हिंदुस्तान की कहानी- चेप्टर ४: हिंदुस्तान की खोज- भाग ८ : हिन्दुस्तानी संस्कृति का अटूट सिलसिला 

इस तरह, शुरू-शुरू के दिनों में हम एक ऐसो सभ्यता और संस्कृति का आरंभ देखते हैं, जो बाद के युगों में बहुत फली-फूली और पनपी और जो बावजूद बहुत-सी त्वदीलियों के बराबर कायम रही। बुनियादी आदर्श और मुख्य विचार अपना रूप यहण करते हैं और साहित्य और फ़िलसफ़ा, कला और नाटक और जिंदगी के और धंधे इन आदशों से और लोकमत से प्रभा- वित होते हैं, जो बाद में उगकर बढ़ते ही रहे और आजकल की वर्ण-व्यवस्था के रूप में उन्होंने सारे समाज और सभी चीजों को जकड़ लिया। यह व्यवस्था एक खास युग को परिस्थितियों में बनी थी और इसका उद्देश्य समाज का संगठन और उसमें सम-तील पैदा करना था, लेकिन इसका विकास कुछ ऐसा हुआ कि यह उसी समाज के लिए और इन्सानी दिमाग़ के लिए कैंदघर बन गई। आखिरकार तरक्की के दामों हिफाजत खरीदी गई।

फिर भी बहुत दिनों तक यह व्यवस्था क़ायम रही और सभी दिशाओं में तरक्की करने की प्रेरणा इतनी जोरदार थी कि उस व्यवस्था के चौखटे के भीतर भी यह सारे हिंदुस्तान में और पूरवी संमुंदरों तक फैली और इसकी पायदारी ऐसी थी कि यह हमलों के धक्के बार-बार सहकर भी जिदा रही। प्रोफेसर मैकडानेल अपने ‘संस्कृत साहित्य के इतिहास’ में हमें बताते है कि “हिंदुस्तानी साहित्य का महत्त्व, समग्र रूप से, उसकी मौलिकता में है। जिस वक्त कि यूनानियों ने ईसा से पहले की चौथी सदी के अंत में पच्छिमोत्तर में हमला किया, उस वक़्त हिंदुस्तानी अपनी कौमी संस्कृति कायम कर चुके थे और इस पर विदेशी प्रभाव नहीं पड़े थे। और बावजूद इसके कि ईरानियों, यूनानियों, सिदियनों और मुसलमानों के हमलों की लहरें एक के बाद एक आती रहीं और ये लोग विजय पाते रहे, भारतीय- आर्य जाति की जिंदगी और साहित्य का क़ौमी विकास अंग्रेज़ों के अधिकार के वक्त तक बिना रुकावट और अटूट क्रम से चलता रहा। इंडो-पूरोपियन जाति की किसी शाख ने, अलग रहते हुए, ऐसे विकास का अनुभव नहीं किया। चीन को छोड़कर कोई ऐसा मुल्क नहीं, जो अपनी भाषा और साहित्य, अपने धार्मिक विश्वास और कर्म-कांड और अपने सामाजिक रीति-रिवाजों का तीन हजार वर्षों से ज्यादा का अटूट विकास का सिल- सिला पेश कर सके।”

लेकिन इतिहास के इस लंबे जमाने में हिंदुस्तान बिलकुल अलग-थलग नहीं रहा है और उसका निरंतर और जीता-जागता संपर्क ईरानियों, यूनानियों, चोनियों, मध्य-एशियाथियों और औरों से रहा है। अगर उसको बुनियादी संस्कृति इन संपकों के बाद भी कायम रही, तो जरूर खुद इस संस्कृति में कोई बात कोई भोतरी ताकत और जिदगी की समझ-बूझ- रही है, जिसने इसे इस तरीके पर जिंदा रखा है, क्योंकि यह तीन-चार हजार बरसों का संस्कृति का विकास और अटूट सिलसिला एक अद्भुत बात है। मशहूर विद्वान् और प्राच्यविद् मैक्समूलर ने इस पर जोर दिया है और लिखा है- “दरअसल हिंदू विचार के सबसे हाल के और सबसे पुराने रूपों में एक अटूट क्रम मिलता है और यह तीन हजार साल से ज्यादा तक बना रहा है।” बहुत जोश के साथ उन्होंने (इंग्लिस्तान को केंब्रिज यूनिवसिटो में दिये गए व्याख्यानों में, सन् १८८२) में कहा है-” “अगर हम सारी दुनिया की खोज करें, ऐसे मुल्क का पता लगाने के लिए कि जिसे प्रकृति ने सबसे संपन्न, शक्तिवाला और सुंदर बनाया है- जो कुछ हिस्सों में धरती पर स्वर्ग की तरह है तो मैं हिंदुस्तान की तरफ इशारा करूंगा। अगर मुझसे कोई पूछे कि किस आकाश के तले इन्सान के दिमाग़ ने अपने कुछ सबसे चुने हुए गुणों का विकास किया है, जिंदगी के सबसे अहम मसलों पर सबसे ज्यादा गहराई के साथ सोच-विचार किया है और उनमें से कुछ के ऐसे हल हातिल किये हैं, जिनपर उन्हें भी ध्यान देना चाहिए, जिन्होंने कि अफ़लातून और कांट को पढ़ा है तो मैं हिंदुस्तान की तरफ इशारा करूंगा। और अगर मैं अपने से एहूं कि कौनसा ऐसा साहित्य है, जिससे हम यूरोपवाले, जो बहुत- कुछ महज यूनानियों और रोमनों और एक सेमेटिक जाति के, यानी यहूदियों के, विचारों के साथ-साथ पले हैं, वह इसलाह हासिल कर सकते हैं, जिसकी हमें अपनी जिंदगी को ज्यादा मुक्रम्मिल, ज्यादा विस्तृत और ज्यादा व्यापक

बनाने के लिए जरूरत है, न महज इस जिदगी के लिहाज से, बल्कि एक एकदम बदलो हुई और सदा क़ायम रहनेवाली जिंदगी के लिहाज से तो में हिंदुस्तान को तरफ इशारा करूंगा।”

करीब-करीब आधी सदी बाद, रोम्यां रोलां ने उसी लहजे में लिखा है- “अगर दुनिया की सतह पर कोई एक मुल्क है, जहां कि जिंदा लोगों के सभी सपनों को उस कदीम बक्त से जगह मिली है, जबसे इन्सान ने अस्तित्त्व का सपना शुरू किया, तो वह हिंदुस्तान है।”

जारी….

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *