हिंदुस्तान की कहानी:जवाहरलाल नेहरू– चेप्टर3 : तलाश भाग – ८ : आम चुनाव

मेरी यात्रा खास तौर पर उस आम चुनाव के सिलसिले में थी, जो सारे हिंदुस्तान में होनेवाला था और जिसका वक़्त नजदीक आ रहा था। लेकिन चुनावों के साथ-साथ आमतौर पर चलनेवाले तरीकों और हथकंडों को मैं नहीं पसंद करता था। जन-सत्तावाली या जमहरी हुकूमत के लिए चुनाव जरूरी और लाजिमी होता है, इसलिए इससे बचत नहीं हो सकती। फिर भी चुनाव बहुत अकसर इन्सान के बुरे पहलू को सामने लाते हैं और यह बात नहीं कि हमेशा स्यादा अच्छे उम्मीदवार की ही जीत होती हो। संवेदनशील लोग और वे लोग, जो अपने को आगे बढ़ाने के लिए बहुत-से चाल हथकंडे अख्तियार नहीं कर सकते, पाटे में रहते हैं। इसलिए वे इस भगड़े से बचना चाहते हैं। तो क्या प्रजा-सत्ता या जम्हूरियत उन्हींका मैदान है, जिनकी जिल्हें मोटी और आवाजें ऊपी होती हैं और जिनका ईमान लचीला होता है?

चुनाव की ये बुराइयां खासतौर पर वहां ज्यादा फैली होती हैं, जहां निर्वाचकों का समूह छोटा होता है। अगर निर्वाचक-समूह बड़ा हुआ, इनमें से बहुत-सी बुराइयां दूर हो जाती है, या कम-से-कम उतनी जाहिर नहीं होती। किसी गलत बात को उठाकर या धर्म के नाम पर (जैसा हमने बाद में देखा) बड़े-से-बड़े निर्वाचक समूह के बहक जाने की संभावना होती है; लेकिन बड़े निर्वाचक-समूह में बहुत-सी संतुलन करनेवाली बातें होती है, जिनकी वजह से भद्दे ढंग को बुराइयां कम हो जाती हैं। मेरे तजुरवे ने मेरे इस यक़ीन को मजबूत कर दिया है कि मताधिकार व्यापक-से-व्यापक होना अच्छा होता है। इस बड़े निर्वाचक-समूह में मेरा उस महदूद निर्वाचक- समूह के मुक़ाबले में ज्यादा यकीन है, जो हैसियत या शिक्षा की बुनियाद पर तैयार किया जाता है। हैसियत का आधार हर हालत में बुरा है। जहां तक तालीम का आधार है, यह जाहिर है कि तालीम अच्छी और जरूरी चीज है। लेकिन हरूफ़ पहचान लेनेवाले या थोड़े पड़े आदमी में मैंने कोई ऐसी बात नहीं पाई है, जिससे उसकी राय को, एक अनपढ़ मगर आम समझ रखनेवाले किसान की राय पर तरजीह दी जाय। हर हालत में, जबकि खास सवाल किसानों से ताल्लुक रखते हैं, तब उनकी राय ज्यादा महत्त्व की होगी। मेरा यकीन है कि सभी बालियों को, वे मर्द हों या औरत, चुनने के अस्तिवार होने बाहिए, और अगरचे मैं समझता हूं कि इस रास्ते में दिक्कतें हैं, फिर भी मुझे यक़ीन है कि इसके खिलाफ़ हिंदुस्तान में जो आवाज बुलंद की जाती है, उसमें ज्यादा दम नहीं और इसके पोछे उन लोगों का खोफ़ है, जिन्हें खास हक़ हासिल हैं।

१९३७ का सूबे की असेंबलियों के लिए चुनाव इस सीमित मताधिकार की विनाह पर हुआ था और आम जनता के कुल १२ फ़ोसदी लोगों को चुनाव का अधिकार मिला था। लेकिन इसे पिछले चुनावों के मुक़ाबले में बड़ी तरक़्क़ी समझना चाहिए और रियासतों को अलग कर दिया जाय, तो तीन करोड़ लोगों को मत देने का हक़ हासिल था। इन चुनावों का क्षेत्र बहुत बड़ा था और रियासतों को छोड़कर सारे हिंदुस्तान में फैला था। हर एक सूबे को अपनी असेंवली या विधान-सभा के लिए चुनाव करना था और ज्यादातर सूबों में दो सदन थे, इसलिए दोहरे चुनाव होते थे। उम्मीदबारों को तादाद कई हजार तक पहुंच गई थी।

इन चुनावों की तरफ़ मेरा और कुछ हद तक ज्यादातर कांग्रेस वालों का नजरिया आम नजरिये से जुदा था। मैं शख्सी तोर पर उम्मीदवारों को फ़िक्र नहीं करता था, वल्कि सारे मुल्क में ऐसी फ़िज़ा करना चाहता था कि जो हमारे आज़ादी के इस राष्ट्रीय आंदोलन के माफ़िक़ हो, जिसकी कांग्रेस प्रतिनिधि थी और उस कार्यक्रम की तरफ़दारी में हो, जिसको हमारे चुनाव के ऐलानों में बताया गया था। मैंने अनुभव किया कि अगर हम इस काम में कामयाब हुए, तो सभी बातें खुद-ब-खुद ठीक होकर रहेगी और अगर नाकामयाब हुए, तो इससे कुछ खास फ़र्क नहीं पड़ता कि कोई खास उम्मीदवार हारा या जीता ।

