
हिंदुस्तान की कहानी – हिंदुस्तान की कहानी’ पंडित जवाहरलाल नेहरू की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय कृतियों में से है। यह पुस्तक विश्वविख्यात ‘दि डिस्कवरी ऑव इंडिया’ का अनुवाद है। हम उनकी पुस्तक हिन्दुस्तान की कहानी को धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है धारावाहिक में छोटे आलेख पाठकों को पसंद आयेंगे और वे इस तरह नेहरू के हिन्दुस्तान को पूरा पढ़ पायेंगे। हमें आपकी प्रतिक्रिया और सुझावों का इंतजार रहेगा ताकि हम और बेहतर कर सकें। आज पुस्तक का चैप्टर :४ हिंदुस्तान की खोज- भाग ५ : वेद
५ : वेद
बहुत-से हिंदू वेदों को श्रुति-ग्रंथ मानते हैं। यह मुझे खास तौर पर एक दुर्भाग्य की बात मालूम पड़ती है, क्योंकि इस तरह हम उनके सच्चे महत्त्व को खो बैठते हैं। वह यह कि विचार की शुरू की अवस्था में आदमी के दिमाग़ ने अपने को किस रूप में प्रकट किया था और वह कैसा अद्भुत दिमाग्र था। ‘वेद’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘विद्’ बातु से हुई है, जिसका अर्थ जानना है और वेदों का उद्देश्य उस समय को जानकारी को इकट्ठा कर देना था। उनमें बहुत-सी चीजें मिली-जुली हैं- स्तुतियां हैं, प्रार्थनाएं हैं, यज्ञ की विधि है, जादू-टोना है और बड़ी ऊंत्री प्रकृति-संबंधी कविता है। उनमें मूत्ति- पूजा नहीं है, देवताओं के मंदिरों की चर्चा नहीं है। जो जीवनी-शक्ति और जिदगी के लिए इक़रार उनमें समाया हुआ है, वह गैर-मामूली है। शुरू के वैदिक-आर्य लोगों में जिदगी के लिए इतनी उमंग थी कि वे आत्मा के सवाल पर ज्यादा ध्यान नहीं देते थे। एक अस्पष्ट तरीक़े से उन्हें इस बात का विश्वास था कि मौत के बाद भी कोई जीवन है।
रफ़्ता-रफ़्ता ईश्वर की कल्पना पैदा होती है; उस तरह के देवता लोग मिलते हैं, जैसे ओलंपिया (यूनान) में होते थे। उसके अनंतर एकेश्वर-वाद आता है और फिर इसीसे मिला-जुला हुआ अद्वैतवाद । विचार उन्हें अद्भुत प्रदेशों में पहुंचाता है और प्रकृति के रहस्यों पर गौर किया जाता है और इस तरह जांच करने की भावना उठती है। इस तरह के विकास में सैकड़ों वर्ष लग जाते हैं और जब हम वेद के अंत, वेदांत तक पहुंचते हैं, तो हमें उपनिषदों का दर्शन या फ़िलसफ़ा मिलता है।
पहला वेद, ऋग्वेद, शायद मनुष्य की पहली पुस्तक है। इसमें हमें इन्सानी दिमाग़ के सबसे पहले उद्गार मिलते हैं, काव्य की छटा मिलती है और मिलती है प्रकृति की सुंदरता और रहस्य पर आनंद की भावना । इन प्राचीन ऋचाओं में, जैसा कि डाक्टर मैकनिकोल कहते हैं, हमें शुरुआत मिलती है “उन लोगों के साहसी कारनामों की, जिन्होंने हमारी दुनिया के और उसमें रहनेवाले मनुष्य के जीवन के महत्त्व की खोज करने की कोशिशें कीं, और जो इतने दिन हुए की गई और यहां अंकित हैं- यहां से हिंदुस्तान एक खोज पर निकला है और उसकी यह खोज अबतक जारी है।”
लेकिन खुद ऋग्वेद के पीछे विचार और सभ्यता के जीवन के कई युग रहे हैं, जिनमें सिव-घाटी की, मेसोपोटामिया की और दूसरी तहजीबें पनपी थीं। इसलिए यह मुनासिब ही है कि ऋग्वेद में “अपने पूर्वजों, ऋषियों और प्रथम मार्ग-प्रदर्शकों” के नाम पर किया गया समर्पण मिलता है।
