हिंदुस्तान की कहानी- चेप्टर ४: हिंदुस्तान की खोज भाग- ६ : ज़िंदगी से इक़रार और इन्कार

हिंदुस्तान की कहानी – हिंदुस्तान की कहानी’ पंडित जवाहरलाल नेहरू की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय कृतियों में से है। यह पुस्तक  विश्वविख्यात ‘दि डिस्कवरी ऑव इंडिया’ का अनुवाद है। हम उनकी पुस्तक हिन्दुस्तान की कहानी को धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है धारावाहिक में छोटे आलेख पाठकों को पसंद आयेंगे और वे इस तरह नेहरू के हिन्दुस्तान को पूरा पढ़ पायेंगे। हमें आपकी प्रतिक्रिया और सुझावों का इंतजार रहेगा ताकि हम और बेहतर कर सकें। आज पुस्तक का  चैप्टर :४ हिंदुस्तान की खोज : भाग- ६ : जिंदगी से इक़रार और इन्कार

इन धुंधली शुरुआतों से हिंदुस्तानी विचार और फ़िलसफ़े, हिंदुस्तानी जीवन और संस्कृति और साहित्य की नदियां निकलती हैं और फैलती और गहरी होती हुई कभी-कभी सैलाबों से धरती पर उपजाऊ मिट्टी बिखेरती हुई आगे बढ़ती हैं। इन सालहो-साल में उन्होंने कभी अपने रास्ते पलटे हैं, कभी सिकुड़कर पतली भी पड़ गई हैं, लेकिन उन्होंने अपने खास निशान कायम  रखे हैं। अगर उनमें जिदगी को एक मजबूत तहरीक न रही होती, तो वे ऐसा न कर पातीं। इस कायम रहने की शक्ति को हमेशा एक बरकत न समझता चाहिए: इसके यह भी मानी हो सकते हैं, जैसाकि हिंदुस्तान में मेरो समझ में बहुत दिनों से होता रहा है, कि उनमें गतिहीनता आ गई है और सह.ध पैदा हो गई है। लेकिन यह एक बड़ा वाक्तया है, जिसे हम नजर- अंदाज नहीं कर सकते, खासकर इन दिनों में, जबकि हम निरंतर लड़ा- इयों और संकटों के कारण एक खुद-दार और तरक्कीयापता तहजीब को जड़ सदती हुई देखते है। हम उम्मीद करते हैं कि लड़ाई को इस कुठालो से, जिसमें न जाने कितनी चीजें पिषल रही हैं, क्या पच्छिम में और क्या पूरब में, कुछ उम्दा वस्तु तैयार होकर निकलेगी, जो बड़ी इन्सानी हासिलातों को कायम रखते हुए उनमें उन तत्त्वों को भी जोड़ेगी, जिनकी कमी रही है। लेकिन न महज माली पूंजी और इन्सानी जिदगी, बल्कि उन खास मूल्यों का. जो इस जिदगी को सार्थक करती है, बार-बार और इतने बड़े पैमाने पर नाश होना ऐसी बात है, जो ध्यान देने की है। बावजूद उस तरक्की के, जो मुस्तलिफ दिशाओं में हुई है और उसकी वजह से जो ऊंचे मान काण्म हुए है, जिसकी पिछले युगों में कल्पना भी नहीं हुई थी, क्या हमारी मौजूदा तिजारती तहजीब में कोई सार-भूत तत्त्व नहीं रहे हैं, और उसके अपने विनाश के बोज उसके भीतर मौजूद रहे हैं?

