
हिंदुस्तान की कहानी – हिंदुस्तान की कहानी’ पंडित जवाहरलाल नेहरू की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय कृतियों में से है। यह पुस्तक विश्वविख्यात ‘दि डिस्कवरी ऑव इंडिया’ का अनुवाद है। हम उनकी पुस्तक हिन्दुस्तान की कहानी को धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है धारावाहिक में छोटे आलेख पाठकों को पसंद आयेंगे और वे इस तरह नेहरू के हिन्दुस्तान को पूरा पढ़ पायेंगे। हमें आपकी प्रतिक्रिया और सुझावों का इंतजार रहेगा ताकि हम और बेहतर कर सकें। आज पुस्तक का चैप्टर :४ हिंदुस्तान की खोज : भाग ४ : सबसे पुराने लेख : धर्म-ग्रंथ और पुराण
सिथ-घाटी की सभ्यता की खोज से पहले यह खयाल किया जाता. था कि हिंदुस्तानी संस्कृति के सबसे पुराने प्रमाण-लेख जो हमें मिले हैं, वे वेद हैं। वेदों के काल-निर्णय के बारे में बड़ा मतभेद रहा है, यूरोपीय विद्वान इसे इधर खोंचते रहे हैं और हिंदुस्तानी विद्वान और पोछे ले जाते रहे हैं। यह एक विचित्र बात है कि अपनो पुरानी संस्कृति को महत्त्व देने के लिए हिंदुस्तानी उसे ज्यादा-से-ज्यादा पुरानी साबित करने की कोशिश में रहे हैं। प्रोफेसर विंटरनीज का खयाल है कि वैदिक-साहित्य का आरंभ ईसा से २०००, बल्कि २५०० वर्ष पहले होता है। यह हमें मोहनजोदड़ो के जमाने के बहुत नजदीक पहुंचा देता है।
आज के ज्यादातर विद्वानों ने ऋग्वेद की ऋचाओं के संबंध में जो प्रमाण मानें हैं, वे उसे ईसा से १५०० वर्ष पुराना बताते हैं, लेकिन मोहन- जोदड़ो की खुदाई के बाद इन धर्म-ग्रंथों को और पुराना साबित करने की तरफ़ रुझान रहा है। इस साहित्य की ठीक तिथि जो भी हो, यह संभावित है कि यह यूनान या इसरायल के इतिहास से पुराना है और सच बात तो यह है कि मनुष्य-मात्र के दिमाग़ को सबसे पुरानी कृतियों में है। मैक्स- मूलर ने कहा है कि “आर्य-जाति के मनुष्य द्वारा कहा गया यह पहला शब्द है।”
वेद आर्यों के उस समय के भावोद्गार हैं, जबकि वे हिंदुस्तान की हरी-भरी भूमि पर आये। वे अपने कुल के विचारों को अपने साथ लाय,उस कुल के, जिसने ईरान में ‘अवेस्ता’ की रचना की और हिंदुस्तान की जमीन पर उन्होंने अपने विचारों को विस्तार दिया। वेदों की भाषा भी ‘अवेस्ता’ की भाषा से अद्भुत रूप में मिलती-जुलती है और यह बताया जाता है कि वेद ‘अवेस्ता’ के जितने नजदीक हैं, उतने खुद इस देश के महाकाव्यों की संस्कृति के नजदीक नहीं हैं।
हम मुख्तलिफ़ मजहबों की मजहबी कितावों को किस नज़र से देखें, जबकि इन मज़हबवालों का यह खयाल है कि इनका ज्यादातर हिस्सा दैवी प्रेरणा से प्राप्त हुआ है या नाजिल हुआ है ? अगर हम उनकी जांच-पड़ताल या नुक़्ताचीनी करते हैं और उन्हें आदमियों की रची हुई चीजें बताते हैं, तो कट्टर मजहबी लोग अकसर इससे बुरा मानते हैं। फिर भी, उन पर विचार करने का कोई दूसरा तरीक़ा नहीं है।