रवींद्रनाथ ठाकुर ने इन ऋचाओं के बारे में कहा है- “जिंदगी के अचरज और भय की तरफ़ एक जन-समाज की मिली-जुली प्रतिक्रिया का यह काव्यमय वसीयतनामा है। सभ्यता के आरंभ में ही एक जोरदार और अछूती कल्पनावाले लोग जीवन के अपार रहस्य को मैदने के लिए उत्सुक हुए। अपने सरल विश्वास द्वारा उन्होंने हरएक तत्त्व में, प्रकृति की हर एक शक्ति में देवत्व देखा । उसका जीवन आनंदमय और साहसी था और रहस्य की भावना ने उनकी जिदगी में एक जादू पैदा कर दिया था। मन में एक जाति-गत विश्वास था, जिस पर विश्व की द्वंद्वमयी विविधता के चिंतन का बोझ नहीं पड़ा था, यद्यपि उस पर जब-तब सहज अनुभव का प्रकाश इस रूप में पड़ा था कि ‘सत्य एक है, (यद्यपि) विप्र उसे अनेक नामों से पुकारते हैं।’
लेकिन चितन की यह भावना धीरे-धीरे आती गई; यहां तक कि वेद का रचयिता यही पुकार उठा कि “हे धर्म, हमें विश्वास प्रदान करो” और उसने “सृष्टि का गीत” नामक ऋचा में, जिसे मैक्समूलर ने “अज्ञात ईश्वर के प्रति” शीर्षक दिया है, गहरे सवाल उठाये हैं :
‘एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति । * ऋग्वेद का नासदीय सूक्त।
१.
तब न सत् था न असत्: न अंतरिक्ष था और न उसके परे आकाश था। क्या और कहां व्याप्त था ? और किसने आश्रय दिया ? क्या वहां जल था, अथाह जल ?
२. तब न मृत्यु थी, न कोई अमर था; न दिन और रात को विभाजित करने का कोई निशान था।
वही एक श्वास-रहित, अपनी प्रकृति द्वारा सांस लेता था : उसको छोड़- कर और कुछ नहीं था।
३.
वहां अंधकार था : पहले अंधकार में छिपी हुई घोर अस्त-व्यस्तता थी ।
उस समय जो कुछ था, वह शून्य और निराकार था; तेज की शक्ति से उस इकाई का जन्म हुआ।
४. उसके बाद आरंभ में इच्छा उत्पन्न हुई, इच्छा, जो आत्मा का बीज है। ऋषियों ने अपने हृदय में विचारा, तो पाया कि सत् का संबंध असत् से है।
५. अलग करनेवाली रेखा आर-पार फैली; उसके ऊपर क्या था और क्या उसके नीचे था ?
जन्म देनेवाले थे, महान शक्तियां थीं; स्वतंत्र कर्म था यहां, और उधर क्रिया-शक्ति थी।
६. कौन वास्तव में जानता है और कौन कह सकता है कि इसका जन्म कहां हुआ और यह सृष्टि कहां से आई ?
इस पृथ्वी की उत्पत्ति के बाद देवता हुए, इसलिए कौन कह सकता है, कि कब इसकी सृष्टि हुई ?
७. वह इस सृष्टि का आदि पुरुष है, चाहे उसने इस सबको बनाया हो, चाहे नहीं।
जिसकी दृष्टि इस पृथ्वी पर सबसे ऊंचे आकाश से शासन करती है; वही वास्तव में जानता है, या शायद वह भी न जानता हो।’
६ : जिदगी से इक़रार और इन्कार
इन धुंधली शुरुआतों से हिंदुस्तानी विचार और फ़िलसफ़े, हिंदुस्तानी जीवन और संस्कृति और साहित्य की नदियां निकलती हैं और फैलती और गहरी होती हुई कभी-कभी सैलाबों से धरती पर उपजाऊ मिट्टी बिखेरती हुई आगे बढ़ती हैं। हैं। इन सालहो-साल में उन्होंने कभी अपने रास्ते पलटे हैं, कमी सिकुड़कर पतली भी पड़ गई हैं, लेकिन उन्होंने अपने खास निशान कायम ‘एवरीमेन्स लाइब्रेरी में प्रकाशित ‘हिंदू स्क्रिप्चर्स’ में प्रकाशित अनुवाद के आधार पर।
जारी…..