जब कोई मुल्क विदेशी हुकूमत में रहता है, तो वह अपनी मौजूदा हालत के खयाल से बचने के लिए गुजरे हुए जमाने के सपनों से अपने को बहलाता है और उसे अपनी पुरानी बड़ाई की कल्पना से शांति मिलती है। यह एक बेवकूफी का और खतरनाक दिल-बहलाव है, जिसमें हममें से ज्यादातर लोग लगे रहते हैं। इतनी हो काबिल-एतराज आदत हम लोगों की हिंदुस्तान में यह है कि हम खयाल करते है कि अगरचे दुनियावी बातों में हम पस्ती पर पहुंच चुके हैं, रूहानी तौर पर हम अब भी बड़े है। आजादी ओर तरक्की के मौकों को खोकर और फ़ाक़ाकशी और दुःख की नींव पर हम संहानी या किसी तरह की इमारत नहीं खड़ी कर सकते । बहुत-से पच्छिमी मुल्कों के लिखनेवालों ने इस खयाल को बढ़ावा दिया है कि हिंदुस्तान के लोग गैर-दुनियावी है। में समझता हूं कि सभी मुल्कों में गरीब और बदकिस्मत लोग गैर-दुनियावी होते हैं यह दूसरी बात है कि वे बग़ावती बन बैठे-क्योंकि यह दुनिया उनके लिए नहीं है। यही हासत गुलाम मुल्क के लोगों की होती है। ज्यों-ज्यों आदमी बड़ा होकर सयाना होता है, त्यों-त्यों माद्दी दुनिया या वस्तु-जगत से उसका संतोष हटता जाता है और वह उसमें पूरी तरह उलझने से बचता है। वह दिमागी और रूहानी तस्कीन चाहता है, उसे भीतरी अर्थ की तलाश होती है, यही बात सभ्यताओं और लोगों पर भी लागू होती है। ज्यों-ज्यों वे बढ़कर सयाने होते हैं, हर एक सभ्यता में और हर एक जाति में अंदरूनी जिदगी और बाहरी जिदगी की ये साथ-साथ चलनेवाली धाराएं मिलेंगी। जब ये धाराएं एक-दूसरे से मिल जाती हैं, या नजदीक रहती हैं, तब सम-तौल और पायदारी रहती है, जब ये एक- दूसरे से दूर हो जाती हैं, तब कशमकश पैदा होती है और ऐसे संकट सामने आते हैं, जो दिमाग़ और रूह को तकलीफ़ पहुंचाते हैं।

ऋग्वेद की ऋचाओं के जमाने से हम जिदगी और विचार की दीनों धाराओं का विकास बराबर देखते हैं। शुरू की ऋचाओं में बाहरी दुनिया की बातें भरी पड़ी हैं; प्रकृति की सुंदरता और रहस्य और जीवन के आनंद का वर्णन है और जीवन-बल भरपूर देखने को मिलता है। देवी-देवता ओलिपस’ (यूनान) (‘ यूनान का एक पर्वत, जो प्राचीन काल में देवताओं का निवास- स्थान माना जाता था।) के देवी-देवताओं की तरह मनुष्यों-जैसे हैं; ऐसा खयाल किया जाता है कि वे अपनी जगहों से उतरकर आदमियों और औरतों के बीच हिलते-मिलते हैं और दोनों के बीच कोई निश्चित विभाजक रेखा नहीं है। इसके बाद विचार आता है और खोज की भावना उपजती है और इस लोक से परे जो लोक है, उसका रहस्य गहराई पकड़ता है। जिंदगी अब भी भरी-पूरी बनी रहती है, लेकिन बाहरी रूपों की तरफ़ से मुड़ने की प्रवृत्ति भी आ जाती है और ज्यों-ज्यों आंखें अदृश्य चीजों की तरफ़ टिकती है-उन चीजों की तरफ़, जिन्हें साधारण तरीके से देखा या सुना या अनुभव नहीं किया जा सकता, त्यों-त्यों इन सबसे अलहदगी का भाव बढ़ता जाता है। इन सबका मक़सद क्या है? क्या इस विश्व का कोई उद्देश्य है? और अगर है, तो आदमी का जीवन इससे समरस कैसे हो सकता है? क्या हम देखी और अनदेखी दुनिया के बीच एक मधुर संबंध पैदा कर सकते हैं और इस तरह जिदगी में आचार का सही मार्ग ढूंढ निकाल सकते हैं ?

