हिंदुस्तान की कहानी’ पंडित जवाहरलाल नेहरू की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय कृतियों में से है। यह पुस्तक विश्वविख्यात ‘दि डिस्कवरी ऑव इंडिया’ का अनुवाद है। हम उनकी पुस्तक हिन्दुस्तान की कहानी को धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है धारावाहिक में छोटे आलेख पाठकों को पसंद आयेंगे और वे इस तरह नेहरू के हिन्दुस्तान को पूरा पढ़ पायेंगे। हमें आपकी प्रतिक्रिया और सुझावों का इंतजार रहेगा ताकि हम और बेहतर कर सकें। आज पुस्तक का चैप्टर चैप्टर :३: तलाश -भाग ३ : हिंदुस्तान की ताक़त और कमजोरी
३ : हिंदुस्तान की ताक़त और कमजोरी
हिंदुस्तान की ताक़त और उसके ह्रास या उतार के कारणों की खोज एक लंबी और टेड़ी खोज है। फिर भी इस उतार के कारण काफ़ी जाहिर हैं। तकनीक को दौड़ में वह पोछे पड़ गया, और यूरोप, जो बहुत जमाने से कई बातों में पिछड़ा हुआ था, तकनीकी तरक्की में नेता बन बैठा। तकनीक को इस तरक्की के पोछे विज्ञान की भावना थी, और थी एक खुदबुदाती हुई जिदनी, जिसने अपने को बहुत-से क्षेत्रों में और खोज की साहसो यात्राओं में जाहिर किया था। नई तकनीक की जानकारी ने यूरोप के देशों की फ़ौजी ताकत को बहुत बढ़ाया और उनके लिए यह मुमकिन हो गया कि पूरब में फैलकर वे वहां के मुल्कों पर कब्जा कर सकें। यह सिर्फ हिंदुस्तान को नहीं बल्कि सारे एशिया की कहानी है।
ऐसा हुआ कैसे, यह बता सकना जरा मुश्किल है, क्योंकि दिमाग्री फुर्ती में और यंत्रों के हुनर में पुराने जमाने में हिंदुस्तानी पिछड़े न थे। ज्यों-ज्यों सदियां गुजरती हैं, हम इस हुनर का रफ़्ता-रफ़्ता उतार देखते हैं। जिदगी और बड़े-बड़े कारनामों के लिए उमंग घट जाती है, रचनात्मक शक्ति का लोप होता है और उसकी जगह पर नक़्क़ाली आ जाती है। जहां विजयो भौर इन्कलाबो विचारों ने कुदरत और दुनिया के राजों को भेदने की कोशिशें
की थीं, वहां अब लफ़्फ़ाज टीकाकार अपनी टीकाओं और शरहों को लेकर आते हैं। शानदार कला और मूत्तियों की जगह पर अब हमें मिलते हैं, पेचीदा खुदाई के काम, जिनमें विस्तार तो बहुत है, लेकिन कल्पना या दस्तकारी की शान नहीं दिखाई देती है। भाषा की शक्ति, संपन्नता और पुर-जोर सावगी जाती रहती है और उनकी जगह बहुत संवारी हुई और जटिल साहित्यिक रचनाएं ले लेती हैं। वह जोशीली जिदगी और साहस के लिए उमंग, जिसके बूते पर लोग दूर-दराज के मुल्कों में हिंदुस्तानी संस्कृति के क़ायम करने की योजना किया करते थे, एक संकीर्ण कट्टरता बनकर रह जाती है, जो समुंदर की यात्रा तक की मनाही कर देती है। जिज्ञासा की तर्कपूर्ण भावना, जिसे हम पुराने जमाने में बराबर पाते हैं, और जिसकी वजह से विज्ञान की और भी तरक़्क़ी हो सकती थी, तर्कहीनता और अंधविश्वास में बदल जाती है। हिंदुस्तानी जिदगी की घार मंद पड़ जाती है, मुर्दा सदियों के बोझ को जैसे-तैसे ढोते हुए लोग मानो गुजरे हुए जमाने में ही रहते हैं। गुजरे हुए जमाने का भारी बोझ उसे कुचल देता है और उस पर एक तरह की बेहोशी छा जाती है। मानसिक मूढ़ता और शारीरिक थकान की ऐसी हालत में हिंदुस्तान का ह्रास हुआ, यह कोई अचरज की बात नहीं। और इस तरह वह जहां-का-तहां रह गया, जबकि दुनिया के और हिस्से आगे बढ़ गए।
