हिंदुस्तान को कहानी :चेप्टर 2 बेडेनवाइलर लोज़ान – भाग 2:  हमारा ब्याह और उसके बाद

हिंदुस्तान की कहानी’ पंडित जवाहरलाल नेहरू की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय कृतियों में से है। यह पुस्तक  विश्वविख्यात ‘दि डिस्कवरी ऑव इंडिया’ का अनुवाद है। हम उनकी पुस्तक हिन्दुस्तान की कहानी को धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है धारावाहिक में छोटे आलेख पाठकों को पसंद आयेंगे और वे इस तरह नेहरू के हिन्दुस्तान को पूरा पढ़ पायेंगे। हमें आपकी प्रतिक्रिया और सुझावों का इंतजार रहेगा ताकि हम और बेहतर कर सकें। आज पुस्तक का चैप्टर 2– बेडेनवाइलर लोज़ान- भाग २ : हमारा ब्याह और उसके बाद (संपादक )

 मैंने अपने ब्याह के शुरु के सालों का खयाल किया, जबकि बावजूद इस बात के कि मैं उसे हद से ज्यादा चाहता था, मैं करीब-करीब उसे भूल गया था, और बहुत तरह से उसे उस संग से वंचित रखता था, जिसका उसे हक था, क्योंकि उस वक़्त मेरी हालत एक ऐसे शख्स की-सी थी, जिस पर कि भूत सवार हो। मैं अपना सारा वक्त उस मकसद को पूरा करने में लगा रहा था, जिसे मैंने अपनाया था। अपनी एक अलग सपने को दुनिया में रहा करता था और अपने गिर्द के चलते-फिरते लोगों को असार छाया की तरह समझा करता था, अपनी वक्ति-भर में काम में लगा रहता था; मेरा दिमात उन बातों से लबरेज रहता, जिनमें मैं लगा हुआ था। मैंने उस मकसद में अपनी सारी ताकत लगा दी थी और उसके अलावा किसी और काम के लिए ताकत वाकी न थी।

लेकिन उसे भलना बहुत दूर रहा जब-जब और पंचों से निपटकर उसके पास आता, तो मुझे ऐसा अनुभव होता कि किसी सुरक्षित बंदरगाह में पहुंच गया हूं। अगर घर से कई दिनों के लिए बाहर रहता, तो उसका ध्यान करके मेरे मन को शांति मिलती और में बेचैनी के साथ घर लौटने की राह देखता। अगर वह मुझे डाइस और शक्ति देने के लिए न होती और मेरे बके मन और शरीर को नया जीवन न देती रहती, तो भला में कर ही क्या पाता ?

वह जो कुछ मुझे दे सकती थी, उसे मैंने उससे ले लिया था। इसके बदले में इन गुरू के दिनों में मैंने उसे क्या दिया ? जाहिरा तौर पर मैं नाकामयाच रहा, और मुमकिन है कि उन दिनों की गहरी छाप उस पर हमेशा बनी रही हो। वह इतनी गर्मीली और संवेदनशील थी कि मुझसे मदद मांगना नहीं थी, अगरचे जो मदद में उसे दे सकता था, वह दूसरा नहीं दे सकता था। वह राष्ट्रीय लड़ाई में अपना अलग हिस्सा लेना चाहती थी; महज दूसरे के आसरे रहकर या अपने पति की परछाईं बनकर वह नहीं रहना चाहती थी। वह चाहती थी कि दुनिया की निगाहों में ही नहीं, बल्कि अपनी निगाहों में वह खरी उतरे। मुझे इससे ज्यादा किसी दूसरी बात से खुशी नहीं हो सकती थी, लेकिन मैं और कामों में इतना फंसा हुआ था कि सतह से नीचे देख ही नहीं पता था, और वह क्या खोजती थी या इतनी उत्कंठा से क्या चाहती थी, उस ओर से मेरी आंखें बंद थीं। और फिर मुझे इतनी बार जेल जाना पड़ा कि मैं उससे अलग भी रहा, या वह बीमार रहो। रवींद्रनाथ ठाकुर के नाटक की चित्रा की तरह वह मुझसे यह कहती जान पड़ती थी- “मैं चित्रा हूं, देवी नहीं हूं कि मेरी पूजा की जाय। अगर तुम खतरे और साहस के रास्ते में मुझे अपने साथ रखना मंजूर करते हो, अगर तुम अपनी जिंदगी के बड़े कामों में मुझे हिस्सा लेने की इजाजत देते हो, तो तुम मेरी असली आत्मा को पहचानोंगे।” लेकिन उसने यह बात मुझसे शब्दों में नहीं कही। धीरे-धीरे यह संदेश में उसकी आंखों में पढ़ पाया।

