हिंदुस्तान की कहानी :जवाहरलाल नेहरू – चेप्टर 2 बेडेनवाइलर लोज़ान: -भाग ६ : मुसोलिनी

जिस लगाव ने मुझे लोज़ान और यूरोप में रोक रखा था, वह टूट गया और अब वहां ज्यादा ठहरने की जरूरत न थी। दरअसल मेरे भीतर की कोई और चीज़ भी टूट गई थी, जिसका ज्ञान मुझे धीरे-धीरे हुआ, क्योंकि वे मेरे अंधियाले दिन थे और मेरी वृद्धि ठीक-ठीक काम नहीं कर रही थी। कुछ समय एकांत में बिताने के लिए में इंदिरा के साथ मांद्रे चला गया। जिन दिनों मैं मांट्रे में ठहरा हुआ था, लोजान में रहनेवाला इटली का राजदूत मुझसे आकर मिला। यह सिन्योर मसोलिनी की तरफ़ से खासतीर पर मेरे दुख में सहानुभूति प्रकट करने आया था। मुझे जरा ताज्जुब हुआ, क्योंकि मैं सिन्योर मुसोलिनी से कभी मिला न था और न मुझसे उनका किसी और ही तरह से संपर्क था। मैंने राजदूत से कहा कि वह मुसोलिनी को बता दें कि इस सहानुभूति के लिए मैं उनका एहसानमंद हूं ।

कुछ हफ्ते पहले, रोम से एक मित्र ने मुझे लिखा था कि सिन्योर मुसोलिनी मुझसे मिलना चाहेंगे। उस वक़्त मेरे रोम जाने का कोई सवाल न था और मैंने उन्हें यह लिख दिया था। बाद में, हवाई रास्ते से, हिंदुस्तान लौटने की जब मैं सोच रहा था, उस वक़्त संदेसा दुहराया गया और इसमें खासतौर पर इसरार और उत्सुकता थी। मैं इस मुलाक़ात से बचना चाहता था; साथ ही रु’वाई दिखाने की भी मेरी कोई इच्छा न थी। आमतौर पर मैं मुलाक़ात से बचने को इस स्वाहिश पर काबू पा जाता, क्योंकि मुझे भी यह जानने का कुतूहल था कि मुसोलिनी किस तरह का आदमी है। लेकिन उस वक़्त अबीसीनिया की लड़ाई चल रही थी, और मेरे उससे मिलने पर, हो-न- हो, तरह-तरह के नतीजे निकाले जाते और इस मुलाक़ात का इस्तेमाल फ़ासिस्तों के प्रचार के लिए किया जाता। मेरी इन्कारी का ज्यादा असर न पड़ता। हाल की कई मिसालें मेरे सामने थीं। हिंदुस्तानी विद्यार्थी और दूसरे लोग, जो इटली सैर के लिए गये थे, उनसे उनकी इच्छा के खिलाफ़ और कभी-कभी बिना उनकी जानकारी के, इस प्रचार के काम में फ़ायदा उठाया गया और फिर १९३१ में ‘जायनल डि इटाली’ में गांधीजी से ‘मुला- क़ात’ का जो गढ़ा हुआ हाल छपा था, उसका भी सबक़ मूला न था ।

मैंने अपने दोस्त से अफ़सोस जाहिर किया और इस खयाल से किसी तरह की ग़लत-फ़हमी बाक़ी न रहे, मैंने दुबारा खत डाला और टेलीफोन से भी सूचना दे दी। ये सब बातें कमला की मृत्यु से पहले की हैं। उसकी मृत्यु के बाद मैंने दूसरा संदेसा भेजा और दूसरी वजहों के साथ यह वजह भी दो कि इस वक़्त किसीसे भी मुलाक़ात करने के लिए जी नहीं रह गया है।

मेरी तरफ़ से इतने आग्रह की यों जरूरत हुई कि मैं जिस के० एल० एम० हवाई जहाज से सफ़र करनेवाला था, उसे रोम से होकर जाना था और मुझे एक शाम और रात वहीं बितानी थी। इस सफ़र और थोड़े वक़्त के क़याम से मैं बच नहीं सकता था।

कुछ दिन मांट्रे में रहकर मैं जिनेवा और मसाई गया और वहां मैंने पूरब जानेवाले के० एल० एम० हवाई जहाज़ को पकड़ा। तीसरे पहर के खत्म होते-होते मैं रोम पहुंचा। वहां पहुंचने पर मुझसे एक बड़ा अफ़सर आकर मिला और उसने मुझे सिन्योर मुसोलिनी के ‘चीफ़ ऑब कैबिनट’ का एक खत दिया। इसमें लिखा था कि “ड्चे मुझसे मिलकर खुश होंगे और उन्होंने छः बजे का वक़्त मुलाक़ात के लिए मुरिर किया है।” मुझे ताज्जुब हुआऔर मैंने उसे अपने पहले के संदेसों का हवाला दिया। लेकिन उसने जोर दिया कि सब कुछ तय हो चुका है और यह इंतजाम बदला नहीं जा सकता। उसने बताया कि सच तो यह है कि अगर मुलाक़ात न हो पाई, तो इसका पूरा अंदेशा है कि वह अपने पद से बरखास्त कर दिया जाय।

