हिंदुस्तान की कहानी’ पंडित जवाहरलाल नेहरू की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय कृतियों में से है। यह पुस्तक विश्वविख्यात ‘दि डिस्कवरी ऑव इंडिया’ का अनुवाद है। हम उनकी पुस्तक हिन्दुस्तान की कहानी को धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है धारावाहिक में छोटे आलेख पाठकों को पसंद आयेंगे और वे इस तरह नेहरू के हिन्दुस्तान को पूरा पढ़ पायेंगे। हमें आपकी प्रतिक्रिया और सुझावों का इंतजार रहेगा ताकि हम और बेहतर कर सकें। आज पुस्तक का चैप्टर चैप्टर :३: तलाश -भाग 1
हिंदुस्तान के अतीत का विशाल दृश्य इन वर्षों में, जबकि मैं विचार और काम में लगा था, मेरे दिमाग़ में हिंदुस्तान समाया हुआ था, और मैं बराबर उसे समझ पाने की कोशिश में लगा था; साथ ही उसकी तरफ़ अपनी निजी प्रतिक्रिया की जांच भी कर रहा था। मैंने अपने बचपन के दिनों का ध्यान किया और यह याद करने की कोशिश की कि उस वक़्त मेरे क्या भाव थे, इसके खयाल ने उस वक़्त मेरे दिमाग़ में कैसी अस्पष्ट शक्लें पैदा की थी, और नये अनुभवों ने उनमें क्या तबदीलियां की थीं। इसका खयाल कभी-कभी दिमाग़ के पिछले हिस्से में चला जाता, लेकिन यह मौजूद हमेशा रहता। यह धीरे-धीरे बदलता रहा और पुराने क़िस्से-कहानियों ने और मीजूदा जमाने की असलियत ने मिलकर इसे एक अजीव घोल बना दिया था। इसने मुझमें गर्व भी पैदा किया और लज्जा भी, क्योंकि अपने गिर्द जो कुछ देखता था- यानी अंधविश्वास, दकियानूसी विचार और सबसे बढ़कर अपनी गुलामी और ग़रीबी की हालत – उससे मुझे शर्म आती थी।
ज्यों-ज्यों मैं बड़ा हुआ और उन कामों में लगा, जिनसे हिंदुस्तान की आज़ादी की उम्मीद की जा सकती थी, मैं हिंदुस्तान के खयाल में खोया रहने लगा। यह हिंदुस्तान क्या है, जो मुझ पर छाया हुआ है और मुझे बराबर अपनी तरफ़ बुला रहा है और अपने दिल की किसी अस्पष्ट और गहराई के साथ अनुभव की हुई इच्छा को हासिल करने के लिए काम करने का उत्साह दिला रहा है? मैं खयाल करता हूं कि शुरू में यह प्रेरणा जाती और क़ौमी गर्व के कारण पैदा हुई, और ऐसी ख्वाहिश का नतीजा थी, जो सब लोगों में होती है कि दूसरों की हुकूमत का सामना किया जाय और अपनी पसंद के अनुसार जिदगो बिताने की आजादी हासिल की जाय। यह बात मुझे बड़ी भीषण जान पड़ी कि हिंदुस्तान-जैसा बड़ा मुल्क, जिसका इतना पुराना और शानदार इतिहास है, हाथ-पैर जकड़ा हुआ एक दूर-देश टापू के बस में हो और वह उस पर अपनी मनमानी कर रहा हो। इससे भी ज्यादा भीषण यह बात थी कि इस जबरदस्ती के मेल का नतीजा हमारी ग़रीबी और गिरी हुई हालत हो। यह काफ़ी वजह थी कि मैं और दूसरे लोग काम में लगें ।
मैप देना है लेकिन जो सवाल मेरे मन में उठ रहे थे, उनकी तसक़ीन के लिए इतना काफ़ी न था। अगर हम उसके भीतिक और भोगोलिक पहलुओं को छोड़ दें, तो आखिर यह हिंदुस्तान है क्या ? गुजरे हुए जमाने में इसके सामने क्या मक़सद थे; कौनसी ऐसी चीज़ थी, जिससे इसे ताक़त हासिल होती थी ? किस तरह वह अपनी पुरानी ताक़त खो बैठा ? और क्या उसने यह ताक़त पूरी तौर पर खो दी है? और अलावा इसके कि बहुत बड़ी शुमार में लोग यहां बसते हैं, क्या कोई ऐसी जिदा चीज है, जिसकी वह नुमाइंदिगी करता है? आज की दुनिया में उसकी ठीक जगह क्या है ?