सन १९३० के शुरू के महीनों में मुझे उसकी इस इच्छा की झलक मिली। फिर हम लोग साथ-साथ काम करते रहे और इस अनुभव में मुझे एक नया आनंद मिला। कुछ वक्त तक हम लोग मानो जिदगी की तेज धार पर साथ-साथ बहते रहे। लेकिन बादल मंडरा रहे थे और एक क़ौमी हंगामा सामने था। हमारे लिए ये सुख के महीने थे, लेकिन वे बहुत जल्द खत्म हो गए और अप्रैल के शुरू में मल्क असहयोग और फिर सरकारी दमन के चंगुल में पड़ गया और मैं फिर जेल चला गया।

हम सब मर्द लोग ज्यादातर जेल में थे। उस वक़्त एक हैरत अंगेज घटना घटी। हमारी औरतें मैदान में आई और उन्होंने लड़ाई को संभाला।यह सही है कि कुछ औरतें सदा से इस काम में लगी रही हैं, लेकिन अब तो उनके दल-के-दल उमड़ पड़े, जिसकी वजह से न सिर्फ अंग्रेजी सरकार को, बल्कि खुद उनके मदों को अचरज हुआ। और हमारे समाने जो नज्जारा था, वह यह था कि ऊंचे और बीच के वर्ग की औरतें, जो अपने घरों में महफ़ज जिंदगियां बिता रही थीं, किसान औरतें, मजदूर औरतें, अमीर औरतें, गरीब औरते, हजार की तादाद में सरकारी हुक्म को तोड़ने और पुलिस की लाठियों का सामना करने के लिए तैयार थीं। साहस और वहादुरी का यह खाली दिखावा नहीं था। इससे भी बड़ी जो बात थी वह यह थी कि उन्होंने संगठन की शक्ति दिखाई ।

जब ये खबरें हम तक नैनी जेल में पहुंची, उस वक़्त हममें जो पुलक पैदा हुई, उसे मैं कभी मूल नहीं सकता। हमारे दिल हिंदुस्तान की औरतों का खयाल करके गर्व से भर गए। हम लोग इस घटना के वारे में आपस में मुश्किल से बातें कर पाते थे, क्योंकि हमारे दिल भरे हुए थे और हमारी आंखें आंसुओं से धुंधली हो रही थीं।

मेरे पिताजी बाद में आकर नैनी जेल में हम लोगों में शरीक़ हुए। उन्होंने बहुत-सी बातें बताई, जिन्हें हम पहले से नहीं जानते थे। जेल से बाहर रहते हुए वह असह्योग आंदोलन के अगुआ थे, लेकिन सारे हिंदुस्तान में औरतों में जो आग भड़क उठी थी, उसे उन्होंने नहीं उकसाया था। बल्कि सच बात तो यह है कि पुराने ढंग के बड़ों की तरह वह इस बात को पसंद नहीं करते थे कि नौजवान और बूढ़ी औरतें गरमी की धूप में सड़कों पर घूमती फिरें और पुलिस से मोर्चा लें। लेकिन उन्होंने जनता का रुख देख लिया था और किसीके, यहांतक कि अपनी स्त्री, बेटियों और वह के, उत्साह को रोका नहीं। उनसे मालूम हुआ कि सारे मुल्क में हमारी औरतों ने जो उत्साह, हिम्मत और क़ाबलियत दिखाई, उससे उन्हें कितनी खुशी और हैरत हुई है। अपने घर की लड़कियों के बारे में वह मुहब्बत-भरे गर्व के साथ बातें करते थे ।

मेरे पिताजी के कहने से २६ जनवरी, १९३१ को सारे हिदुस्तान में आजादी के दिन की सालगिरह मनाई गई और हजारों आम जलसों में ‘यादगार’ के प्रस्ताव पास हुए। इन जलसों पर पुलिस की रोक लगी हुई थी, और इनमें से बहुतों को बल-पूर्वक तितर-बितर किया गया। पिताजी ने इन जलसों का संगठन अपनी बीमारी में बिस्तर पर से किया था और यह सचमुच संगठन की विजय थी, क्योंकि हम अखबारों या डाक या तार या टेलीफ़ान का इस्तेमाल नहीं कर सकते थे और न किसी क़ानूनी तौर पर क़ायन किये हुए छापेखाने का ही। फिर भी एक मुकरिर किये गए दिन और वक़्त पर इस बड़े मुल्क में, सब जगह, दूर-दूर के गांवों तक में, यह प्रस्ताव हर एक सूबे की भाषा में पढ़ा गया और मंजूर किया गया। इस प्रस्ताव के मंजूर होने के १० दिन बाद मेरे पिताजी की मृत्यु हुई।