मैंने मजहबी किताबों के पढ़ने में हमेशा संकोच किया है। उनके बारे में जो इस तरह के दावे किये जाते हैं कि इनमें आखिरी बातें लिख दी गई हैं, मुझे पसंद नहीं आते। इन मजहबों को लोग जैसा बरतते हैं, इसके बारे में जो ऊपरी शहादतें मेरे सामने आई हैं, उन्होंने मुझे उनके मूल आधारों तक पहुंचने का उत्साह नहीं दिलाया है। ताहम मुझे इन किताबों तक भटककर पहुंचना पड़ा है, इसलिए कि गैर-जानकारी खुद कोई गुण नहीं हैं और अकसर एक खामी साबित होती है। मैं जानता रहा हूं कि इनमें से कुछ ने इन्सान पर गहरा असर डाला है, और जिस चीज का ऐसा असर पड़ सकता है, उसमें कोई भीतरी गुण और शक्ति- ताक़त का कोई जिंदा सर-चश्मा जरूर है। उनके बहुत-से अंशों को पढ़ने में मुझे बड़ी कठिनाई हुई है, क्योंकि बारहा कोशिश करने पर भी मैं अपने में काफ़ी दिलचस्पी पैदा नहीं कर सका हूं; साथ ही ऐसे टुकड़े भी मिले हैं, जिनकी निपट सुंदरता ने मुझे मोह लिया है। और उस वक़्त ऐसा हुआ है किसी जुमले ने या जुमले के एक टुकड़े ने अचानक मुझमें बिजली पैदा कर दी है और मुझे यह अनुभव हुआ है कि मेरे सामने सचमुच ही बहुत बड़ी चीज है। बुद्ध और मसीह के कुछ शब्द अपने गहरे अर्थ के साथ मुझ पर रोशन हो गए हैं और मुझे ऐसा जान पड़ा है कि आज भी वे उसी तरह लागू हैं, जिस तरह वे २००० या उससे ज्यादा साल पहले लागू थे। उनमें एक वेबस कर देनेवाली सचाई है, एक ऐसी टिकाऊ बात है, जिसे देश और काल छू नहीं सकते। ऐसा खयाल मुझे सुकरात का हाल या चीनी फ़िलसूफ़ों की रचनाओं को पढ़कर हुआ है और उपनिषदों और भगवद्गीता को पढ़कर भी। मुझे अध्यात्म और कर्म-कांड की व्याख्या और बहुत-सी और बातों में, जिनका उन मसलों से कोई ताल्लुक़ नहीं, जो मेरे सामने हैं, दिलचस्पी नहीं रही है। मैंने जो कुछ पढ़ा, शायद उसके बहुत ज्यादा हिस्सों का भीतरी अभिप्राय मैं समझ नहीं सका और कभी-कभो दोबारा पढ़ने पर ज्यादा प्रकाश मिला है। गूढ़ अंशों को समझने की दरअसल मैंने खास कोशिश नहीं की और जिन हिस्सों की मैं अपने लिए कोई अहमियत नहीं समझता था, उन्हें छोड़ जाता रहा हूं। न मुझे लंबी टीकाओं और शरहों में दिलचस्पी रही है। मैं इन किताबों को, या किन्हीं किताबों को, ईश्वर-वाक्य की तरह नहीं मान सका हूं, ऐसा कि बिना चूं- चरा के उनके एक-एक लफ़्ज़ को कुबूल कर लिया जाय। दरअसल उनके मुताल्लिक़ ईश्वर-वाक्य होने के दावे का आमतौर पर यह नतीजा हुआ कि उनमें लिखी बातों के खिलाफ़ मेरे दिमाग़ ने जिद पकड़ ली है। उनकी तरफ़ मेरा ज्यादा खिचाव तब होता है और उनसे मैं ज्यादा फ़ायदा तब हासिल कर सकता हूं, जब मैं उन्हें आदमियों की रचनाएं समभू, ऐसे आदमियों की, जो बड़े ज्ञानी और दूरदर्शी हो गए हैं, लेकिन जो हैं साधारण नश्वर मनुष्य, न कि अवतार या ईश्वर की तरफ़ से बोलनेवाले लोग, क्योंकि ईश्वर की कोई जानकारी या उसके बारे में निश्चय मुझे नहीं है।
