हिंदुस्तान की कहानी’ पंडित जवाहरलाल नेहरू की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय कृतियों में से है। यह पुस्तक विश्वविख्यात ‘दि डिस्कवरी ऑव इंडिया’ का अनुवाद है। हम उनकी पुस्तक हिन्दुस्तान की कहानी को धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है धारावाहिक में छोटे आलेख पाठकों को पसंद आयेंगे और वे इस तरह नेहरू के हिन्दुस्तान को पूरा पढ़ पायेंगे। हमें आपकी प्रतिक्रिया और सुझावों का इंतजार रहेगा ताकि हम और बेहतर कर सकें। आज पुस्तक का चैप्टर चैप्टर :३ : तलाश -भाग ४ : हिंदुस्तान को खोज
४ : हिंदुस्तान को खोज
अगरचे किताबों और पुराने स्मारकों और गुजरे हुए जमाने के सांस्कृतिक कारनामों ने हिंदुस्तान की कुछ जानकारी मुझमें पैदा की, फिर भी उनसे मेरा संतोष न हुआ और जिस बात की मुझे तलाश थी, उसका पता न चला। और वह उनसे मिल भी कैसे सकता था, क्योंकि उसका ताल्लुक़ गुजरे हुए जमाने से था और मैं यह जानने की कोशिश में था कि आया उस गुजरे हुए जमाने का हाल के जमाने से कोई सच्चा ताल्लुक़ है भी या नहीं ? मेरे लिए और मेरे-जैसे बहुतों के लिए जमाना हाल कुछ ऐसा था, जिसमें मध्य-युग की बातों की, हद दर्जे की गरीबी और दुख की और बीच के वर्गों की कुछ हद तक सतही आधुनिकता की, एक अजीब खिचड़ी थी। मैं अपने- जैसे या अपने वर्ग के लोगों को सराहनेवाला नहीं था, लेकिन मुझे उम्मीद थी कि हो-न-हो, वही हिंदुस्तान की हिफ़ाज़त की लड़ाई में आगे आयेंगे। बीच का वर्ग अपने को कैद और जकड़ा हुआ पाता था और खुद बढ़ना और तरक्की करना चाहता था। और चूंकि अंग्रेजी हुकूमत के चौखटे में गिरफ्तार रहते हुए उसके लिए ऐसा करना मुमकिन न था, इस हुकूमत के खिलाफ़ उसमें बगावत का एक जज्वा पैदा हो गया, फिर भी यह जज्बा उस ढड्ढे के खिलाफ़ नहीं था, जो हमें पीछे डाल रहा था। दरअसल यह महज अंग्रेजी बागडोर को बदलकर, उसे क़ायम रखना चाहता था। यह बीच का वर्ग खुद इस ढाचे की पैदावार था और इस वर्ग के लिए यह मुमकिन न था कि उसे ललकारे और उखाड़कर फेंक दे।
नई शक्तियों ने सिर उठाया और उन्होंने हमें गांवों की जनता की तरफ़ ढकेला और पहली बार हमारे नौजवान पढ़े-लिखों के सामने एक नये और दूसरे ही हिंदुस्तान की तस्वीर आई, जिसकी मौजूदगी को वे क़रीव-क़रीब भुला चुके थे या जिसे वह ज्यादा अहमियत नहीं देते थे। वह एक परेशान कर देनेवाला नजारा था, न महज इस ख़याल से कि हमें हद दर्जे की गरीबी और उसके मसलों का बहुत बड़े पैमाने पर सामना करना था, बल्कि इसलिए भी कि उसने हमारे मूल्यांकन को और उन नतीजों को, जिन पर हम अबतक पहुंचे थे, बिलकुल पलट दिया था। इस तरह हमारे लिए असली हिंदुस्तान की खोज, शुरू हुई, और इसने जहां एक तरफ़ हमें बहुत-सी जानकारी हासिल कराई, दूसरी तरफ़ हमारे अंदर एक कश-मकश पैदा करदी। अपनी पुरानी
रहन-सहन और तजुरबों के मुताबिक़ हमारी प्रतिक्रियाएं जुदा-जुदा थी। कुछ लोग तो गांवों की इस बड़ी जनता से पहले से काफ़ी परिचित थे, इस- लिए उनमें कोई नई सनसनी नहीं पैदा हुई, उन्होंने जैसी भी हालत थी, पहले से ही मान रखी थी। लेकिन मेरे लिए सचमुच एक खोज की यात्रा साबित हुई, और जहां मैं अपने लोगों की कमियों और कमजोरियों को दुख के साथ समझता था, वहीं मुझे हिंदुस्तान के गांवों में रहनेवालों में कुछ ऐसो विशेषता मिली, जिसका लफ़्ज़ों में बताना कठिन था और जिसने मुझे अपनी तरफ़ खींचा। यह विशेषता ऐसी थी, जिसका मैंने अपने यहां के बीच के वर्ग में बिलकुल अभाव पाया था।