यह प्रस्ताव लंबा था, लेकिन उसका एक हिस्सा हिंदुस्तान को औरतों के बारे में था- “हम हिंदुस्तान की औरतों के प्रति अपनी श्रद्धा और तारीफ़ के गहरे भावों को जाहिर करते हैं, जिन्होंने मातृभूमि के इस संकट के मौके पर अपने घरों की हिफाजत को छोड़कर अचूक हिम्मत और बरदाश्त की ताक़त दिखाई है जो अपने मर्दों के साथ कंबे-से-कंबा लगाकर हिंदुस्तान की राष्ट्रीय सेना के सामने की क़तार में शामिल रही हैं और जिन्होंने जंग की क्रूरबानियों और विजयों में उनके साथ हिस्सा बंटाया है…”

इस उथल-पुथल में कमला ने भी हिम्मत के साथ एक खास हिस्सा लिए और उसके ना-तजुरबेकार कंधों पर, इलाहाबाद में, हमारे काम के संगठन की जिम्मेदारी उस वक़्त आई, जबकि हरएक जाना हुआ काम करने बाला जेल में था। तजुरबे की कमी को उसने अपने जोश और उत्साह से पूरा किया और कुछ ही महीनों के भीतर वह इलाहाबाद के गर्व की चीज बन गई।

मेरे पिताजी की आखिरी बीमारी और मौत की छाया में हम फिर मिले। यह मुलाक़ात दोस्ती और आपस की समझदारी के एक नये ही आधार पर थी। कुछ महीनों बाद, अपनी बेटी के साथ जब हम लोग कुछ दिनों के लिए लंका, अपनी पहली सैर के लिए और यह आखिरी मी थी- गये, तो ऐसा जान पड़ता था कि हमने एक-दूसरे को एक नये रूप में देखा है। ऐसा जान पड़ता था कि हमने जितने पिछले साल साथ में बिताये थे, वे इस नये और गहरे संबध की तैयारी में बिताये थे।

हम लोग जल्द ही लौट आए, और मैं काम में लग गया और बाद में फिर जेल चला गया। साथ-साथ छुट्टी मनाने का और मिलकर काम करने का, यहांतक कि मिलकर रहने का भी मौक़ा न हासिल हुआ, सिवाय इसके कि दो लंबी कैदों की मुद्दत के बीच के वक्त में मुलाकात हो गई। दूसरी कैद की मुद्दत खत्म न होने पाई थी कि कमला मौत की बीमारी से बिस्तर पर लग गई थी।

जब मैं फ़रवरी, सन १९३३ में कलकत्ते के एक वारंट पर गिरफ्तार किया गया, उस वक़्त कमला घर में मेरे कुछ कपड़े लाने के लिए गई। मैं मी उससे रुखसत होने के खयाल से उसके पोछे हो लिया। यकायक वह मुझसे लिपट गई और गश खाकर गिर पड़ी। उसके लिए यह गैर-मामूली बात थी, क्योंकि हम लोगों ने अपने को एक तरह से तालीम दे रखी थी कि जेल खुशी- खुशी और हलके दिल से जाना चाहिए और इसके बारे में जहांतक मुमकिन हो, कोई गुल न होने देना चाहिए। क्या उसके दिल ने उसे पहले से बता दिया था कि हमारी साधारण मुलाकात का यह आखिरी मौक़ा है ?

दो-दो साल की लम्बी जेलों की मुद्दतों ने हम लोगों को एक-दूसरे से उस वक्त जुदा रखा था, जबकि हमें एक-दूसरे की सबसे ज्यादा जरूरत थी। मैं जेल के लंबे दिनों में इस पर सीर करता रहा, लेकिन मैं उम्मीद करता रहा कि वह वक़्त जरूर आयेगा जबकि हम दोनों एक साथ होंगे। इन सालों में उस पर क्या गुजरी होगी ? मैं इसका अनुमान कर सकता हूं, अगरचे मैं भी इसे ठीक-ठीक नहीं जानता, क्योंकि जेल की और जेल के बाहर थोड़े वक़्त की मुलाक़ातों में ऐसी परिस्थिति नहीं थी कि इसका सहज में अंदाज हो सके। हम लोगों को हमेशा अपने को संभाले रखना पड़ता था, जिसमें अपनी तकलीफ़ को जाहिर करके हम एक-दूसरे को तकलीफ़ न पहुंचायें । लेकिन यह साफ़ था कि बहुतेरी बातों की वजह से वह बहुत परेशान और दुखी थी और उसका मन शांत न था। मैं चाहता कि मैं उसकी कुछ मदद कर सकता, लेकिन जेल में रहते हुए यह मुमकिन न था।

जारी—-

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