ज्यों-ज्यों मैंने इस वात का अनुभव किया कि हिंदुस्तान का और मुल्कों से अलग-थलग होकर रहना ना-मुनासिब है और गैर-मुमकिन भी; मेरा ध्यान इस मामले के अंतर्राष्ट्रीय पहलू की ओर बराबर जाता रहा। आनेवाले जमाने की जो शक़्ल मेरे सामने बनती, वह ऐसो होती, जिसमें हिंदुस्तान और दूसरे मुल्कों के बीच राजनीति, व्यवसाय और संस्कृति का गहरा मेल और रिस्ता होता । लेकिन आनेवाले जमाने की बात तो बाद में उठती थी, पहले तो हमारे सामने मौजूदा जमाना था, और इस मौजूदा जमाने के पीछे एक लंबा और उलझा हुआ अतीत था, जिसने कि मौजूदा जमाने की रूपरेखा बनाई थी इसलिए, बातों को समझ पाने की गरज से मैंने अतीत का सहारा लिया।
हिंदुस्तान मेरे खून में समाया हुआ था और उसमें बहुत कुछ ऐसी बात थी, जो स्वभाव से मुझे उकसाती थो। फिर भी, मौजुदा जमाने की और पुराने जमाने की बहुत-सी बची हुई चीजों को नफ़रत की निगाह से देखता हुआ में जैसे एक विदेशी आलोचक को हैसियत से उस तक पहुंचा। अगर कहा जाय कि पच्छिम के रास्ते मैं उस तक पहुंचा और मैंने इस तरह देखा, जिस तरह कि कोई पच्छिमवाला दोस्त देखता है, तो वेजा न होगा। मैं इस बात के लिए उत्सुक और फ़िक्रमंद था कि उसके नजरिये को और उसकी रूपरेखा को बदल दूं और उसे हाल के जमाने का जामा पहनाऊं। फिर भी जी में संदेह उठते थे। मैं जो उसके अतीत की देन को मिटाने का साहस करने जा रहा था, क्या मैं हिंदुस्तान को ठीक-ठीक समझ सका था ? यह सही है कि हमारे सामने बहुत-कुछ ऐसा था, जिसे मिटा देना ही मुनासिब था, लेकिन अगर हिंदुस्तान में कोई ऐसी चीज़ न होती, जो कायम रहने के क़ाबिल और जिदा थी और जिसकी सचमुच क़ीमत थी, तो यह यक़ीनी है कि हजारों साल तक वह अपनी तहजीब और वजूद को क़ायम न रख सकता था। यह चोज क्या थी ?
उत्तर पच्छिमी हिंदुस्तान की सिंघ-घाटी में, मोहनजोदड़ो के एक टीले पर मैं खड़ा हुआ। मेरे गिर्द इस क़दीम शहर के मकान थे और गलियां थीं। कहा जाता है कि यह शहर पांच हजार साल पहले मौजूद था और उस वक़्त भी यहां एक पुरानी और विकसित सभ्यता क़ायम थी। प्रोफ़ेसर चाइल्ड लिखते हैं- “सिघ-सभ्यता एक खास वातावरण में आदमी की जिंदगी का पूरा संगठन जाहिर करती है और यह सालहा-साल की कोशिशों का ही नतीजा हो सकती है। यह एक टिकाऊ सभ्यता थी; उस वक़्त भी उस पर हिदुस्तान की अपनी छाप पड़ चुकी थी और यह आज की हिंदुस्तानी संस्कृति का आधार है।” यह एक बड़े अचरज की बात है कि किसी भी तहजीब का इस तरह पांच या छः हजार बरसों का अटूट सिलसिला बना हो और वह मो इस रूप में नहीं कि वह स्थिर और गतिहीन हो, क्योंकि हिंदुस्तान बराबर बदलता और तरक्की करता रहा है। ईरानियों, मिस्त्रियों, यूनानियों, चीनियों, अरबों, मध्य-एशियायियों और भूमध्यसागर के लोगों से इसका गहरा ताल्लुक रहा है। लेकिन बावजूद इस बात के कि उसने इन पर असर डाला और इनसे असर लिया, उसको तहजीबी बुनियाद इतनी मजबूत थी क़ायम रह सकी। इस मजबूती का रहस्य क्या है? यह आई कहा से ? किमैंने हिंदुस्तान का इतिहास पढ़ा और उसके विशाल प्राचीन साहित्य का एक अंश भो देखा। उस विचार-शक्ति