इसलिए हम पाते हैं कि हिंदुस्तान में इसी तरह, जिस तरह कि और जगहों में विचार और काम की ये दो धाराएं – एक जो जिदगी से इक़रार करती है, और दूसरी जो उससे बच निकलना चाहती है-साथ-ही-साथ विकसित होती हैं; हां मुख्तलिफ़ जमानों में कभी एक और कभी दूसरे पर ज्यादा जोर दिया गया है। फिर भी इस संस्कृति की बुनियाद पृष्ठभूमि – गैर-दुनियावी या इस दुनिया को हेच समझनेवाली नहीं थी। उस वक़्त भी, जबकि फ़िलसफे की भाषा में यह इस विषय पर बहस करती थी कि दुनिया माया है, यह खयाल कोई कतई खयाल न होता था, बल्कि आखिरी असलियत के रिश्ते में इसे ऐसा समझा जाता था (यह अफ़लातून की बताई हुई असलियत की परछाई-जैसी चीज थी); और यह संस्कृति दुनिया को उसकी मौजूदा सूरत से ग्रहण करती थी और जिदगी और उसकी बहुतेरी सुंदरताओं का लुत्फ लेना चाहती थी। शायद सेमेटिक संस्कृति- अगर हम उससे निकलनेवाले अनेक मजहबों की मिसालें लें (और खासतौर पर पुराने ईसाई मत की) कहीं ज्यादा गैर-दुनियावी रही है। टी० ई० लारेंस का कहना है कि “सेमेटिक मजहबों की आम बुनियाद में (इन मजहबों की चाहे हार हुई हो, चाहे जीत) हमेशा इस बात का खयाल रहा है कि दुनिया हेच है।” और इसका नतीजा यह हुआ है कि कभी तो लोग मौज उड़ाने की तरफ़ झुके हैं, और कभी आत्म-त्याग की तरफ़ ।

हम पाते हैं कि हिंदुस्तान में, हर जमाने में, जब उसकी संस्कृति ने फूल खिलाये हैं, लोगों ने जिदगी और प्रकृति में गहरा रस लिया है; जीने की क्रिया में ही उन्होंने आनंद का अनुभव किया है; साहित्य, संगीत और कला का विकास हुआ है। गाने, नाचने, चित्रकला और नाटकों में उनकी दिलचस्पी रही है; यहांतक कि यौन-संबंधों के बारे में बड़ी पेचीदा क्रिस्म की जांचें हुई हैं, इस बात का क़यास नहीं किया जा सकता कि एक ऐसी तहजीब या जिदगी का ऐसा नजरिया, जिसकी बुनियाद में गैर-दुनियादारी हो, या जो जिदगी को हेच समझता हो, इस तरह के विविध और जोरदार विकास का बानी होगा। दरअसल, इससे जाहिर होना चाहिए कि कोई भी तहजीब, जो बुनियादी तौर पर गैर-दुनियावी हो, हजारों साल तक अपने को क़ायम नहीं रख सकती।

फिर भी कुछ लोगों का खयाल है कि हिंदुस्तानी विचार और संस्कृति जिंदगी से इन्कार करने के सिद्धांत के सूचक हैं, जिदगी से इक़रार के सिद्धांत के नहीं। मेरा खयाल है कि दोनों ही सिद्धांत, कमोवेश, सभी पुरानी संस्कृतियों और पुराने धर्मों में मौजूद हैं। लेकिन मैं तो इस नतीजे पर पहुंचूंगा कि सब कुछ देखते हुए, हिंदुस्तानी संस्कृति ने जिदगी से इन्कार करने पर कभी जोर नहीं दिया है, अगरचे यहां के कुछ फ़िलसूफ़ों ने ऐसा जरूर किया है। बल्कि ईसाई मजहब के मुकाबले में इसने जिंदगी से जो इन्कार किया है, वह बहुत कम है। बौद्ध-धर्म और जैन धर्म ने अलबत्ता जिंदगी से अलग रहने पर कुछ जोर दिया है, और हिंदुस्तान के इतिहास के कुछ जमानों में एक बड़े पैमाने पर जिंदगी से दूर रहने की प्रवृत्ति रही है,मिसाल के लिए उस वक़्त जबकि बहुत ज्यादा घुमार में लोग बौद्ध-विहारों वा मठों में शामिल हुए हैं। इसकी क्या वजह थी, मैं नहीं जानता। इसी तरह को, बल्कि इससे इससे भी बड़ी हुई मिसालें हमें यूरोप यूरोप के मध्य-युग में मिल सकती है, जबकि इस तरह का विश्वास फैला हुआ था कि दुनिया का खात्मा होनेवाला है। शायद त्याग के और जिदगी से इन्कार करने के खयाल लोगों में उस वक़्त पैदा होते हैं, जब राजनैतिक या आर्थिक मायूसी का उन्हें सामना करना पड़ता है।