आम जनता की मैं आदर्शवादी कलना नहीं करता हूं, और जहांतक हो सकता है, अमूर्त रूप से उसका खयाल करने से बचता हूं। हिंदुस्तान की जनता इतनी विविध और विशाल होते हुए भो मेरे लिए बड़ी वास्तविक है। मैं उसका खयाल अस्पष्ट गुट्टों की शक्ल में नहीं, बल्कि व्यक्तियों के रूप में करना चाहता हूं। यह हो सकता है कि चूंकि उससे मैं बड़ी उम्मीदें नहीं रखता था, इसलिए मुझे कोई मायूसी नहीं हुई। जितनी मैंने आशा कर रखी थी, उससे मैंने उन्हें बढ़कर ही पाया। मुझे ऐसा जान पड़ा कि उनमें जो मजबूती और अंदरूनी ताकतें हैं, उसकी वजह यह है कि वे अपनी पुरानी परंपरा अब भी अपनाये हुए हैं। पिछले दो सौ वर्षों में उन्होंने जो चोटें खाई हैं, उसमें इस परंपरा का बहुत कुछ तो जा चुका है, फिर भी कुछ बच रहा है, जिसकी क़ीमत है; साथ हो बहुत कुछ ऐसा है, जो बुरा और निकम्मा है।
उन्नीससौ बीस के बाद के कुछ सालों में मेरा काम ज्यादातर अपने ही सूबे तक महदूद रहा, और मैंने संयुक्त प्रांत (यू० पी०) के ४८ जिलों में गांवों और शहरों में लंबी यात्राएं की और मैं काफ़ी घूमा। यह सूबा बहुत जमाने से हिंदुस्तान का दिल समझा जाता रहा है और क़दीम और बीच के, दोनों ही जमानों की तहजीबों का मरकज रहा है। यहां कितनी ही संस्कृतियां और क़ीमें आपस में मिलो-जुली हैं; यह वह प्रदेश है, जहां १८५७ में वग़ावत की आग भड़की थो और जिसका बाद में बड़ी बेरहमी से दमन हुआ था। रफ़्ता-रफ़्ता मेरा परिचय उत्तरी और पच्छिमो जिलों के जाटों से हुआ, जो घरती के सच्चे बेटे हैं, जो बहादुर और आजाद दिखाई देते हैं और औरों के मुक़ाबले में खुशहाल हैं। राजपूत किसानों और छोटे जमींदारों से मेरी जान-पहचान हुई और मैंने जाना कि उन्हें अब भी अपनी जाति का और पुरखों का गुमान है- उन्हें मी, जिन्होंने इस्लाम मजहब
अख्तियार कर लिया है। मैंने गुनी कारीगरों और घरेलू धंधों में लगे हुए लोगों – हिंदुओं और मुसलमानों से परिचय किया, और बड़ी तादाद में जान- कारी हासिल की उन गरीब रिवाया और किसानों से, खासकर अवध में और पूरवी जिलों में, जो पोडियों के जल्म और गरीबी से पिस रहे थे और जिन्हें यह उम्मीद करने की हिम्मत नहीं होती थी कि उनके दिन फिरेंगे, लेकिन फिर भी जो आशा लगाये बैठे थे और जिनके मन में विश्वास था।
उन्नीससी तीस के बाद कई सालों में, जब-जब मैं जेल से बाहर रहा और खास तौर से १९३६-३७ के चुनाव के दारे में, मैं हिदुस्तान में ओर भी दूर-दूर के हिस्सों में, शहरों, कसबा और गांवों में घुमा। बंगाल के देहातों को छोड़कर, जहां वदकिस्मती से मुझे जाने का बहुत कम मौका मिला, मैंने हर एक सूबे का दौरा किया और मैं गांवों में पैठा। राजनैतिक और आर्थिक मामलों के मुताल्लिक में बोलता बीर मेरी तकरीरों से यही मालूम होता कि मेरे अंदर ये सब समस्याएं और चुनाव की चर्चा हो मरी हुई है। लेकिन मेरे दिमाग