का, साफ़-सुथरी भाषा का, और ऊंचे दिमाग़ का, जो इस साहित्य के पीछे था, मुझ पर बड़ा गहरा असर हुआ। चीन के और पश्चिमी और मध्य एशिया के उन महान यात्रियों के साथ, जो बहुत पुराने जमाने में यहां आये और जिन्होंने अपने सफ़रनामे लिखे हैं, मैंने हिंदुस्तान की सैर की। पूरबी एशिया, अंगकोर, बोरोबुदुर और बहुत-सी जगहों में हिंदुस्तान ने जो कर दिखाया था, उस पर मैंने गौर किया; मैं हिमालय में भी घूमा, जिसका हमारी उन पुरानी कथाओं और उपाख्यानों से संबंध रहा है, जिन्होंने हमारे विचार और साहित्य पर इतना प्रभाव डाला है। पहाड़ों की मुहब्बत और काश्मीर से अपने संबंध ने मुझे खासतीर पर पहाड़ों की तरफ खींचा और वहां मैंने न महज आज की जिदगी और उसकी शक्ति और सौंदर्य को देखा, बल्कि गुजरे हुए युगों की यादगारें भी देखीं। उन पुर-जोर नदियों ने, जो इस सिलसिले से निकलकर हिंदुस्तान के मैदानों में बहती हैं, मुझे अपनी तरफ खींचा और अपने इतिहास के अनगिनत पहलुओं की याद दिलाई सिधु, जिससे हमारे देश का नाम हिंदुस्तान पड़ा और जिसे पार करके हजारों बरसों से न जाने कितनी जातियां, फ़िरके, काफ़िले और फ़ौजें आती रही हैं; ब्रह्मपुत्र, जो इतिहास की धारा से अलग रही है, लेकिन जो पुरानी कथाओं में जीवित है और पूर्वोत्तर पहाड़ों के गहरे दरारों के बीच से रास्ता बनाकर हिंदुस्तान में आती है और फिर शांतिपूर्वक और मनोहारी प्रवाह के साथ पहाड़ों और जंगलों के बीच के भाग से बहती है; जमुना, जिसके नाम के साथ कृष्ण के रास-नृत्य और क्रीड़ा की अनेक दंत-कथाएं जुड़ी हुई हैं; और गंगा, जिससे बढ़कर हिदुस्तान की कोई दूसरी नदी नहीं, जिसने हिंदुस्तान के हृदय को मोह लिया है और जो इतिहास के आरंभ से न जाने कितने करोड़ों लोगों को अपने तट पर बुला चुकी है। गंगा की उसके उद्गम से लेकर सागर में मिलने तक की कहानी पुराने जमाने से लेकर आजतक की हिंदुस्तान की संस्कृति और सभ्यता की, साम्राज्यों के उठने की और नष्ट होने की, विशाल और शान- दार नगरों की, आदमी के साहस और साधना की, जिंदगी को पूर्णता को और साथ-ही-साथ त्याग और वैराग्य की, अच्छे और बुरे दिनों की, विकास और ह्रास को, जीवन और मृत्यु की कहानी है।
मैंने अजंता, एलोरा, एलोफैंटा और दूसरी जगहों के स्मारकों, खंडहरों, पुरानी मूत्तियों और दोवारों पर बनी चित्रकारी को देखा और आगरा और दिल्ली की बाद के जमाने की इमारतें भी देखी, जिनके एक-एक पत्थर हिंदुस्तान के गुजरे हुए वक़्त की कहानी कहते हैं।
अपने ही शहर, इलाहाबाद में, या हरद्वार के स्नानों में, या कुंभ मेले में मैं जाता और देखता कि वहां लाखों आदमी गंगा में नहाने के लिए आते हैं, उसी तरह, जिस तरह कि उनके पुरखे सारे हिंदुस्तान से हजारों बरस पहले से आते रहे हैं। चीनी यात्रियों के और औरों के तेरह सां साल पहले के इन मेलों के बयानों की याद करता। उस समय भी ये मेले बड़े प्राचीन माने जाते थे और कब से इनका आरंभ हुआ, यह कहा नहीं जा सकता। मैंने सोचा, यह भी कितना गहरा विश्वास है, जो हमारे देश के लोगों को अनगिनत पीढ़ियों से इस मशहूर नदी की ओर खींचता रहा है !
