(सरदार पटेल का पत्र व्यवहार, 1945-50, प्रकाशक नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, अहमदाबाद )
“अब चूंकि महात्मा हमारे बीच नहीं हैं, नेहरू ही हमारे नेता हैं। बापू ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी
नियुक्त किया था और इसकी घोषणा भी की थी। अब यह बापू के सिपाहियों का कर्तव्य है कि वे उनके
निर्देश का पालन करें और मैं एक गैरवफादार सिपाही नहीं हूं।”
यह एक दुष्प्रचारित तथ्य है कि सरदार पटेल कांग्रेस के तीन दिग्गजों महात्मा गाँधी, नेहरु और सुभाष
बाबू के खिलाफ थे। किंतु यह मात्र दुष्प्रचार ही है। हाँ, कुछ मामलों में-खासकर सामरिक नीति के
मामलों में-उनके बीच कुछ मतभेद जरुर थे, पर ये मतभेद लोकतांत्रिक प्रक्रिया के एक अंग थे न कि
किसी की खिलाफत थी। उन्होंने प्रधानमंत्री के रुप में पं. नेहरु के प्रति भी उपयुक्त सम्मान प्रदर्शित
किया। उन्होंने ही भारत को ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल में शामिल करने के लिए नेहरु को तैयार किया था;
यद्यपि नेहरु पूरी तरह इसके पक्ष में नहीं थे।
नेहरू पटेल के बीच मतभेदों को दुष्प्रचारित करते हुए यह अक्सर कहा जाता है कि सरदार पटेल के
संतानों को नेहरू ने पटेल की मृत्यु के बाद कभी भी सम्मान नहीं दिया। लेकिन वे यह तथ्य भूल जाते हैं
कि, नेहरू के रहते ही, मणिबेन को काँग्रेस में पूरा मान-सम्मान मिला, और सरदार पटेल के बेटे
डाह्याभाई पटेल 1957 और 1962 में लोकसभा के लिए चुने गए और फिर 1973 में अपने देहांत तक
राज्यसभा के सदस्य रहे. उस समय पटेल के पुत्र के विरोध में कौन था, भारतीय जनसंघ। एक समय
ऐसा भी आया जब सरदार पटेल के बेटे और बेटी, दोनों ही एक साथ लोकसभा और फिर राज्यसभा में
थे ।
जिस नेहरू को वंशवादी कह कर कोसा जाता है उनकी ही एकमात्र पुत्री इंदिरा गांधी को नेहरू के
जीवित रहते तक लोकसभा और राज्यसभा का टिकट तक नहीं मिला। इंदिरा पहली बार राज्यसभा के
लिये 1965 में जब लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने थे तो चुनी गयी थी। जबकि 1950 में सरदार
पटेल की मृत्यु के बाद नेहरू ने मणिबेन 1952 के पहले ही आम चुनाव में काँग्रेस का टिकट दिलवाया.
और वे दक्षिण कैरा लोकसभा क्षेत्र से सांसद बनीं. 1957 में वे आणंद लोकसभा क्षेत्र से चुनी गईं.
1964 में उन्हें काँग्रेस ने राज्यसभा भेजा. वे 1953 से 1956 के बीच गुजरात प्रदेश काँग्रेस कमेटी की
सचिव और 1957 से 1964 के बीच उपाध्यक्ष रहीं।
नेहरू संघ परिवार के सदैव निशाने पर रहे हैं और आज भी हैं। संघ परिवार के पटेल अनुराग का एक
कारण यह भी है कि पटेल और नेहरू में लोकतांत्रिक मत मतांतर रहे जिसे संघ परिवार एक
प्रतिद्वंद्विता के रूप में देखता रहा है। नेहरू के विरुद्ध प्राप्त हर तर्क और प्रसंग को यह लपक लेता है।
संघ परिवार की मुख्य समस्या एक यह भी है कि उसे कांग्रेस की गाँधी-नेहरू विरासत की काट के लिए
कुछ ऐसे नेता चाहिए जिनका उपयोग वह अपने हिन्दुत्व के एजेंडे के लिए कर सके। उसके अपने
वैचारिक पुरखे इस काबिल नहीं हैं कि वे गाँधी-नेहरू की धर्मनिरपेक्ष विरासत का मुकाबला कर सकें,
इसलिए संघ टोली ने सरदार पटेल, सुभाषचंद्र बोस से लेकर भगतसिंह तक को अपने पुरखों से जोड़ने
की नाकाम कोशिश कई बार की, जबकि पटेल, सुभाष और भगतसिंह आदि का संघ परिवार से दूर-दूर
तक कोई लेना-देना नहीं था।
नेहरू से कई मुद्दों पर मतभेद के बावजूद पटेल ने कभी नेहरू का साथ नहीं छोड़ा। यहाँ तक कि नेहरू-
लियाकत समझौते के बढ़ते विरोध पर जवाहरलाल नेहरू ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने की पेशकश
की तो पटेल ने ही उन्हें ऐसा न करने के लिए मनाया और कहा कि देश को आपके नेतृत्व की जरूरत है।
1947 में दिल्ली में दंगाई जब हजरत निजामुद्दीन की दरगाह तोड़ने के लिए बढ़ रहे थे, तब गृहमंत्री
होते हुए पटेल खुद दरगाह