
हिंदुस्तान की कहानी – हिंदुस्तान की कहानी’ पंडित जवाहरलाल नेहरू की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय कृतियों में से है। यह पुस्तक विश्वविख्यात ‘दि डिस्कवरी ऑव इंडिया’ का अनुवाद है। हम उनकी पुस्तक हिन्दुस्तान की कहानी को धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है धारावाहिक में छोटे आलेख पाठकों को पसंद आयेंगे और वे इस तरह नेहरू के हिन्दुस्तान को पूरा पढ़ पायेंगे। हमें आपकी प्रतिक्रिया और सुझावों का इंतजार रहेगा ताकि हम और बेहतर कर सकें। आज पुस्तक का चैप्टर :४ हिंदुस्तान की खोज ७: सस्त्वय और समझोता वर्ण-व्यवस्था का आरंभ
आर्यों के हिंदुस्तान में आने के नये मसले खड़े किये जी की और राजनेतिक, दोनों हो थे। हारी हुई जातिबानी इविड़ों के पीछे सत्यता को एक को पृष्ठभूमि थी, लेकिन इससे जरा भी शक नहीं कि आर्य लोग अपने को उनसे बहुत ही ऊंचा समते थे और दोनों के बीच एक चौड़ी बाई भो। फिर कुछ पिछड़ी हुई कदम जातियां भी थी, जो या तो जंगलों में रहा करतो थो या जानाबदोश थी। जातियों की इस कशमकश और आगत को प्रतिक्रिया से हो वर्ण व्यवस्था की शुरुआत हुई और बाद की सदियों में इसने हिंदुस्तानियों की जिदगी पर बड़ा गहरा असर डाला। शायद यह न आयों को चोज थो, व द्रविड़ों को। यह जुदा-जुदा जातियों को एक सामाजिक संगठन के अंदर के आने की कोशिश थी उस वक्त के जो भी हालात थे, उन्हें एक संगत रूप देने का प्रयास था। बाद में इसकी वजह से बड़ी पत्ती आई और आज भी यह एक बोझ और शाप के रूप में मौजूद है। लेकिन बाद को कसोटियों और विकास के आधार पर इसके बारे में फैसला करना मुना- सिव न होगा। यह व्यवस्था उस जमाने के विचारों के अनुरूप थी और कुछ इस तरह के दवें सभी कदीम तहजीबों में हम पायेंगे, सिवाय चीन के, जो जाहिरा तौर पर इससे बचा हुआ था। आर्यों की दूसरी शाख में, यानी ईरानियों के यहां सासानी जमाने में चार दर्ज किये गए थे, लेकिन इन्होंने बिगडकर जातों की शक्ल नहीं ली। बहुत-सी पुरानी तहजीवें-जिनमें कप्तानी भी एक है- आम लोगों की गुलामी के बल पर बनी थीं। हिंदुस्तान में मजदुर की गुलामी इतने बड़े पैमाने पर नहीं थी, अगरचे एक बोड़ी तादाद ने घरेलू गुलाम यहां पर भी थे। अफलातून ने अपनी ‘रिपब्लिक’ पुस्तका में चार खास वणों के ढंग के दजों की चर्चा की है। मध्य-युग के कैवलिका देशों में भी इस तरह का भेद मौजूद था।
जात या वर्ण का आरंभ आर्यों और अनायों के मेद से हुआ। अनार्यों में मो दो भेद थे, एक तो द्रविड़ जातियां थी; दूसरे यहां की कदीम जातियों थी। शुरू में आयों में सिर्फ एक वर्ग था और पंचों का शायद ही बटवारा श्री आर्य शब्द की व्युत्पत्ति ऐसी बात से है, जिसका अर्थ परतों का बाकी है और सभी आर्य खेतिहर थे, खेती एक काबिल-कद्र पंगा समभा आता था। धरती के जोतनेवाले पुरोहित सिपाही, व्यापारी सभी हंति और पुरोहितों को कोई विशेष हक हासिल नहीं थे। वर्ण-भेद, जिसका मकसद पुरयों को अनायों से जुदा करना था, अब खुद आवों पर अपना यह असर बाया कि ज्यों-ज्यों धंधे बड़े और इनका आपस में बंटवारा हुआ, त्या-त्या नये वनों से वर्ण या जाति की शक्ल ले ली।