फिर भी यह मुकम्मिल या सोलह आने सच्चा नक़शा नहीं है। अगर बीच में कोई ऐसा लंबा जमाना आया होता, जब घोर जड़ता या गतिहीनता छा गई होती, तो बहुत मुमकिन है कि इसका नतीजा यह होता कि गुजरे हुए जमाने से हमारा ताल्लुक़ बिलकुल टूट गया होता, एक युग का अंत हो जाता और उसके खंडहरों पर कोई नई चीज तामीर हो गई होती। इस तरह का बिलगाव कमी नहीं हुआ और यक़ीनी तौर पर एक सिलसिला जारी है। साथ ही समय-समय पर पुनर्जाग्रति की कौंचें उठी हैं और इनमें से कुछ बड़ी चमकदार और देर तक बनी रहनेवाली रही हैं। सदा इस बात की कोशिश दिखाई दी है कि नये का समन्वय पुराने से किया जाय, कम-से-कम पुराने के उन हिस्सों से, जो इस लायक़ हैं कि उनकी हिफाजत की जाय। अकसर वह जो पुराना दिखता है, महज बाहरी रूपरेखा में पुराना है, एक तरह का प्रतीक है और भीतरी वस्तु बदल गई है। कोई प्रेरणा ऐसी बनी रही है, जो लोगों को ऐसी वस्तु के पीछे ले जाती रही है, जिसे हासिल करना बाक़ी है और जो हमेशा नये और पुराने के बीच समन्वय कायम करने की कोशिश में रही है। यही प्रेरणा और ख्वाहिश थी, जो उन्हें आगे बढ़ाती रही और उन्हें इस क़ाबिल बनाती रही कि पुराने विचारों को न छोड़ते हुए भी नये विचारो को अपना सके। जीते-जागते ओर जिदगी से भरे-पूरे, या कभी-कभी परेशान नीद की बड़बड़ाहट-जैसी इन युगों में क्या कोई ऐसी चीज रही है, जिसे हिंदुस्तान का स्वप्न कहा जा सके, मैं नहीं जानता। हर एक जाति और हर एक कौम के लोगों का अपने होनहार के मुताल्लिक कोई विश्वास या कल्पना रही है, और शायद हर एक में यह विश्वास कुछ हद तक उसके हक में सच्चा भी है। हिंदुस्तानी होने के नाते खुद मुझ पर इस कल्पना या असलियत का प्रभाव रहा है कि हिदुस्तान को किसी एक मकसद को पूरा करना है। मैं सममता हूं कि जिस वस्तु में सैकड़ों पीढ़ियों को निरंतर ढल्लने की शक्ति रही है, उसने अपनी यह कायम रहनेवाली शक्ति, शक्ति के किसी गहरे कुएं से हासिल की होगी और उसमें यह सामध्ये होगी कि इसे हर युग में नई कर ले।
क्या सक्ति का ऐसा कोई कुआं है? और अगर है, तो क्या यह सूख चुका है, या उसमें ऐसे छिपे हुए सोते हैं, जिनसे वह अपने को बराबर भरता रहता है? आज का क्या हाल है? क्या कोई सोते अब भी जारी हैं, जिनसे अपने को तरो-ताजा किया जा सके और नई ताकत हासिल की जा सके ? हमारी कीम एक पुरानी कोम है या यो कहिये कि बहुत-सी कीमों का एक अजीब मजमुआ है और हमारी क्रीमी यादें हमें उस जमाने तक पहुंचाती है. जबकि इतिहास का आरंभ हुआ था। क्या हमारा वक्त पूरा हो चुका और हम अपने वजूद की शाम तक पहुंच गए हैं और किसी तरह चैन और नीव हासिल हो, इस स्वाहिश में अपाहिज और रचना-पाक्ति-हीन लोगों की तरह बक़्त देरते जा रहे है? कोई कीम, कोई जाति ऐसी नहीं, जो तबदील न होती रहती हो।
