हिंदुस्तान को कहानी :चेप्टर 2 बेडेनवाइलर लोज़ान – भाग1:  कमला

हिंदुस्तान की कहानी’ पंडित जवाहरलाल नेहरू की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय कृतियों में से है। यह पुस्तक  विश्वविख्यात ‘दि डिस्कवरी ऑव इंडिया’ का अनुवाद है। हम उनकी पुस्तक हिन्दुस्तान की कहानी को धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है धारावाहिक में छोटे आलेख पाठकों को पसंद आयेंगे और वे इस तरह नेहरू के हिन्दुस्तान को पूरा पढ़ पायेंगे। हमें आपकी प्रतिक्रिया और सुझावों का इंतजार रहेगा ताकि हम और बेहतर कर सकें। आज पुस्तक का चैप्टर 2– बेडेनवाइलर लोज़ान- भागः1 कमला ( संपादक )

४ सितंबर, १९३५ को में अलमोड़ा के पहाड़ी जेल से यकायक रिहा कर दिया गया, क्योंकि समाचार आया था कि मेरो पल्लो को हालत नाजुक है। वह बहुत दूर जर्मनी के व्लैक फॉरेस्ट में बेडेनबाइलर के एक स्वास्थ्य-गृह में थी। मोटर और रेल के जरिये में फ़ौरन इलाहाबाद के लिए रवाना हुआ, और वहां में दूसरे दिन पहुंच गया। उसी दिन तीसरे पहर, हवाई जहाज से, यूरोप के लिए चल पड़ा। हवाई जहाज ने मुझे कराची, बगदाद और काहिरा पहुंचाया और सिकंदरिया से एक सी-प्लेन ब्रिडिसी ले गया। ब्रिडिसी से मैं रेलगाड़ी से बैसले पहुंबा, जो स्विजर लैंड में है। ९ सितंबर को शाम को, यानी इलाहाबाद से चलने के ४ दिन और अलमोड़ा से छूटने के ५ दिन बाद, में बेडेतवाइलर पहुंच गया।

कमला के चेहरे पर मैंने वही पुरानी साहस भरी मुस्कराहट देखी। लेकिन वह बहुत कमजोर हो गई थी, और दर्द से उसे इतनी तकलीफ़ थी कि ज्यादा बात नहीं कर पाती। थो। शायद मेरे पहुंच जाने से कुछ अंतर हुआ, क्योंकि दूसरे दिन वह कुछ अच्छो रही और यह सुधार कुछ दिनों तक जारी रहा। लेकिन संकट को हालत बनी रही और रपता-रफ़्ता उसकी ताकत घट रही थी। उसकी मौत का खयाल जी में बैठ न पाता था और मैं खवाल करने लगा कि उसकी हालत सुबर रही है और अगर सामने आया हुआ संकट टल जाय, तो वह अच्छी हो जायगी। डाक्टर लोग, जैसाकि उनका क़ायदा है, मुझे उम्मीद दिलाते रहे। उस वक़्त संकट टलता दिखाई भो दिया और वह संभली रही। पर इतनी अच्छी तो कभी न जान पड़ी कि देर तक बातें कर सके। हम लोग थोड़ी-थोड़ी बातें करते, और जब मैं देखता कि उसे थकान मालूम पड़ रही है तब मैं चुप हो जाया करता। कभी-कभी मैं उसे कोई किताब पढ़कर सुनाता। उन किताबों में से, जो मैंने उसे पढ़कर सुनाई, एक को याद है, और वह थी पर्ल बक को ‘दि गुड अर्थ’ (धरती माता)। उसे मेरा इस तरह किताब पड़ना अच्छा लगता, लेकिन हमारी रफ़्तार बहुत धोमी होती । इस छोटे-से कसबे में, अपने पेन्शन या ठहरने की जगह से मैं सवेरे और तीसरे पहर पैदल ही स्वास्थ्य-गृह जाया करता था और कमला के साथ चंद घंटे बिताया करता था। जी में न जाने कितनी बातें भरी हुई थीं, जिन्हें मैं उससे कह‌ना चाहता था। लेकिन मुझे अपने को रोकना पड़ता। कभी-कभी हम पुराने दिनों की बातें करते पुरानी स्मृतियों की, और हिंदुस्तान के आपस के लोगों की। कभी-कभी, जरा लालसा से, आनेवाले दिनों की, और उस वक्त हम लोग क्या करेंगे, यह सोचते। उसकी हालत नाजुक थी, लेकिन उसे जीने की आशा बनी रही। उसकी आंतों में चमक और ताकत कायम थी और उसका चेहरा आमतौर पर खुश रहता। इक्के-दुक्के मित्र, जो उससे मिलने आते, उन्हें। कुछ होता, क्योंकि जैसा उन्होंने समझ रखा था, उससे वह अच्छी दिखती। वे वे लोग उन चमकीली आंखों और मुस्कराते हुए चेहरे से धोखे में आ जाते। शरद ऋतु की लंबी शामें मैं अपने पेन्शन के कमरे में अकेले बैठकर बिताता, या कभी-कभी खेतों से होता हुआ मैं जंगल तरफ निकल जाता। एक-एक करके, कमला के सैकड़ों चित्र और उसके गहरे और अनमोल व्यक्तित्व के सैकड़ों पहलू मेरे दिमाग में फिरते रहते। हमारे व्याह के लगभग २० वर्ष बीत चुके थे, फिर भी न जाने कितनी बार मैं उसके मन और आत्मा के नये रूपों को देखकर अचंमे में आया था। मैंने उसे कितनी ही तरह से जाना था और बाद के दिनों में तो मैंने उसे समझ पाने की कोशिश भी की थी। यह बात नहीं कि मैं उसे बिलकुल पहचान म सका हूं। हां, मुझे अकसर संदेह होता था कि मैंने उसे पहचाना भो या नहीं। उसमें परियों-जैसी कुछ भेद-भरी बात थी, जो सच्ची होते हुए भी ऐसी थी कि उसे ग्रहण नहीं किया जा सकता था। कुछ थोड़ी-सी स्कूली तालीम के अलावा उसे कायदे से शिक्षा नहीं मिली थी। उसका दिमारा शिक्षा की पगडंडियों में से होकर नहीं गुजरा था। हमारे यहां वह एक भोली लड़की की त तरह आई और जाहिरा उसमें कोई। ऐसी जटिलताएं नहीं थीं, जो आजकल आमतौर से मिलती है। चेहरा तो उसका लड़कियों-जैसा बढाबर बना रहा, लेकिन जब वह सयानी होकर औरत हुई, तब उसकी आंखों में एक गहराई, एक ज्योति, आ गई और यह इस बात की सूचक थी कि इन शांत सरोवरों के पीछे तूफ़ान चल रहा है। वह नई रोशनी की लड़‌कियों-जैसी न थी, न तो उसमें वे आदतें थी, न वह चंचलता थी। फिर भी नये तरीक़ों में वह काफ़ी आसानी से घुल-मिल जाती थी। वर-असल वह एक हिंदुस्तानी और खासतौर पर काश्मीरी लड़की थी- चैतन्य और गर्वीली, बच्चों-जैसी और बड़ों-जैसी, बेवकूफ और चतुर। अजनबी, लोगों से और उनसे, जिन्हें वह पसंद नहीं करती थी, वह संकोच करती; लेकिन जिन्हें वह जानती और पसंद करती थी, उनसे वह जी खोलकर मिलती और उनके सामने उसकी खुशी फूटी पड़ती थी। चाहे जो दारूस हो, उसके बारे में बह झट अपनी राय कायम कर लेती। यह राय उसकी हमेशा सही न होती, और न हमेशा वह इन्साफ की नींव पर बनी होती, लेकिन अपनी इस सहज पसंद या विरोध पर वह दृढ़ रहती। उसमें कपट नाम को न था। अगर वह किसी व्यक्ति को नापसंद करती और यह बात जाहिर हो जाती, तो वह उसे छिपाने की कोशिश न करती। कोशिश भी करती तो शायद वह इसमें काम- याब न होती। मुझे ऐसे इन्सान कम मिले हैं, जिन्होंने मुझ पर अपनी साफ़-दिली का वैसा प्रभाव डाला हो, जैसा कि उसने डाला था।

जारी…..

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