इस तरह, ऐसे जमाने में, जब फतह करनेजालों का यह फायदा था कि हारे हुए लोगों को या तो गुलाम बना लेते थे, या उन्हें बिलकुल मिटा देते थे, वण-व्यवस्था ने एक शांतिवाला हल पेश किया और बढ़ते हुए धंयों के बटवारे की जरूरत ने इसमें मदद पहुंचाई। समाज में दर्जे कायम हो गए। किसान जनता में से वैश्य बने, जिनमें किसान, कारीगर और व्यापारी लोग थे; क्षत्रिय हुए जो हुकूमत करते थे या युद्ध करते थे; ब्राह्मण बने जो पुरो- हिती कारते थे, विचारक थे, जिनके हाथ में नोति की बागडोर थो और जिनसे यह उम्मीद की जाती थी कि वे जाति के आदशों की रक्षा करेंगे। इन तीनों वर्षों से नीचे शूद्र थे, जो मजदूरी करते थे और ऐसे घंचे करते थे, जिनमें खास जानकारी को जरूरत नहीं होती और जो किसानों से अलग थे। कदीम बाशिंदों में से भी वहुत-से इस समाज में मिला लिये गए और उन्हें शूद्रों के साथ इस समाजी व्यवस्था में सबसे नीचे का दर्जा दिया गया। यह मिला लेने का काम बरावर जारी रहा। इस वर्ण-विभाजन में अदला- बदली होती रही और सख्ती के साथ तो भेद बाद में कायम हुए। शायद हुकूमत करनेवाले वर्ण को हमेशा बड़ी आजादी रही, और कोई भी शख्स, जो लड़कर या दूसरी तरह ताकत अपने हाथ में कर लेता था, वह अगर चाहे, तो क्षत्रियों में शरीक हो सकता था और पुरोहितों के जरिये अपनी वंशावली तैयार करा सकता था, जिसमें उसका ताल्लुक्क किसी प्राचीन आर्य शूरवीर से दिखा दिया जाता ।
आर्य शब्द का रफ़्ता-रफ़्ता कोई जातीय अभिप्राय न रह गया और इसके मानी ‘कुलीन’ के हो गए। इसी तरह अनार्य के मानी यह हुए कि जो कुलीन न हो और यह शब्द आमतौर पर जंगल में रहनेवालों और खाना- बदोश जातियों के लिए इस्तेमाल में आता ।
हिंदुस्तानियों में विश्लेषण करने की एक अद्भुत बुद्धि रही है और इसने न केवल विचारों, बल्कि जिंदगी के कामों को अलग-अलग टुकड़ों में बांटने के लिए उत्साह दिखाया है। आर्यों ने समाज को तो चार खास हिस्सों में बाटा ही, शरुसी जिदगी का भी इसने चार टुकड़ों या अवस्थाओं में बंटवारा किया है-पहलो अवस्था ब्रह्मचर्य की है, जबकि आदमी बढ़कर युवा होता है, विद्या सीखता है, ज्ञान हासिल करता है और आत्म-संयम का अभ्यास करता है; दूसरी अवस्था गृहस्थ की है, जबकि वह दुनियादारी में लगता है: तीसरा अवस्था बड़े-बूड़े व्यवहार-कुशल वानप्रस्थ को है, जिसमें उसने तटस्थता और सम-तील हासिल कर लिया है और अपने को समाज- सेवा के कामों में, बिना निजी लाभ की इच्छा के, लगा सकता है; आखिरी भवस्था संन्यास की है, जिसमें वह दुनिया से बिलकुल अलग-थलग हो जाता है और दुनिया के बंबों को छोड़ देता है। इस तरह से आर्यों ने आदमी में साथ- साथ रहनेवाली दो विरोबो प्रवृत्तियों में भी समझौता कायम किया- यानी उस प्रवृत्ति में, जो जिदगी से इकरार करती है और उसमें, जो जिदगी जे इन्कार करती है।
जिस तरह चीन में हुआ है, उसी तरह हिंदुस्तान में विद्या और क़ाब- लियत की हमेशा लोगों ने बड़ी क़द्र को है और विद्या का अभिप्राय ऊंचे क्रिस्म के ज्ञान के साथ-साथ सदाचार से रहा है। विद्वानों के सामने हुकूमत करने- वालों और योद्धाओं ने सदा सिर झुकाया है। पुराना हिंदुस्तानों सिद्धांत यह रहा है कि जिनके हाथ में ताकत है, वे पूरे-पूरे ढंग से कभी तटस्थ नहीं हो सकते। उनकी निजी दिलचस्पियों और प्रवृत्तियों का आम लोगों की जानिब जो उनके फर्ज है, उनसे सबर्ष पैदा होगा। इससे मूल्यों के ठीक-ठीक आंकने के लिए और नोति के आदशों को रक्षा के लिए विचारकों के एक वर्ग को, जो आधिक चिताओं और जहांतक हो सके, तरफदारी से, दूर रहें और जिदगी के मसलों पर अलहदगी से गौर कर सकें, चुना गया। इस प्रकार विचारकों और फ़िलसूफ़ों के वर्ग ने समाज के संगठन में सबसे ऊंचा दर्जा पाया और सब लोग इनका आदर और मान करते थे। इसके बाद काम के मैदान के लोग थे, यानी हुकूमत करनेवाले और लड़ाइयों में हिस्सा लेने- वाले, लेकिन इनकी चाहे जैसी ताक़त रही हो, इन्हें वह इज्जत नहीं हासिल थी, जो पहले वर्ग के लोगों को थी। इससे भी कर कद्र थी दौलतमंदों की । युद्ध करनेवाले वर्ग को बहुत ऊंचा रुतवा मिला था। अगरचे यह सबसे ऊपर का वर्ग नहीं था। इस बात में हमारी स्थिति चीन से जुदा थी, जहां इस वर्ग को हिकारत से देखा जाता था।