के किसी कोने में कुछ दूसरी ही गहरी और अहम बातें थी और उनका चुनाव और दूसरी वक़्ती सरगरमियों से कतई ताल्लुक न था। वहां एक दूसरी ही और इससे बड़ी बेकरारी मुझमें पैदा हो गई थी, और हिंदु- स्तान की जमीन और उसके लोग मेरे सामने फैले हुए थे और मैं एक बड़ी खोज की यात्रा पर था। हिदुस्तान, जिसमें इतनी विविधता और मोहिनी शक्ति है, मुझ पर एक पुन की तरह सवार बा और यह पुन बढ़ती ही गई। जितना ही में उसे देखता था, उतना ही मुझे इस बात का अनुभव होता था कि मेरे लिए या किसीके लिए भी जिन विचारों का वह प्रतीक था, उसे समझ पाना कितना कठिन है। उसके बड़े विस्तार से या उसकी विविधता से मैं घबड़ाता नहीं था, लेकिन उसकी आत्मा की गहराई ऐसी थी, जिसकी बाह में न पा सकता था- अगरचे कभी-कभी उसकी झलक मुझे मिल जातो थी। यह किसी कदीम ताल-पत्र-जैसा था, जिस पर विचार और चितन को तहें, एक-पर-एक जमी हुई थी, और फिर भी किसी बाद की तह ने पहले से आके हुए लेख को पूरी तरह से मिटाया न था। उनका हमें भान हो चाहे न हो, ये सब एक साथ हमारे चेतन और अचेतन दिमारा में मौजूद हैं और ये सब मिलकर हिंदुस्तान के पेचीदा और मेर-मरे व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं। वह स्फिक्स-जैसा चेहरा, अपनी भेद-भरी और कभी-कभी व्यंग्य-भरी मुस्कराहट के साथ सारे हिदुस्तान में दिखाई देता था। अगरचे ऊपरी ढंग से हमारे देश के लोगों में विविधता और विभिन्नता दिखाई देतो थो, लेकिन सभी जगह वह समानता और एकरूपता भी मिलती थी, जिसने हमारे दिन चाहे जैसे बीते हों, हमें एक साथ रखा। हिंदुस्तान की एकता मेरे लिए अब एक खयाली बात न रह गई। यह एक अंदरूनी एहसास था और मैं इसके बस में आ गया। यह एकता ऐसी मजबूत थी कि किसी राजनैतिक बिलगाव ने, किसी संकट या आफ़त ने, इसमें फ़र्क न आने दिया।
हिंदुस्तान या किसी भी मुल्क का खयाल आदमी के रूप में करना एक फ़िजूल-सी बात थी। मैंने ऐसा नहीं किया। मैं यह भी जानता था कि हिंदु- स्तान की जिदगी में कितनी विविधता है और उसमें कितने वर्ग, क़ौमें, घर्म और वंश हैं और सांस्कृतिक विकास की कितनी अलग-अलग सीढ़ियां हैं। फिर भी मैं समझता हूं, किसी देश में, जिसके पीछे इतना लंबा इतिहास हो और जिंदगी की जानिब जहां एक आम नजरिया हो, वहां एक ऐसो भावना पैदा हो जाती है, जो और भेदों के रहते हुए भी समान रूप से वहां रहनेवालों पर अपनी छाप लगा देती है। इस तरह की बात क्या चीन में किसीसे छिप सकती है, वह चाहे किसी दकियानूसी अधिकारी से मिले, चाहे किसी कम्यु- निस्ट से, जिसने गुजरे जमाने से अपना ताल्लुक़ तोड़ रखा है ? हिंदुस्तान की इस आत्मा की खोज में मैं लगा रहा कुतूहलवश नहीं- अगरचे कुतूहल यक़ीनी तौर पर मौजूद था- बल्कि इसलिए कि मैं समझता था कि इसके जरिये मुझे अपने मुल्क और मुल्क के लोगों को समझने की कोई कुंजी मिल जायेगी और विचार और काम के लिए कोई धागा हाथ लग जायेगा। राज- नीति और चुनाव की रोजमर्रा की बातें ऐसी हैं, जिनमें हम जरा-जरा से मामलों पर उत्तेजित हो जाते हैं। लेकिन अगर हम हिंदुस्तान के भविष्य की इमारत तैयार करना चाहते हैं, जो मजबूत और खूबसूरत हो, तो हमें गहरी नींव खोदनी पड़ेगी।
जारी….