मेरा मक़सद लोगों में एक खास तरह के विचार पैदा करना था। उम्मीदवारों की मैं शायद ही चर्चा करता, सिवाय इस रूप में कि वे हमारे उद्देश्यों के अलमवरदार है। उनमें से मैं बहुतों को जानता था, लेकिन बहुतों को मैं जाती तौर पर बिलकुल नहीं जानता था और इसकी जरूरत नहीं समझता था कि अपने दिमाग़ पर हजारों नामों का बोझ डाला जाय । मैं कांग्रेस के नाम पर, हिंदुस्तान की आजादी के नाम पर और आजादी की लड़ाई के नाम पर वोट मांगता था। मैं कोई वादे नहीं करता था, सिवाय इसके कि जबतक आजादी न हासिल हो जायगी, तबतक लड़ाई बराबर जारी रहेगी। मैं लोगों से कहता था कि हमारे लिए उसी हालत में बोट दो, जब तुम हमारे मक़सद और प्रोग्राम को समझ लो और उसके मुताबिक़ अमल करने को तैयार ही, नहीं तो हमें वोट न दो। हमें झूठे वोटों की जरू- रत नहीं थी और न महज इस वजह से किसीके लिए वोट चाहते थे कि जनता उन्हें पसंद करती है। बोट ओर चुनाव के बल पर हम बहुत आगे न बढ़ सकेंगे। एक लंबी यात्रा के वे केवल छोटे-छोटे डग थे और हमने बताया कि बिना समझे-वृझे और वोट का महत्त्व जाने और बाद को भी काम के लिए तैयार हुए, बोट देना हमें घोखा देना होगा और मुल्क के प्रति एक भूठा अमल करना होगा। अगरचे हम चाहते थे कि अच्छे और सच्चे लोग हमारे नुमाइंदे बनें, फिर भी व्यक्तियों का खास महत्त्व न थाः महत्त्व था हमारे मकसद का, उस संगठन का, जिसने इस मकसद को अपनाया था और उस कीम का, जिसकी आजादी का हमने बीड़ा उठाया था। मैं इस आजादी की व्याख्या करता और बताता कि मुल्क के करोड़ों लोगों पर इसका क्या असर होगा। हम गोरे रंग के मालिकों की जगह पर मेंहुए रंग के मालिकों को लाकर नहीं बिठाना चाहते थे। हम जनता की सच्ची हुकूमत चाहते थे, ऐसी जो जनता द्वारा और जनता के हक में हो और जिससे हमारी गरीबी और मुसीबतें दूर हो जाये।

मेरे व्याख्यानो की यही टेक होती थी। इसी गैर-शस्सी तरीके पर मैं अपने को चुनाव के दौरे में ठीक-ठीक बापाला था। खास उम्मीदवारों की हार-जीत की मुझे ज्यादा थी। मुझे तो इससे बड़े मामलों की फिक थी। सब बात तो यह है कि यह तरीका खास उम्मीदवारों की काम- याबी के महदूद नजरिये से भी व्यादा कारगर था, क्योंकि इस तरह उनके बुनाय का मसला मुल्क की आजादी की लड़ाई की ऊंची सतह तक उठकर भा जाता था-उस लड़ाई की सतह पर जिसमें करोड़ों गरीबी के मारे हुए लोग अपनी युग-युग की गरीबी का शाप मिटाने की कोशिश में लगे थे। ये विचार बीसियों कासवालों ने प्रकट किए और में आम लोगों तक इस तरह पहुंचे, जैसे समुदर की जोरदार हवा आकर हममें ताजगी पैदा करती है। इन विचारों में न जाने कितने चुनाव के गोरखधंधों को उखाड़कर फेंक दिया। मैंने अपने देशवासियों को पहचाना मुझे वे भले मालूम दिए और लाखों निगाहों ने मिलकर मुझे जनता की मनोवृत्ति बताई।