मुझे इस बात का इतमीनान दिलाया गया कि अखबारों में इसके बारे में कुछ न निकलेगा और डूचे से कुछ मिनटों के लिए मिल लेना काफ़ी होगा -वह महज मुझसे हाथ मिलाना और मेरी पत्नी की मृत्यु पर अफ़सोस जाहिर करना चाहते थे। इस तरह हममें आपस में एक घंटे तक वहस चलती रही। दोनों तरफ़ से विनय का पूरा दिखावा था, लेकिन साथ ही बढ़ता हुआ खिंचाव भी था। यह घंटा मेरे लिए हद दर्जे का थकानेवाला घंटा था और शायद दूसरे फ़रीक के हक़ में यह और भी भारी गुजरा हो ।

मुलाक़ात के लिए मुर्कारर किया हुआ वक़्त आखिरकार आ पहुंचा, और मैं. अपनी वापसी करके रहा। डूचे के महल में टेलीफ़ोन से इत्तिला मेज दी गई कि मैं न आ सकूंगा।

उसी दिन शाम को मैंने सिन्योर मुसोलिनी के पास खत भेजा, जिसमें मैंने इस बात का अफ़सोस जाहिर किया कि मैं उनके न्योते का फ़ायदा न उठा सका और मैंने उनके सहानुभूति के संदेसे के लिए धन्यवाद दिया।

अपना सफ़र मैंने जारी रखा। क़ाहिरा में कुछ पुराने मित्र मुझसे मिलने आए और इसके बाद और पूरब आने पर पश्चिमी एशिया का रेगि- स्तान मिला। बहुतेरी घटनाओं के कारण और सफ़र के इंतजाम में लगे रहने की वजह से अभीतक मेरा दिमाग़ किसी-न-किसी काम में लगा हुआ था। लेकिन क़ाहिरा छोड़ने के बाद, इस सुनसान रेगिस्तानी प्रदेश के ऊपर से उड़ते हुए मुझ पर एक भयानक अकेलापन छा गया। मैंने ऐसा महसूस किया कि मुझमें कुछ रह नहीं गया है और मैं बिना किसी मक़सद का हो गया हूं। मैं अपने घर की तरफ़ अकेला लौट रहा था, उस घर की तरफ़, जो अब घर नहीं रह गया था, और मेरे साथ एक टोकरी थी, जिसमें राख का एक बरतन था। कमला का जो कुछ बच रहा था, यही था । और हमारे सब सुख के सपने मर चुके थे और राख हो चुके थे। वह अब नहीं रही, कमला अब नहीं रही- मेरा दिमाग़ यही दुहराता रहा । मैंने अपने आत्म-चरित’ – अपनी जिंदगी की कहानी (“मेरी कहानी’ के नाम से यह सस्ता साहित्य मंडल से प्रकाशित है। सं०) का विचार किया,

जिसके बारे में मैंने उससे भुवाली के स्वास्थ्य-गृह में सलाह की थी। जब मैं उसे लिख रहा था, तब कभी एक-दो अध्याय उसे पढ़कर सुनाता भी था । उसने इसका सिर्फ़ एक हिस्सा देखा या सुना था । वह अब बाक़ी हिस्सा न देख पायेगी और न अब हम लोग मिलकर जिदगी की किताब में कुछ और अध्याय लिख पायेंगे ।

बरादाद पहुंचकर मैंने अपने प्रकाशकों के पास, जो लंदन से मेरा आत्म- चरित निकालने जा रहे थे, एक तार भेजा और उसमें मैंने किताब का ‘समर्पण’ देने का निर्देश दिया- “कमला को, जो अब नहीं रही।”

कंराची आया और परिचित चेहरों के झुंड-के-झुंड दिखाई दिए। इसके बाद इलाहाबाद आया और हम लोगों ने राख के उस बरतन को वेग से बहनेवाली गंगा तक पहुंचाया और फिर इस पवित्र नदी की गोद में उसे प्रवाहित कर दिया। हमारे कितने पुरखों को उसने इस तरह समुंदर तक पहुंचाया है; हमारे बाद आनेवाले कितने अपनी अंतिम यात्रा इसके जल के आलिंगन के साथ करेंगे !

चेप्टर २ समाप्त।

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