बोद्ध धर्म, बावजूद अपने उसूली नजरिये के बल्कि नजरियों के, क्योंकि कई नजरिये हैं- दरअसल आखिरी सीमाओं से अपने को बचाता है; यह तो बीच के रास्ते के सिद्धांत का माननेवाला है। यहांतक कि ‘निर्वाण’ के बारे में जो खयाल है, वह भी ऐसा नहीं कि उसे एक तरह की शुन्यता समझै, जैसाकि कभी-कभी समझा जाता है। यह एक निश्चित स्थिति है, लेकिन चूंकि यह इन्सान के विचारों से परे की वस्तु है, इसलिए इसके वर्णन में नकारात्मक शब्द इस्तेमाल किये गए हैं। अगर बौद्ध-धर्म, जो हिदुस्तानी विचार और संस्कृति की उपज का एक नमूना है, एक नकारात्मक या जिदगी से इन्कार करनेवाला सिद्धांत होता, तो जरूर ही उसका इस तरह का असर उन करोड़ों लोगों पर पड़ा होता, जो उसके माननेवाले हैं। लेकिन, दरअसल बौद्ध- मजहबबाले मुल्कों में हमें इसके खिलाफ सबूत मिलते है और चीनी लोग इस बात की जीती-जागती मिसाल है कि जिदगी से इकरार करना किसे कहते हैं।

जान पड़ता है कि यह गलतफ़हमो भी इस वजह से पैदा हुई है कि हिंदुस्तानी विचारधारा हमेशा जिंदगी के आखिरी मकसद पर जोर देती रही है। इसकी बनावट में जो आधिभौतिक अंश रहा है, उसे यह कभी नहीं भुला सकी है और इसलिए, जिदगी से दूसरी तौर पर इकरार करते हुए भी इसने जिदगी का शिकार या गुलाम बनने से इन्कार किया है। इसने कहा है कि सही कामों में अपनी पूरी ताक़त और शक्ति के साथ जरूर लगिये, लेकिन अपने को उससे ऊपर रखिये और अपने कामों में नतीजे के बारे में ज्यादा चिता न कीजिये। इस तरह इसने जिदगी और काम में लगे रहते हुए भी एक अलहदगी अख्तियार करना सिखाया है। इसने काम से मुह मोड़ना नहीं सिखाया। अलहदगी या विरक्त रहने का खयाल हिंदुस्तानी विचार और फिलसफ़े में समाया हुआ है, उसी तरह जैसेकि और बहुत-से दूसरे फिलसफ़ों में यह मिलता है। यह इस बात के कहने का सिर्फ एक दूसरा तरीक़ा है कि दृश्य और अदृश्य-जगत के बीच एक सम-तौल और तवाजुन कायम रखना चाहिए, क्योंकि दृश्य-जगत के कामों में अगर बहुत मोह पैदा हो जाता है, तो दूसरी दुनिया भुला दो जाती है या ओझल हो जाती है और तब खुद कामों के पीछे कोई आखिरी मकसद नहीं रह जाता।