मुझे इस बात में हमेशा ज्यादा शान और भव्यता जान पड़ी है कि एक इन्सान दिमाग़ी और रूहानी हैसियत से बलंदी पर पहुंचे और दूसरों को भी उठाने की कोशिश करे, न कि इसमें कि वह किसी बड़ी शक्ति या ईश्वर की तरफ़ से बोलनेवाला बने। धर्मों के कुछ संस्थापक अद्भुत व्यक्ति हो गए हैं- लेकिन अगर उनका खयाल आदमियों की शक्ल में न करूं, तो उनकी सारी शान मेरी नजर में जाती रहती है। जिस बात का मुझ पर असर होता है ओर जिससे मेरे दिल में उम्मीद बंधती है, वह यह है कि आदमी के दिमाग़ और उसकी रूह ने तरक़्क़ी हासिल कर ली है, न कि यह कि वह एक पैग़ाम लानेवाला एलची बन गया है।
पुराण की गाथाओं का भी मुझ पर कुछ ऐसा ही असर पड़ा। अगर लोग इन कहानियों को घटना के रूप में सही मानते हैं, तो यह बिलकुल बेतुको और हँसी की बात है। लेकिन इस तरह उनमें विश्वास करना छोड़ दिया जाय, तो वे एक नई ही रोशनी में दिखाई पड़ने लगती हैं, उनमें एक नया सौंदर्य जान पड़ता है; ऐसा जान पड़ता है कि एक ऊंची कल्पना ने अचरज-मरे फूल खिलाये हैं और इनमें आदमी के शिक्षा लेने की बहुत-सी बातें हैं। यूनान के देवी-देवताओं की कहानियों में अब कोई विश्वास नहीं करता, इसलिए बिना किसी कठिनाई के हम उनकी तारीफ़ कर सकते हैं। वे हमारी मानसिक दाय का अंग बन गई हैं। लेकिन अगर हमें उनमें यक़ीन करना पड़े, तो हम पर कितना बोझ आ पड़ेगा और विश्वास के इस बोझ से दबकर हम अकसर उनका सौंदर्य खो देंगे। हिंदुस्तान की पुराण-गाथाएं कहीं ज्यादा और भरी-पूरी हैं, और बड़ी ही सुंदर और अर्थ-भरी हैं। मैंने कभी-कभी इस बात पर अचरज किया है कि वे आदमी और औरतें, जिन्होंने ऐसे सजीव सपनों और सुंदर कल्पनाओं को रूप दिया है, कैसे रहे होंगे और विचार और कल्पना की किस सोने की खान में से उन्होंने खोदकर ऐसी चीजें निकाली होंगी ! धर्म-ग्रंथों को आदमी के दिमाग़ की उपज मानते हुए हमें याद रखना चाहिए कि किस युग में वे रचे गए हैं, किस फ़िज़ा और मानसिक वातावरण ने उन्हें जन्म दिया है, और समय और विचार और अनुभव का कितना अंतर उनमें और हममें है। हमें कर्म-कांड और धर्म-संबंधी रस्मों की भूल को भुला देना चाहिए और उस सामाजिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखना चाहिए, जिसमें उनका विकास हुआ है। इन्सानी जिंदगी के बहुत-से मसले एक दायमी हैसियत रखते हैं। उनमें नित्यता की एक पुट है और यही कारण है कि इन प्राचीन पुस्तकों में हमारी दिलचस्पी बनी हुई है। लेकिन और भी मसले रहे हैं, जो किसी खास युग तक सीमित रहे हैं और उनमें हमारे लिए ज़िदा दिल- चस्पी की कोई बात नहीं रही है।
जारी…