकी एक भीड़ लगी हुई है, और जो समी मेरी तरफ़ देख रहे हैं और मैं इस बात के समझने की कोशिश में हूं कि उन हजारों आंखों के पीछे क्या है। मैं इस कहानी का आरंभ एक ऐसे अध्याय से करूंगा जो बिलकुल निजी है, क्योंकि यह मेरी उस वक़्त की मानसिक कैफ़ियत का पता देता है, जो मेरे आत्म-चरित- ‘मेरी कहानी’ के आखिर में दिये गए वक़्त से बाद की है। लेकिन मैं एक दूसरी आत्म-कथा लिखने नहीं बैठा हूं, अगरचे अंदेशा मुझे इस बात का है कि इस बयान में जाती टुकड़े अकसर मौजूद रहेंगे। संसार-व्यापी युद्ध चल रहा है। यहां अहमदनगर के क़िले में बैठा हुआ, कुंद की मजबूरी के कारण, मैं ऐसे वक़्त में बेकार हूं, जबकि एक भयानक सरगरमी सारी दुनिया को जला रही है। मैं कभी-कभी इस बेकारी से ऊब जाता हूं और उन बड़ी बातों और बहादुरी के बारे में सोचता हूं, जो मेरे दिमाग में बहुत दिनों से भर रही हैं। मैं इस लड़ाई को एक अलहदगी के साथ देखने को कोशिश करता हूं, इस तरह, जैसे कोई कुदरती आफ़त को, किसी दैवी दुर्घटना को, बड़े भूकंप या बाढ़ को देखता है। जाहिर है कि मैं अपने को बहुत ज्यादा चोट या गुस्से या बेकरारी से बचाना चाहूं, तो इसके अलावा दूसरा कोई उपाय नहीं। और बर्बर और विनाश करनेवाली प्रकृति की इस विभीषिका में मेरी अपनी तकलीफें नाचीज बन जाती हैं।
मुझे गांधीजी के वे लफ्ज़ याद हैं, जो उन्होंने ८ अगस्त, १९४२ की भविष्य-सूचक शाम को कहे थे- “दुनिया की आंखें अगरचे आज खून से लाल हैं, फिर भी हमें दुनिया का सामना शांत और साफ़ नजरों से करना चाहिए।”
भाग 1 समाप्त
आगे भाग -2