हिंदुस्तानी दिमाग की इन शुरू की उड़ानों में सचाई पर जोर दिया गया है, उस पर भरोसा और उसके लिए उत्साह दिखाया गया है। हठवाद या इलहाम को उन लोगों के लिए छोड़ दिया गया है, जो मुक़ाबले में छोटा दिमाग रखनेवाले हैं और जो इनसे ऊपर उठ नहीं सकते। वे प्रयोग के जरिये, जिसकी नींव निजी अनुभव पर होती, सत्य की खोज करना चाहते थे। यह अनुभव, जब इसका ताल्लुक्क अदृश्य-जगत से होता, तो सभी भावुक या आत्मिक अनुभवों की तरह, दृश्य-जगत के अनुभवों से मुख्तलिफ़ होता । तीन परिमाणों की दुनिया से परे, किसी दूसरी ही और बड़ी दुनिया में यह जा पहुंचता और उसे तीन परिमाणवाले शब्दों में बता सकना कठिन होता। यह अनुभव क्या था, कोई दिव्य-दर्शन था, या सत्य और असलियत के किसी पहलू को पहचान लेना था, या महज स्वाव या खयाल था, मैं कह नहीं सकता। संभव है कि अकसर यह आत्म-मोह रहा हो। जिस बात में मुझे दिलचस्पी है, वह यह है कि इस खोज का तरीका कैसा था। यह हठवादी या कैही हुई बात को मान लेने का ढंग नहीं था, बल्कि जिदगी के बाहरी दिखावों के पीछे जो असलियत खोज निकालने की जाती कोशिश थी। है, उसे इसे याद रखना चाहिए कि हिंदुस्तान में फ़िलसफ़ा कुछ इने-गिने फ़िल- सूफ़ों या विचारकों का मैदान नहीं था। आम लोगों के मजहब का यह एक लाजिमी अंश था, और चाहे जितने घुले हुए रूप में क्यों न हो, यह भिदकर उन तक पहुंचता था और इसने उनमें एक फ़िलसफ़ियाना नजरिया पैदा कर दिया था, जो हिंदुस्तान में क़रीब-करीब उतना ही आम था, जितना कि चीन में यह है। कुछ लोगों के लिए तो इस फ़िलसफ़े ने एक गहरी और पेचीदा कोशिश की शक्ल अख्तियार कर ली थी, जो यह जानना चाहती थी कि सभी दिखाई पड़नेवाली वस्तुओं के पीछे कौनसे कारण और नियम काम कर रहे हैं। जिंदगी का आखिरी मक़सद क्या है, जिदगी में जो बहुत- सी परस्पर विरोबी बातें दिखाई पड़ती हैं, उनमें कोई भीतरी एकता है या नहीं। लेकिन आम लोगों के लिए यह एक ज्यादा सादा मामला था। फिर भी इसने उन्हें जिंदगी के मक़सद का, कार्य-कारण का, कुछ ज्ञान दिया और उनमें ऐसी हिम्मत पैदा की कि वे कठिनाइयों और बदनसीबियों का सामना कर सकें और अपनी शांति और खुशी को न खो बैठें । रवींद्रनाथ ठाकुर ने डाक्टर ताई-ची-ताओ को लिखा था कि चीन और हिंदुस्तान का पुराना ज्ञान ‘ताओ’ यानी सच्चा रास्ता पूर्णता की खोज है और जिदगी के अनेक कामों का जीवन के आनंद से मेल है। इस ज्ञान के कुछ हिस्से ने अनपढ़ और मूर्ख जनता पर भी अपनी छाप डाली है, और हमने देखा है कि सात साल के भयानक युद्ध के बाद भी चीनी लोगों ने अपने विश्वास के लंगर को सोया नहीं है और न अपने दिमारा की खुशी में फर्क आने दिया है। हिंदुस्तान में हमारी मुसीबतें और भी लंबी रही है और गरीबी और हद दर्जे की विपरित हमारे यहां के लोगों की अभिन्न साथी रही हैं। फिर भी वे हँस लेते हैं और गाते हैं और नाचते हैं और उम्मीद नहीं खो बैठे हैं।

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