हिंदुस्तान की कहानी चेप्टर ४ : हिंदुस्तान की खोज भाग ३  : हिंदू-धर्म क्या है ?

इस उद्धरण में विन्सेंट स्मिथ ने ‘हिंदू-धर्म’ और ‘हिंदूपन’ शब्दों का प्रयोग किया है। मेरी समझ में इन शब्दों का इस तरह इस्तेमाल करना ठीक नहीं। अगर इनका इस्तेमाल हिंदुस्तानी तहजीब के विस्तृत मानी में किया जाय, तो दूसरी बात है। आज इन शब्दों का इस्तेमाल, जबकि ये बहुत संकुचित अर्थ में लिये जाते हैं और इनसे एक खास मजहब का खयाल होता है, ग्रलतफ़हमी पैदा कर सकता है। हमारे पुराने साहित्य में तो ‘हिंदू’ शब्द कहीं आता ही नहीं। मुझे बताया गया है कि इस शब्द का हवाला हमें जो किसी हिंदुस्तानी पुस्तक में मिलता है, वह है आठवीं सदी ईसवी के एक तांत्रिक ग्रंथ में, और वहां हिंदू का मतलब किसी खास धर्म से नहीं, बल्कि खास लोगों से है। लेकिन यह जाहिर है कि यह लफ़्ज़ बहुत पुराना है और ‘अवेस्ता’ में और पुरानी फ़ारसी में आता है। उस समय, और उस समय से हजार साल बाद तक पच्छिमी और मध्य एशिया के लोग इस लफ़्ज का इस्तेमाल हिंदुस्तान के लिए, बल्कि सिंधु नदी के इस पार बसनेवाले लोगों के लिए करते थे। यह लफ़्ज़ साफ़-साफ़ ‘सिधु’ से निकला है और यह ‘इंडस’ का पुराना और नया नाम है। इस ‘सिंधु’ शब्द से हिंदू और हिंदुस्तान बने है और ‘इंडोस’ और ‘इंडिया’ भी। मशहूर चीनी यात्री इत्-सिंग ने, जो हिंदुस्तान में सातवीं सदी ईसवी में आया था, अपनी यात्रा के बयान में लिखा है कि ‘उत्तर की जातियां’, यानी मध्य-एशिया के लोग हिंदुस्तान को हिंदू (सीन्-तु) कहते हैं, लेकिन उसने यह भो लिखा है कि “यह आम नाम नहीं है… हिदुस्तान का सबसे मुनासिब नाम आर्य-देश है।” एक खास मजहब के माने में ‘हिंदू’ शब्द का इस्तेमाल बहुत बाद का है।

हिंदुस्तान में मजहब के लिए पुराना व्यापक शब्द ‘आर्य-धर्म’ था। दरअसल धर्म का अर्थ मजहब या ‘रिलिजन’ से ज्यादा विस्तृत है। इसकी व्युत्पत्ति जिस धातु-शब्द से हुई है, उसके मानी हैं ‘एक साथ पकड़ता’। यह किसी वस्तु की भौतरी आकृति, उसके आंतरिक जीवन के विधान, के अर्थ में आता है। इसके अंदर नैतिक विधान, सदाचार और आदमी की सारी जिम्मेदारियां और कर्तव्य आ जाते हैं। आर्य-धर्म के भीतर वे सभी मत आ जाते हैं, जिनका आरंभ हिंदुस्तान में हुआ है, वे मत चाहे वैदिक हों, चाहे अ-वैदिक। इसका व्यवहार बौद्धों और जैनों ने भो किया है और उन लोगों ने भी, जो वेदों को मानते हैं। बुद्ध अपने बनाये मोक्ष के मार्ग को हमेशा ‘आर्य-मार्ग’ कहते थे।

पुराने जमाने में ‘वैदिक-धर्म’ शब्दों का इस्तेमाल खासतौर पर उन दर्शनों, नैतिक शिक्षाओं, कर्म-कांड और व्यवहारों के लिए होता था, जिनके बारे में समझा जाता था कि वे वेद पर अवलंबित हैं। इस तरह से, वे समी लोग, जो वेदों को आमतौर पर प्रमाण मानते थे, वैदिक धर्मवाले कहलाये।