में रोज हो चुनाव के बारे में तकरीर करता था, लेकिन दरअसल चुनाव की बातें मेरे दिमाग में शायद ही जगह पाती रही हों। वे ऊपर- ऊपर सतह पर तैरती रहती थीं। और न मेरा खयाल सिर्फ बोट देनेवालों तक ही सीमित था।  मैं तो उससे कहीं बड़ी चीज के, यानी करोड़ों की तादाद में हिंदुस्तान के लोगों के संपर्क में आ रहा था। मेरे पास देने के लिए जो संदेसा था, वह क्या मर्द क्या औरत क्या बच्चासमी के लिए था- चाहे वे मतदाता हो, चाहे न हों। बहुत बड़ी संख्या में जनता से जो शारीरिक और भावों का संपर्क ही रहा था, उसका जी पर বাতির বা। यह भावना नहीं होती थी कि हम भाभी भीड़ में जाप है बहुत लोग बीच में बहते हैं, या भीड़ के जवाब में हैं। मेरी आखें इन हवा बांधों में मिली थी। हम एक-दूसरे को इस तरह नहीं देखते थे  अजनवी ही और पहली ही बार मिल रहे हैं। हम एक-दूसरे को पहचान रहे थे, अगरचे मैं कह नहीं सकता कि यह पहचान किस बात की थी। जव मैं नमस्कार करता था और मेरे सामने मेरी दो हवेलियां जुदती, ती हाथों का एक जंगल-सा नमस्कार की क्रिया में उठ खड़ा होता था और नित्री मिषता की मुस्कराह‌ट उनके चेहरे पर खेल जाती थी और एकत्रित जनता के कंड से अभिवादन का एक स्वर उठकर मानो मुझे मावुरुता से अपने गले लगा लेता था। मैं उनसे बातें करता था। मेरी आवाज उन तक वह संदेसा पहुंचाती थी, जो मैं उनके लिए लाया था। मुझे यह जानने का कुतूहल होता था कि मेरे सजों और उनके पीछे जो खयाल है, उन्हें वे रहा तक गमभ सके हैं। मैं नहीं कह सकता कि जो कुछ मैं कहता था, उसे वे सममते थे कि नहीं; लेकिन उनकी आंखों में एक गहरी समजदारी का प्रकाश होता था जो मुंह से कहे गए शब्दों से कहीं बड़कर था।

मेरी यात्रा खास तौर पर उस आम चुनाव के सिलसिले में थी, जो सारे हिंदुस्तान में होनेवाला था और जिसका वक़्त नजदीक आ रहा था। लेकिन चुनावों के साथ-साथ आमतौर पर चलनेवाले तरीकों और हथकंडों को मैं नहीं पसंद करता था। जन-सत्तावाली या जमहरी हुकूमत के लिए चुनाव जरूरी और लाजिमी होता है, इसलिए इससे बचत नहीं हो सकती। फिर भी चुनाव बहुत अकसर इन्सान के बुरे पहलू को सामने लाते हैं और यह बात नहीं कि हमेशा स्यादा अच्छे उम्मीदवार की ही जीत होती हो। संवेदनशील लोग और वे लोग, जो अपने को आगे बढ़ाने के लिए बहुत-से चाल हथकंडे अख्तियार नहीं कर सकते, पाटे में रहते हैं। इसलिए वे इस भगड़े से बचना चाहते हैं। तो क्या प्रजा-सत्ता या जम्हूरियत उन्हीं का मैदान है, जिनकी जिल्हें मोटी और आवाजें ऊची होती हैं और जिनका ईमान लचीला होता है?

चुनाव की ये बुराइयां खासतौर पर वहां ज्यादा फैली होती हैं, जहां निर्वाचकों का समूह छोटा होता है। अगर निर्वाचक-समूह बड़ा हुआ, इनमें से बहुत-सी बुराइयां दूर हो जाती है, या कम-से-कम उतनी जाहिर नहीं होती। किसी गलत बात को उठाकर या धर्म के नाम पर (जैसा हमने बाद में देखा) बड़े-से-बड़े निर्वाचक समूह के बहक जाने की संभावना होती है; लेकिन बड़े निर्वाचक-समूह में बहुत-सी संतुलन करनेवाली बातें होती है, जिनकी वजह से भद्दे ढंग को बुराइयां कम हो जाती हैं। मेरे तजुरवे ने मेरे इस यक़ीन को मजबूत कर दिया है कि मताधिकार व्यापक-से-व्यापक होना अच्छा होता है। इस बड़े निर्वाचक-समूह में मेरा उस महदूद निर्वाचक- समूह के मुक़ाबले में ज्यादा यकीन है, जो हैसियत या शिक्षा की बुनियाद पर तैयार किया जाता है। हैसियत का आधार हर हालत में बुरा है। जहां तक तालीम का आधार है, यह जाहिर है कि तालीम अच्छी और जरूरी चीज है। लेकिन हरूफ़ पहचान लेनेवाले या थोड़े पड़े आदमी में मैंने कोई ऐसी बात नहीं पाई है, जिससे उसकी राय को, एक अनपढ़ मगर आम समझ रखनेवाले किसान की राय पर तरजीह दी जाय। हर हालत में, जबकि खास सवाल किसानों से ताल्लुक रखते हैं, तब उनकी राय ज्यादा महत्त्व की होगी। मेरा यकीन है कि सभी बालियों को, वे मर्द हों या औरत, चुनने के अस्तिवार होने बाहिए, और अगरचे मैं समझता हूं कि इस रास्ते में दिक्कतें हैं, फिर भी मुझे यक़ीन है कि इसके खिलाफ़ हिंदुस्तान में जो आवाज बुलंद की जाती है, उसमें ज्यादा दम नहीं और इसके पोछे उन लोगों का खोफ़ है, जिन्हें खास हक़ हासिल हैं।

जारी ….

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