बरावर वह औरों में पुलती-मिलती और बदलती रहती है। ऐसा हो सकता है कि वह करीय-करीब मुर्दा दिवाई दे, और फिर इस तरह उठ बड़ी हो, जैसे कोई नई जाति, या पुरानी का नया रूप हो। पुराने और नये लोगों में बिलकुल ताल्लुक टूट सकता है या यह भी हो सकता है कि विचार और आदशों की नई और मजबूत कड़ियां उन्हें जोड़ती रहे।
इतिहास में न जाने कितनी ऐसी मिसाले हैं कि पुरानी और अच्छी तरह से कायम तहको रता-रपता या यकायक मिट गई हैं और उनकी जगह नई और शक्तिशाली संस्कृतियों ने ले ली है। या यह कोई जीवनी- शक्ति है, ताऊत का कोई मोतरी सोता है, जो किसी तहजीव या कीम को जिदगी देता रहता है और जिसके बगैर सारी कोशिशें बेकार हैं और ऐसी हैं, जैसे कोई बुड्ढा आदमी किसी युवक का अभिनय कर रहा हो।
आज की दुनिया के लोगों में मैंने तीन में इस जीवनी-शक्ति का अनुमान किया है-अमरीकी, रूसी और चीनी लोगों में, और इनका एक अजीब मेल है। अमरीका के लोग, बावजूद इसके कि उनको जडे पुरानी दुनिया में मिलती हैं, नये लोग है और उनकी नई कौम है और इसमें शक नहीं कि वे पुरानी कौमों के बोझों और जटिल विचारों से बचे हुए है और उनका हृद दर्जे का उत्साह आसानी से समझ में आ जाता है। कनाडा, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के लोगों की भी यही दया है। वे सभी बहुत कुछ पुरानी दुनिया से अलग-थलग हैं और एक नई जिदगो उनके सामने है।
रूसी नये लोग नहीं है. फिर भी उन्होंने बीते हुए एग से पूरी तरह से अपना नाता तोड़ लिया है. उसी तरह जैसे मौत नाता तोड़ देता है। उनका नया जन्म हुआ है इस रूप में कि उसकी इतिहास में कोई मिसाल नहीं। रूमी फिर जवान हो गए हैं और उनमें एक अद्भुत शक्ति और स्कूत्ति आ गई है। वे अपनी कुछ पुरानी जड़ों को योजने उगे हैं, लेकिन व्यवहार की दृष्टि से वे नये लोग है और उनकी एक नई कीम और एक नई तहजीव है।
रूस की मिसाल यह दिली है कि अगर कोई कीम पूरी-पूरी कीमत चुकाने के लिए और जनता को दबी हुई ताकत को उकसाने के लिए तैयार हो, तो वह किस तरह फिर से अपने में नई विदा कर सकती है। बाव जूद उसकी भवानकता और डरावनेपन के सायद इन बुद्ध का यह नतीजा ही कि जो जातियां विनाश से बच सकें, नई जिवनी हासिल कर लें।
चीनी लोग इन सबसे अलग हैं। उनकी कोई नई कीम नहीं, न उन्हें ऊपर से लेकर नीचे तक परिवर्तनका पक्का सहना पड़ा है। यह सही है कि सात साल की मूल्वार लड़ाई ने उन्हें बदल दिया है। कहातक यह इस युद्ध का नतीजा है या दूसरे स्थायी कारणों का या दोनों का मिला-जुला हुआ, मैं नहीं जानता। लेकिन चीनी लोगों की जीवनी शक्ति मुझे हैरत में डाल देती है। मैं इस बात को कल्पना नहीं कर सकता कि कोई कोम, जिसकी नीव इतनी मजबूत हो, मर सकती है।