मेरी इन यात्राओं ने, और उनके साथ वे सभो बातें थीं, जिन्हें मैंने पड़ रखा था, मुझे बीते हुए युग की झांकी दिखाई। अबतक जो एक कोरी दिमाग्री जानकारी थी, उसमें दिली क़द्रदानी शामिल हुई और रफ़्ता-रफ्ता हिंदुस्तान की मेरी दिमाग्री तरस्वीर में असलियत की जान पड़ने लगी और मुझे अपने पुरखों की भूमि जीते-जागते लोगों से बसो हुई दिखाई पड़ो- ऐसे लोगों से बसी हुई, जो हँसते भी थे और रोते भो थे, जो मुहब्बत करना जानते थे और दुख सहना भी; और उनमें ऐसे थे, जो जिदगो का अनुभव रखनेवाले और उसे समझनेवाले थे, और उन्होंने अपनी बुद्धि के जरिये एक ऐसी इमारत तैयार की थी, जिसने हिंदुस्तान को एक तहजीबी पाय- द्रारी दी और वह हजारों साल तक क़ायम रही। इस गुजरे हुए जमाने की सैकड़ों जीती-जागती तस्वीरें हमारे दिमाग में फिर रही थीं, और जब मैं किसी खास जगह जाता, जिससे उनका ताल्लुक़ होता, तो वे मेरे सामने आ जातीं। बनारस के पास, सारनाथ में, मैं बुद्ध को अपना पहला उपदेश देते हुए करीब-करीब देख सका और उनके वे शब्द, जो लिखे जा चुके हैं, ढाई हजार साल बाद, एक दूर की प्रतिध्वनि की तरह सुनाई दिए। अशोक की लाटें, जिन पर लेख खुदे हुए हैं, अपनी शानदार भाषा में एक ऐसे आदमी का हाल बताती हैं, जो अगरचे वह बादशाह था, फिर भी किसी भी राजा या बादशाह से ऊंची हैसियत रखता था। फ़तहपुर सीकरी में, अकवर, अपनी सल्तनत की शान को भूलकर, सभी मज़हबों के आलिमों से कुछ नई बात सीखने और इन्सान की हमेशा-हमेशा की पहेली का हल पाने की गरज से बहस करने बैठता।
इस तरह रफ्ता-रफ्ता, हिंदुस्तान के इतिहास का शानदार नज्जारा सामने आता था और इसमें अच्छे दिन और बुरे दिन, जीत और हार; दोनों ही दिखाई देते थे। पांच हजार साल के इतिहास, हमलों और उथल-पुथल के बीच क़ायम रहनेवाली इस संस्कृति की परंपरा में मुझे कुछ अनोखापन जान पड़ा-उस परंपरा में, जो आम लोगों में फैली हुई थी और उनपर गहरा असर डाल रही थी। सिर्फ चीन ऐसा मुल्क है, जहां ऐसी अटूट्ट परंपरा और तहजीबी जिदगी दिखाई देती है। फिर गुज़रे हुए जमाने की यह विशाल तस्वीर धीरे-धीरे मौजदा जमाने की बदनसीबी में बदल जाती है, जबकि हिंदुस्तान अपने बीते दिनों के बड़प्पन के बावजूद एक गुलाम मुल्क है और इंग्लिस्तान का पुछल्ला बना हुआ है और सारी दुनिया एक भयानक और विध्वंसकारी लड़ाई के शिकंजे में है और इन्सान को वहशो बनाये हुए है। लेकिन पांच हज़ार बरसों की इस कल्पना ने मुझे एक नई निगाह दा और हाल के ज़माने का बोझ कुछ हलका जान पड़ने लगा। अंग्रेजी सरकार की एक-सौ-अस्सी साल की हुकूमत हिंदुस्तान की लंबी कहानी को महज एक दुखदाई घटना जान पड़ी। वह फिर संभलने लगा है, और इस अध्याय के आखिरी सफ़े का लिखा जाना शुरू हो गया है। दुनिया भी इस दहशत- नाक हालत को पार करेगी और एक नई नींव पर अपना निर्माण करेगी।
जारी…