यह एक उसूली बात थी और कुछ हद तक यह और जगहों में भी मिलती है। मिसाल के लिए मध्य-युग के यूरोप की ईसाई रियासतों को ले कोजिए, जबकि रोम के पादरियों के हाथ में सभी सहानी, इखलाकी और नैतिक मामलों की नकेल थी, यहांतक कि रियासत के कार-वार के ि बादी आम उसूलों को भी। अमली तौर पर रोम के पादरियों की गहभरी दि बस्पी दुनियाको ताकत में पैदा हो गई थी और मजहब के खास पुरोहित को खुद हाकिम बने हुए थे। हिदुस्तान में ब्राह्मण-वर्ग ने विचारकों और सिद सूफो को पेश करने के अलावा खुद ताकत हासिल कर ली थी, इस तरह अपने को सुरक्षित करके पुरोहितों ने अपनी जायदादों की हिफाजत की ठाने सो थी। लेकिन यह सिद्धात मुख्तलिफ हद तक हिंदुस्तानी जिदगी पर गहरा असर डालता रहा और आदर्श हमेशा यह रहा कि विद्वान और दया- बात, भले और संयमी और दूसरों के लिए आत्म-त्याग करनेवालों की इज्जत की जाय। ब्राह्मण-वर्ग में, गुजरे जमाने में, अधिकारी जमात की सभी बुराइयां रही हैं, और इसमें से बहुतेरे न काबिल हुए हैं, न नेक। फिर भी आम लोगों में उनकी इज्जत बनी रही है, इसलिए नहीं कि उनके पाग दौलत इकट्ठा हो गई थी, बल्कि इसलिए कि उन्होंने पौड़ी-दर-पीड़ी बहुत-से काबिल लोगों को पैदा किया था, जिन्होंने अपने त्याग द्वारा आम लोगों की और समाज की सेवाएं की थीं। अपने खास-खास लोगों के कारनामों में पूरे वर्ग ने हर युग में फ़ायदा उठाया है, लेकिन आम लोगों ने इज्जत की है गुणों को, न कि पदों की। परंपरा यह रही है कि भलाई और विद्या की इश्जत हो, वह चाहे जिस शख्स में हो। बहुत-सी मिसाले हैं इस बात की कि गैर- ब्राह्मणों की, यहांतक कि दलित-वर्ग के लोगों की इतनी इज् जत की गई है कि उन्हें संतों का रुतबा तक दिया गया है। सरकारी पद और फोजी शक्ति की उतनी इज्जत नहीं की गई है- इनका मय चाहे लोगों ने माना हो।
बाज भी, इस पैसे के युग में, इस परंपरा का असर साफ तौर पर दिखाई देता है, और इसीकी वजह से गांधीजी (जो ब्राह्मण नहीं हैं) आज हिंदुस्तान के सबसे बड़े नेता बन गए हैं और बिना किसी सरकारी पद के या घन के जोर के आज करोड़ों दिलों पर उनका सिक्का जमा हुआ है। शायद एक क्रीम की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और चेतन या अचेतन उद्देश्य की यह एक अच्छी कसौटी है, यानी किस तरह के नेता को वह कुबूल करती है।
पुरानी हिंदुस्तानी सभ्यता, या भारतीय आर्य-संस्कृति में धर्म का विचार एक केंद्रीय विचार था ओर घर्म के मानी मत या मजहब से कुछ ज्यादा थे। इसमें दूसरों के प्रति अपने फ़र्ज की अदायगी का भी विचार रहा है। यह घर्म खुद ‘ऋत’ का अंग था, यानी उस बुनियादी नैतिक विधान का अंग था, जो इस सारे विश्व को और जो कुछ इस विश्व में है, उस
हिंदुस्तान की खोज सबका नियमन करता है। यदि । ऐसी कोई व्यवस्था है, तो मनुष्य को उसके अनुकूल बनना तथा रहना-सहना बाहिए कि इससे उसकी संगति या समरसता कायम रहे। अगर आदमी अपने फर्जी को अदा करता है और सदाचार की दृष्टि से उसके काम ठीक हैं, तो लाजिमी तौर पर नतीजे उनके ठीक होंगे। हकों पर जोर नहीं दिया जाता था। यह कुछ हद तक सभी जगह पुराना नजरिया रहा है। इस जमाने में जो शख्सी गिरोहों और क्रोमों के हकों पर जोर दिया जाता है, वह इससे जाहिरा तौर पर बहुत खिलाफ़ जान पड़ता है।
जारी…..