सभी कदीम हिंदुस्तानी मतों के लिए और इनमें बुद्ध-मत और जैन मत भी शामिल हैं- ‘सनातन धर्म’ यानी प्राचीन धर्म का प्रयोग हो सकता है, लेकिन इस पर आजकल हिंदुओं के कुछ कट्टर दलों ने एकाधिकार कर रखा है, जिनका दावा है कि वे इस प्राचीन मत के अनुयायी हैं। बोद्ध-धर्म और जैन-धर्म यक़ीनी तौर पर हिंदू-धर्म नहीं है और न वैदिक धर्म ही है। फिर भी उनकी उत्पत्ति हिंदुस्तान में ही हुई और ये हिंदुस्तानी जिदगी, तहजीब और फ़िलसफ़े के अंग हैं। हिंदुस्तान में बौद्ध और जैनी हिंदुस्तानी विचार-धारा और संस्कृति की सौ फीसदी उपज हैं, फिर भी इनमें से कोई भी मत के खयाल से हिंदू नहीं है। इसलिए हिंदुस्तानी संस्कृति को हिंदू संस्कृति कहना एक सरासर ग़लतफ़हमी फैलानेवाली बात है। बाद के वक़्तों में इस संस्कृति पर इस्लाम के संपर्क का बड़ा असर पड़ा, लेकिन यह फिर भी बुनियादी तौर पर और साफ़-साफ़ हिंदुस्तानी ही बनी रही। आज यह सैकड़ों तरीक़ों पर पच्छिम की व्यावसायिक सभ्यता के जोरदार असर का अनुभव कर रही है और यह ठीक ठीक बता सकना मुश्किल है कि इसका नतीजा क्या होकर रहेगा ।

हिंदू-धर्म जहां तक कि वह एक मत है, अस्पष्ट है, इसकी कोई निश्चित रूपरेखा नहीं; इसके कई पहलू हैं और ऐसा है कि जो चाहे इसे जिस तरह का मान ले। इसकी परिभाषा दे सकना या निश्चित रूप में कह सकना कि साधारण अर्थ में यह एक मत है, कठिन है। अपनी मौजूदा शक्ल में, बल्कि बीते हुए जमाने में मी, इसके भीतर बहुत-से विश्वास और कर्म-कांड आ मिले हैं, ऊंचे-से-ऊंचे और गिरे-से-गिरे, और अकसर इनमें आपस का विरोध भी मिलता है। इसकी मुख्य भावना यह जान पड़ती है कि अपने को जिंदा रखो और दूसरे को भी जीने दो। महात्मा गांधी ने इसकी परिभाषा देने की कोशिश की है- “अगर मुझसे हिंदू-मत की परिभाषा देने को कहा जाय, तो मैं सिर्फ यह कहूंगा कि ‘यह अहिंसात्मक साघनों से सत्य की खोज है’। आदमी चाहे ईश्वर में विश्वास न रखे, फिर भी वह अपने को हिंदू कह सकता है। हिंदू-धर्म सत्य की अनथक खोज है…. हिदू-धर्म सत्य को माननेवाला धर्म है। सत्य ही ईश्वर है। हम इस बात से परिचित हैं कि ईश्वर से इन्कार किया गया है। हमने सत्य से कभी इन्कार नहीं किया है।” गांधीजी इसे सत्य और अहिंसा बताते हैं, लेकिन बहुत-से प्रमुख लोग, जिनके हिंदू होने में कोई संदेह नहीं, यह कह देते हैं कि हिंसा, जैसा उसे गांधीजी समझते हैं, हिंदू-मत का आवश्यक अंग नहीं है। तो फिर हिंदू-मत का अकेला सूचक चिह्न सत्य रह जाता है। जाहिर है यह कोई परिभाषा नहीं हुई।

इसलिए ‘हिंदू’ और ‘हिंदू-धर्म’ शब्दों का हिंदुस्तानी संस्कृति के लिए इस्तेमाल किया जाना न तो शुद्ध है और न मुनासिब ही है, चाहे इन्हें बहुत पुराने जमाने के हवाले में ही क्यों न इस्तेमाल कर रहे हों, अगरचे बहुत-से विचार, जो प्राचीन ग्रन्थों में सुरक्षित हैं, इस संस्कृति के उद्‌गार हैं। और आज तो इन शब्दों का इस अर्थ में इस्तेमाल किया जाना और भी चलत है। जबतक पुराने विश्वास और फिल सिर्फ जमी के एक मार्ग और संसार को देखने के एक केली अधिकतर हिंदुस्तानी संस्कृति का पर्याय हो सकते थे। लेकिन जब एक ज्यादा पाबंदीवाले मजहब का विकास हुआ, जिसके साथ जाने किবন विधि विधान और कर्म-कांड की हुए थे, तब यह उससे कुछ आगे बढ़ी हुई चीज थी और साथ ही उस मिली-जुली संस्कृति के मुकाबले में घटकर भी थी। एक ईसाई या मुसलमान अपने को हिदुस्तानी जिदगी और संस्कृति के मुताबिक ढाल सकता था और अकसर डालता था, और साथ ही जहांतक मजहब का ताल्लुक है, वह कट्टर ईसाई या सलमान बना रखता था। उसने अपने को हिंदुस्तानी बना लिया था और बिना अपना मजहब बदले हुए हिंदुस्तानी बन गया था ।