जो जोवनी-शक्ति मैंने चीन में देखी, वैसी ही कुछ मैंने कमी-कमी हिंदुस्तान के लोगों में महसूस की है। ऐसा हमेशा नहीं हुआ है। और हर हालत में मेरे लिए तटस्थ होकर विचार करना मुश्किल है। शायद मेरो ख्वाहिशें मेरे विचारों को टेड़ो मेड़ी शक्ल दे देती है, लेकिन हिंदुस्तान के लोगों के बीच घूमते फिरते हुए में बराबर इस बीज की तलाश में रहा है। अगर हिदुस्तानियों में यह जीवनी शक्ति है, तो उनका कुछ नहीं बिगड़ा है;
वे अपना काम पूरा करके रहेंगे। अगर उनमें इसकी कमी है, तो हमारी सारी राजनैतिक कोशिशें और हंगामे महज अपने को भुलावे में डालनेवाली चीजें हैं और ये हमें बहुत दूर न ले जा सकेंगी। मेरी दिलचस्पी इस माप्त में नहीं है कि हम कोई ऐसी राजनैतिक व्यवस्था पैदा करें, जिससे हम लोग अपना काम, कमो-वेण पहले जैसा, महज कुछ ज्यादा अच्छी तरह बला सकें। मैंने अनुभव किया है कि हमारे लोगों में एक दची हुई शक्ति और योग्यता का बड़ा भंडार है और मैं चाहता हूं कि यह खुल जाये और हिदुस्ताची अपने में नये जोश और नई फुर्ती का अनुभव करें। हिंदुस्तान ऐसा मुष्क है कि वह दुनिया में दूसरे दर्जे का काम नहीं कर सकता। या तो वह बहुत बड़ा काम करेगा, या उसकी कोई पूछ न होगी। बीच की कोई हालत मेरे लिए कशिश नहीं रखती। न मैं यही समझता हूं कि बीच की कोई हालत अमली सूरत रख सकती है।
हिंदुस्तान की आजादी के लिए पिछली चौथाई सदी की लड़ाई और अंग्रेजी सरकार से मोर्चा लेने में मेरे मन में और बहुत-से और लोगों के मन में जो ख्वाहिश रही है, वह इसकी जीवनी शक्ति को फिर से जगाने की ख्वाहिश रही है। हमने समझा कि कोशिशों और खुशी-खुशी उठाई गई तकलीफों और कुरबानियों के जरिये, खतरे और जोखिम का सामना करते हुए, जिस बात को हम बुरी और बेजा समझते हैं, उसे बरदावत करने से इन्कार करके, हम हिंदुस्तान में उत्साह पैदा करेंगे और उसे लंबी नींद से जगायेंगे। अगरचे हम हिंदुस्तान की अंग्रेजी हुकूमत से बराबर मोर्चा लेते रहे, हमारी आंखें हमेशा अपने लोगों की तरफ़ रही हैं। राजनैतिक नफ़े की कीमत इससे ज्यादा न थी कि वह हमारे इस खास मक्क़सद को पूरा कर सके। चूंकि यह मक़सद हमारे सामने रहा, हम अकसर सियासी मैदान में इस तरह पेश आते रहे, जिस तरह कोई भी कूटनीति तक अपने को महदूद रखनेवाला राज- नीतिज्ञ पेश नहीं आ सकता। और विदेशी और हिंदुस्तानी आलोचक हमारी जिद और हमारी बेबकूफ़ी के तरीक्क़ों पर ताज्जुब करते रहे। हम लोगों ने वेवकूफ़ी की या नहीं, यह तो आगे का इतिहास ही बता सकेगा। हमने अपने मक़सदों को ऊंचा रखा और हमारी निगाह दूर की चीजों पर बनीं रही। अगर मौक़े से फ़ायदा उठानेवाली कूटनीति की नजर से देखा जाय, तो शायद हमने अकसर बेवकूफियां कीं, लेकिन हमने अपनी आंखों के आगे से अपने खास मक़सद को ओझल न होने दिया और हमारा यह मक़सद सारे हिंदुस्तान के लोगों को, उनकी चेतना और आत्मा को, जगाना था और यक़ीनी तौर पर उन्हें अपनी गुलामी और गरीबी की हालत से आगाह करना था। दरअसल हमारा मक्तसद उनमें एक अंदरूनी ताक़त पैदा करना था- यह जानते हुए कि और बातें खुद-ब-खुद आ जायेंगी। हमें पीढ़ियों की गुलामी और एक मगरूर विदेशी ताक़त की अधीनता को मिटा देना था।
जारी…..