‘हिंदुस्तानी’ के लिए ठीक शब्द ‘हिंदी’ होगा, चाहे हम उसे मुल्क के लिए, चाह संस्कृति के लिए और चाहे अपनी जिन्न परंपराओं के तारीखी सिलसिले के लिए इस्तेमाल करें। यह लज ‘हिंद’ से बना है, जी हिंदू स्तान का छोटा रूय है। अब भी हिंदुस्तान के लिए ‘हिंद’ शब्द का मीर पद प्रयोग होता है। पच्छिमी एशिया के मुल्कों में, ईरान और टही में, इराक, अफगानिस्तान, मिस्र और दूसरी जगहों में हिंदुस्तान के लिए बराबर ‘हिंद’ शब्द का इस्तेमाल किया जाता है और इन सभी जगहों में हिंदुस्तानी को ‘हिंदी’ कहते हैं। ‘हिंदी’ का मजह से कोई नहीं और हिंदुस्तानी मुसलमान और ईसाई उसी तरह से ‘हिंदी’ है, जिस तरह कि एक हिंदू- मत का माननेवाला। अमरीका के की, जो सभी हिंदुस्तानियों को हिंदू कहते हैं, बहुत गलती नहीं करते। अगर वे ‘हिंदी’ शब्द का प्रयोग करें ती उनका प्रयोग बिलकुल ठीक होगा। दुर्भाग्य से ‘हिंदी’ शब्द हिंदुस्तान में एक खास लिपि के लिए इस्तेमाल होने लगा है- यह भी संस्कृत की देवनागरी लिपि के लिए इसलिए इसका व्यापक और स्वाभाविक अर्थ में इस्तेमाल करना कठिन ही गया है। शायद जब आजकल के बाहरी खत्म ही में सी हम फिर इस शब्द का इस्तेमाल उसके मौलिक अर्थ में कर सकें और वह ज्यादा संतोषजनक होगा। आज हिंदुस्तान के रहनेवाले के लिए ‘हिंदुस्तानी’ गब्द का इस्तेमाल होता है और जाहिर है कि वह हिंदुस्तान से बनाया गया है; लेकिन बीलने में यह बड़ा है और इसके साथ वे ऐतिहासिक और सांस्कृ तिक खयाल नहीं जुड़े हैं, जो ‘हिंदी’ के साथ जुड़े हैं, निश्चय ही, प्राचीन काल की हिंदुस्तान की संस्कृति के लिए ‘हिंदुस्तानी’ शब्द का इस्तेमाल अटपटा जान पड़ेगा।

अपनी सांस्कृतिक परंपरा के लिए हम हिंदी या हिंदुस्तानी, जो भो इस्तेमाल करें, हम यह देखेंगे कि पुराने जमाने में समन्वय के लिए यहां एक भीतरी प्रेरणा रही है और हमारी तहजीब और क्रौम के विकास का आधार, खासकर हिंदुस्तान का, फ़िलसफ़ियाना रुख रहा है। विदेशो तत्त्वों का हर हमला इस संस्कृति के लिए एक चुनौती था और उनका सामना इसने हर बार एक नये समन्वय के जरिये, उन्हें अपने में जज्ब करके किया है। इस तरीके से उसका काया-कल्प भो होता रहा है और अगरचे पृष्ठभूमि वहो रही है और बुनियादी बातों में कोई खास तबदीली नहीं हुई है, इस समन्वय के कारण संस्कृति के नये-नये फूल खिले हैं। सो० ई० एम० जोड ने इसके बारे में लिखा है- “इसकी वजह जो कुछ भी हो, वाक़या यह है कि हिंदु- स्तान को दुनिया को खास देन यह रही है कि उसने विचारों और क़ौमों के जुदा-जुदा तत्त्वों के समन्वय की ओर विभिन्नता से एकता पैदा करने को योग्यता और तत्परता दिखाई है।”

जारी…..

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